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International Women's Day: उर्दू के वो अशआर जो औरतों को अपने हक़ के लिए लड़ जाने का जज़्बा देते हैं

परवीन शाकीर, फहमीदा रियाज़, इशरत आफरीं जैसीं कई महिला शायरा हैं, जिन्होंने महिलाओं को लेकर बेहतरीन शायरी की है. वहीं मज़ाज, क़ैफ़ी आज़मी और साहिर जैसे शायरों ने भी समाज की दक़यानूसी सोच और औरत के बारे में ज़ालिमाना रवैये के खिलाफ अपने शब्दों के क्रांति लाने का काम किया.

International Women's Day 2021: शायरी का सही अर्थ सिर्फ औरतों की पहचान हुस्न तक सीमित कर देना नहीं बल्कि शायरी तो वो ज़रिया है जो औरतों की जिंदगी के अलग-अलग पहलुओं को रौशन कर सके. वही पहलू जो हुस्न और बेवफाई के अधिक जिक्र की वजह से कहीं धुंधली होती मालूम होती है. लेकिन अदब की दुनिया में ऐसे कई नाम हुए हैं जिन्होंने अपनी शायरी में औरत से किसी भी हालात में चुप न रहने की गुजारिश की. इन शायरों ने औरतों के उन दर्द भरे हालात का जिक्र भी बेबाकी से किया है जब उनकी जिंदगी फूलों के बगान से पत्थर की खदान में तब्दील हो गई. इन शायरों ने उन औरतों के गुरूर को भी बड़े ही सम्मान के साथ लिखा जो सामाजिक स्वीकृति के लिए सजदों में दफ़न नहीं होती बल्कि अपने अधिकार के लिए पुरुषसत्तात्मक समाज से भिड़ जाती हैं. एक ऐसी औरत जो आदमी की ख्वाहिशों के लिए अपनी ख्वाहिशों की बलि नहीं देती बल्कि समूचे समाज को कटघरे में खड़ा कर पूछती है कि उनके अपने सपनों का क्या? उनके अपने अधिकारों का क्या?

इन शायरों के शेर का एक बड़ा हिस्सा पूरी तरह से नारीवादी है. इस सूचि में जहां एक तरफ परवीन शाकीर, फहमीदा रियाज़, इशरत आफरीं जैसीं कई महिला शायरा के नाम शामिल हैं तो वहीं मज़ाज, क़ैफ़ी आज़मी और साहिर जैसे शायरों ने भी समाज की दक़यानूसी सोच और औरत के बारे में ज़ालिमाना रवैय्ये के ख़िलाफ़ अपने शब्दों से क्रांति लाने का काम किया.

परवीन शाकिर जब भी बात उर्दू शायरी की होती है तो अचानक बहस मीर, ग़ालिब, इकबाल से शुरू होकर फैज़, मजाज़, जोश और साहिर तक पहुंचती दिखाई देती है लेकिन इन बेहतरीन शायरों के 'मर्दाना हुकूमत' को अगर कोई शायरा बराबरी से टक्कर देती हैं तो वो नाम परवीन शाकिर का है. कच्ची उम्र के रूमानी जज्बात और एक औरत के एहसास को शायरी में शायद ही कोई और शायरा हो जिसने इतने खूबसूरती से बयान किया हो जितनी खूबसूरती से परवीन शाकिर ने किया.

परवीन शाकिर ने एक लड़की से किसी की बीवी और फिर किसी की मां बनने के औरत के सफर का पूरा किस्सा अपने अशआर में बयान किया है. औरत और उस औरत का इश्क़ उनकी शायरी की ज़मीन थी.

गए बरस कि ईद का दिन क्या अच्छा था चाँद को देख के उस का चेहरा देखा था फ़ज़ा में ‘कीट्स’ के लहजे की नरमाहट थी मौसम अपने रंग में ‘फ़ैज़’ का मिस्रा था

परवीन शाकिर की शायरी में एक औरत की मोहब्बत का इज़हार है तो उसका वियोग भी है. मर्द की बेवफ़ाई भी है. यहां तक की उन्होंने तलाक जैसे विषयों पर भी लिखा जिसपर मर्द शायर न के बराबर लिखते थे.

कव्वे भी अंडे खाने के शौक़ को अपने फ़ाख़्ता के घर जा कर पूरा करते हैं लेकिन ये वो सांप हैं जो कि अपने बच्चे ख़ुद ही चट कर जाते हैं कभी कभी मैं सोचती हूं कि सांपों की ये ख़सलत मालिक-ए-जिंन-ओ-इन्स की, इंसानों के हक़ में कैसी बे-पायां रहमत है!

फहमीदा रियाज़ शायरी को हथियार कैसे बनाया जाता है इसका सबसे बड़ा उदाहरण जानना हो तो फहमीदा रियाज़ की शायरी पढ़िए. राजनीति, धर्म और समाज में महिलाओं को लेकर दकियानूसी सोच के खिलाफ उनकी शायरी मजबूती से खड़ी नजर आती है. उनकी शायरी के बदौलत वो औरत के अधिकार की अलमबरदार शायरा बन गईं. फहमीदा रियाज के पहले काव्य संग्रह में ही औरत की सेक्सुअल डिज़ायर पर कविता थी, जिसपर जमकर हंगामा बरपा. लेकिन उन्होंने इसकी परवाह न करते हुए दूसरे काव्य संग्रह 'बदन-दरीदा' में औरतों की आवाज इस कदर बुलंद की कि किताब पर जमकर आपत्तियां उठाने वाले आ गए. अब 'मुक़ाबला-ए-हुस्न' की ये पक्तियां देखिए

कूल्हों में भंवर जो हैं तो क्या है सर में भी है जुस्तुजू का जौहर था पारा-ए-दिल भी ज़ेर-ए-पिस्तां लेकिन मिरा मोल है जो इन पर घबरा के न यूं गुरेज पा हो पैमाइश मेरी खत्म हो जब अपना भी कोई उज़्व नपो

इशरत आफरीं नारीवादी शायरी की जब भी बात होगी तो इशरत आफरीं का नाम पहले शायराओं में आएगा. उनकी शायरी में उस औरत का जिक्र है जिसे औरत होने की वजह से बोलने नहीं दिया जाता. जिसके बोलने से समाज को दिक्कत है और इसलिए उसकी आवाज दबा दी जाती है.

वो जिस ने अश्कों से हार नहीं मानी किस ख़ामोशी से दरिया में डूब गई शहर बहरा है लोग पत्थर हैं अब के किस तौर इंक़लाब उतरे

उनकी शायरी पितृसत्तात्मक समाज से सवाल करती है और वो सवाल होता है औरत के हक़ का सवाल

लड़कियां मांओं जैसा मुकद्दर क्यों रखती है तन सहरा और आंख समंदर क्यों रखती हैं

औरतें अपने दुख की विरासत किसको देंगी संदूकों में बंद यह ज़ेवर क्यों रखती हैं

वह जो आप ही पूजी जाने के लायक़ थीं चम्पा सी पोरों में पत्थर क्यों रखती हैं

वह जो रही हैं ख़ाली पेट और नंगे पांव बचा बचा कर सर की चादर क्यों रखती हैं

बंद हवेली में जो सान्हें हो जाते हैं उनकी ख़बर दीवारें अकसर क्यों रखती हैं

सुबह ए विसाल किरनें हम से पूछ रही हैं रातें अपने हाथ में ख़ंजर क्यों रखती हैं

जिस तरह महिला शायरा महिलाओं के दुख-दर्द को बयां कर उनका हौसला शायरी से बढ़ाती रही हैं ठीक उसी तरह कई मर्द शायर भी औरतों के हक़ के लिए लिखते रहे हैं और उनकी पक्तियां समाज के दकियानूसी सोच जो औरत को दोयम दर्जा देना चाहता है उसके खिलाफ मसाल जलाए हुए रहा.

असरार उल हक़ 'मजाज़' जब इश्क़ का जुनून दीवानगी की हद तक पहुंच जाता है तो वो असरार उल हक़ मजाज़ हो जाता है. वही शायर जो मोहब्बत की पहली शर्त ये मानता था कि औरत को हर हाल में आजाद होना चाहिए. असरार उल हक़ मजाज़ का यही तरक्कीपसंद और हकपसंद मिज़ाज था कि कहते हैं अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी में लड़कियां उनके गज़ल संग्रह को अपने तकिये के नीचे रखा करती थीं. एक दफा मशहूर अदाकारा नर्गिस लखनऊ में थीं, तभी उनको मज़ाज से मिलने की ख्वाहिश हुई. वो उनसे मिलने पहुंची तो ऑटोग्राफ की मांग की. उस वक़्त नर्गिस के सर पर सफेद दुपट्टा था. मज़ाज ने जब नर्गिस की डायरी में उनको ऑटोग्राफ दिए तो साथ में एक शेर लिखा जो आज भी औरतों को अपने हक़ के लिए लड़ने को प्रेरित करती हैं. वो शेर था.

तेरे माथे पे ये आंचल तो बहुत ही ख़ूब है लेकिन तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था

कहते हैं जब उन्होंने ये पूरी नज़्म अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी में पढ़ी थी तो लड़कियां दीवानी हो गई थीं. अहमद फराज़ ने अपनी शायरी से इतनी शौहरत पाई कि माओं ने अपने बच्चों के नाम उनके नाम पर रख दिए लेकिन मज़ाज के शौहरत का आलम तो ये था कि लड़कियों ने भविष्य़ में होने वाले बच्चों के नाम मजाज़ के नाम पर रखने की ठान ली.

क़ैफ़ी आज़मी उर्दू अदब का एक ऐसा शायर जो औरतों से अपनी नज़्म के जरिए कहता है कि तुम्हें हर हाल में अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है. तुम्हारी पहचान सिर्फ वो नहीं जो दुनिया समझ रही है बल्कि इससे कई ज्यादा है. बात हैदराबाद के एक मुशायरे की है. मंच पर जाते ही क़ैफ़ी आज़मी साहब अपनी मशहूर नज़्म 'औरत' सुनाने लगे.

"उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे, क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं,

तुझमें शोले भी हैं बस अश्क़ फिशानी ही नहीं, तू हक़ीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं,

तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं, अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे,

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे,"

उनकी यह नज़्म सुनकर श्रोताओं में बैठी एक लड़की नाराज हो गई. उस लड़की ने कहा, "कैसा बदतमीज़ शायर है, वह 'उठ' कह रहा है. 'उठिए' नहीं कह सकता क्या? इसे तो अदब के बारे में कुछ नहीं आता. कौन इसके साथ उठकर जाने को तैयार होगा? "लेकिन जब कैफ़ी साहाब ने अपनी पूरी नज्म सुनाई तो महफिल में बस वाहवाही और तालियों की आवाज सुनाई दे रही थी. इस नज़्म का असर यह हुआ कि बाद में वही लड़की जिसे कैफी साहाब के 'उठ मेरी जान' कहने से आपत्ति थी वह उनकी पत्नी शौक़त आज़मी बनीं.

साहिर लुधियानवी साहिर लुधियानवी के शेरों, ग़ज़लों और नज़्मों में औरत का दर्द और मर्द की उस औरत के प्रति क्रुरता साफ दिखाई देती है. दरअसल साहिर ने जो भी बचपन से देखा उसे बाद में अपने लेखन में उतारा. साहिर को पालने-पोसने और पढ़ाने के लिए उनकी अम्मी ने बहुत दुख झेला था. दरअसल जब साहिर के वालिद और वालिदा एक-दूसरे से अलग हो रहे थे तो 10 साल के साहिर किसके पास रहेंगे इसका फैसला कोर्ट को करना था..कोर्ट ने साहिर के वालिद फज़ल मुहम्मद से पूछा- साहिर की तालीम का इंतजाम किस तरह से करेंगे..साहिर के पिता ने कहा- हमारे पास सबकुछ तो है, फिर पढ़कर क्या करेगा.. यही सवाल जब साहिर की मां से कोर्ट ने पूछा तो उन्होंने कहा- मैं अपने साहिर को इतना पढ़ाऊंगी कि वह एक दिन दुनियाभर में अपने इल्म-ओ-फ़न के लिए जाना जाएगा. मां के संघर्ष के लिए साहिर ने जो नज़्म लिखी वो आज भी कई महिलाओं के हालात को बयान करने वाली कड़वी सच्चाई है.

औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा धुत्कार दिया

तुलती है कहीं दीनारों में बिकती है कहीं बाज़ारों में नंगी नचवाई जाती है अय्याशों के दरबारों में

ये वो बे-इज़्ज़त चीज़ है जो बट जाती है इज़्ज़त-दारों में औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया

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