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Farming Technique: बाढ़ग्रस्त इलाकों में भी खेती कर सकेंगे किसान, अच्छा उत्पादन दिलायेंगी खेती की ये खास तकनीकें

Farming in Flood: इसका सबसे बड़ा फायदा है कि बाढ़ का पानी सूखने के बाद जमीन में 2 से 3 इंच नीचे तक कीचड़ जम जाती है, जिससे खेत में माइक्रोब्स के साथ मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ जाती है.

Agriculture Technology for Flooded Areas: भारत के ज्यादातर इलाकों में बाढ़ (Flood in India) को 'प्रकृति का श्राप'(Natural Disaster)  भी कहते हैं, जिसका सबसे बुरा असर ग्रामीण इलाकों पर होता है. ये समस्या मानसून के आते ही शुरु हो जाती है, नदिया और नाले पानी से उफनते रहते हैं और खड़ी फसल वाले खेतों में (Farming in Flood) लबालब पानी भर जाता है. इस प्राकृतिक आपदा में किसानों का जीवन सबसे ज्यादा प्रभावित होता है. भारत में असम (Flood in Assam), पश्चिम बंगाल (Flood in West Bengal) और बिहार (Flood in Bihar) राज्य में सबसे ज्यादा बाढ़ से जनजीवन प्रभावित होता है. 

ये तीनों ही बड़े कृषिरत राज्य हैं, जहां धान की खेती (Paddy Cultivation) बड़े पैमाने पर की जाती है, लेकिन धान का सीजन आते-आते इन राज्यों में मुसीबतें काफी बढ़ जाती हैं और किसानों के लिये खेती करना मुश्किल हो जाता है. ऐसी स्थिति में किसान खेती की तीन पारंपरिक और आधुनिक विधियों (Flood Farming Techniques) को अपनाकर बाढ़ग्रास्त इलाकों (Farming in Flood Prones Area)  में भी हरियाली फैला सकते हैं.


Farming Technique: बाढ़ग्रस्त इलाकों में भी खेती कर सकेंगे किसान, अच्छा उत्पादन दिलायेंगी खेती की ये खास तकनीकें

जीरो ट्रिलेज तकनीक   (Zero tillage technology)
जीरो टिलेज को शून्य जुताई खेती भी कहते हैं, जिसके तहत खेतों में जुताई के बिना ही बिजाई की जाती है. इस काम में सीड़ ड्रिल मशीन के की मदद से जमीन में चीरा लगाया जाता है और ड्रिल की मदद से बीच इसमें गिरते रहते हैं. 

  • भारत में जूट, गेहूं,  चना, मटर और मसूर की खेती के लिये जीरो टिलेज विधि का प्रयोग किया जाता है. 
  • खेतों में अधिक नमी और अधिक पानी होने की स्थिति में ही जीरो टिलेज की मदद से जमीन में बुवाई का काम होता है.
  • इस प्रकार फसलों की खेती करने के लिये प्रति हेक्टेयर जमीन के लिये 125-150 किलोग्राम बीज जरूरत पड़ती है.

सीधी बिजाई तकनीक (Direct Sowing Method)
सीधी बिजाई तकनीक के तहत धान जैसी फसलों की नर्सरी तैयार नहीं की जाती बल्कि खेत में मशीन के जरिये सीधी बिजाई का काम किया जाता है. ऐसा समय और संसाधनों की कमी के कारण किया जाता है. 

  • सीधे बिजाई करने से पहले फसल के बीजों का उपचार करना चाहिये, जिससे फसल का अंकुरण ठीक प्रकार हो सके और पौधों के विकास में बाधा ना पडे.
  • किसान चाहें तो बीजोपचार के लिये फंगीसाइड या कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल कर सकते हैं.
  • बता दें कि सीधी बिजाई विधि में बीजों का लाल रंग की डाई से रंगते हैं, ताकि खेत में पड़े बीज पक्षियों की पहुंच से दूर रहें और उनमें कीड़े लगने की समस्या न आये.

उटेरा तकनीक (Utera technology)
बाढग्रस्त इलाकों में उटेरा तकनीक से खेती करने पर किसानों को कई फायदे होते हैं. दरअसल खेती की इस विधि के तहत बीजों की बुवाई उस समय करते हैं, जब पहली फसल खेतों में तैयार खड़ी हो.  इसमें बीजों को कटाई से 2 दिन पहले तैयार फसल के बीच में डाल दिया जाता है, ताकि कटाई के समय ये बीज पैरों से दबकर मिट्टी में मिल सकें. ये खेती की पारंपरिक विधि है, जिसका कई इलाकों में पुराने समय से इस्तेमाल हो रहा है.

बाढग्रस्त इलाकों में खेती से जुड़े खास बातें (Important Points for Farming in Flood Prones Area)

  • भारत के कृषि वैज्ञानिकों (Agriculture Scientist) ने धान की कई ऐसी किस्मों (Paddy Varieties for Flood Prones Area) का विकास किया है, जो बारिश के दौरान जल मग्न या बाढ़ में डूबने के बाद भी कई दिनों तक खराब नहीं होती और खेतों में खड़ी रहती हैं.
  • जो किसान बाढ़ या तेज बारिश के कारण धान या दूसरी फसलों की खेती नहीं कर पाये, वे चाहें तो रबी की खेती (Rabi Season Farming) के लिये पहले से ही तैयारियां कर सकते हैं और अगले सीजन में सह-फसल खेती (Co-cropping in Rabi Season) भी कर सकते हैं.
  • इसका सबसे बड़ा फायदा यही है कि बाढ़ का पानी सूखने के बाद जमीन में 2 से 3 इंच नीचे तक कीचड़ जम जाती है, जिसके चलते खेत में माइक्रोब्स (Microbes in Agriculture land) की संख्या बढ़ती है और मिट्टी की उर्वरता (Soil Health for Agriculture) भी बढ़ जाती है.


Farming Technique: बाढ़ग्रस्त इलाकों में भी खेती कर सकेंगे किसान, अच्छा उत्पादन दिलायेंगी खेती की ये खास तकनीकें

Disclaimer: यहां मुहैया सूचना सिर्फ कुछ मीडिया रिपोर्ट्स और जानकारियों पर आधारित है. ABPLive.com किसी भी तरह की जानकारी की पुष्टि नहीं करता है. किसी भी जानकारी को अमल में लाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से सलाह लें.

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