दून बासमती, चावल की किस्म जो अपनी समृद्ध सुगंध और विशिष्ट स्वाद के लिए जानी जाती है, तेजी से लुप्त हो रही है क्योंकि जिस क्षेत्र में इसे उगाया जाता है वह तेजी से बढ़ते शहरीकरण के कारण लुप्त हो रहा है. उत्तराखंड जैव विविधता बोर्ड की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक दून बासमती चावल की खेती का रकबा बीते पांच सालों में 62 फीसदी तक घट गया है.
रिपोर्ट के मुताबिक दून बासमती चावल का उत्पादन 2018 में जहां 410 हेक्टेयर क्षेत्रफल में किया जा रहा था वहीं 2022 में यह आंकड़ा महज 157 हेक्टेयर तक सिमट गया है. यही नहीं इस खेती के सिकुड़ते क्षेत्रफल के कारण किसानों ने भी अपने हाथ पीछे खींचना शुरू कर दिया है. 2018 में 680 किसान दून बासमती चावल पैदा कर रहे थे, पांच सालों में 163 किसानों ने बासमती चावल की खेती बंद कर दी है.
अपनी विशिष्ट कृषि-जलवायु परिस्थितियों के कारण यह चावल दून घाटी के लिए स्थानिक महत्व रखता है. इसके अलावा, चावल की यह प्रजाति केवल बहते पानी में ही पैदा होती है, यह चावल की “बहुत ही नाजुक” किस्म है. यह पूरी तरह से जैविक रूप से उत्पादित अनाज है, रासायनिक उर्वरकों या कीटनाशकों का उपयोग करने पर इसकी सुगंध और स्वाद खो जाता है.
दून बासमती, चावल की एक दुर्लभ किस्म होने के अलावा, देहरादून की समृद्ध विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. दून बासमती को दून घाटी में चावल उत्पादकों द्वारा विकसित किया गया था. दून बासमती चावल एक समय में बड़े क्षेत्र में उगाया जाता था, जो अब एक विशाल शहरी क्षेत्र के रूप में विकसित हो चुका है. अब दून बासमती चावल की खेती उंगलियों पर गिने जा सकने वाले कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित है.
लुप्त हो रही किस्म
तेजी से बढ़ते शहरीकरण के कारण घटती कृषि भूमि जैसे कई कारणों से चावल की विशिष्ट किस्म तेजी से लुप्त हो रही है. विपणन सुविधाओं की कमी और सब्सिडी न मिलने जैसे कारणों ने दून बासमती चावल को विलुप्त होने के कगार पर पहुंचा दिया हैं. बासमती चावल की कई अन्य किस्में दून बासमती के नाम पर बेची जा रही हैं. दून बासमती के संरक्षण और प्रचार-प्रसार के लिए सरकार को महत्वपूर्ण कदम उठाने की जरूरत है.
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