Zero Budget Farming Technique: बिना कैमिकल खेती से मालामाल होंगे किसान, जानें क्या है 'प्राकृतिक खेती' का नुस्खा
Zero Budget Natural Farming: प्राकृतिक खेती को जीरो बजट खेती भी कहते हैं, क्योंकि इसमें उर्वरक और कीटनाशक खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती. इससे किसानों का खर्च कम होता है.
Zero Budget Natural Farming: खेती-किसानी में लगातार बढ़ रहे रसायनों के इस्तेमाल से हमारी धरती जहरीली होती जा रही है. किसान दोगुना कमाई के लालच में रसायन वाले उर्वरकों का इस्तेमाल कर रहे हैं. इससे मिट्टी की क्वालिटी तो खराब हो ही रही है, साथ ही ये ग्लोबल वार्मिंग की समस्या को भी बढ़ा रहा है. इस तरह की खेती करने से फसलों का भी काफी नुकसान होता है और मानव शरीर पर भी इसका बुरा असर देखने को मिल रहा है. हालांकि कई जागरुक किसान इसके समाधान के रूप में जैविक खेती के अपना रहे हैं, लेकिन विशेषज्ञों की मानें तो जैविक खेती भी पूरी तरह रसायन मुक्त नहीं है. इस गंभीर समस्या के बीच 'प्राकृतिक खेती' को एक बेहतर विकल्प के रूप में देखा जा रहा है.
क्या है प्राकृतिक खेती
प्राकृतिक खेती को जीरो बजट खेती भी कहते हैं, जिससे किसानों का खर्च कम होता है. क्योंकि इसमें खेती का खर्च ना के बराबर होता है. प्राकृतिक खेती को गाय आधारित खेती भी कहते हैं, क्योंकि इस विधि में इस्तेमाल होने वाला मुख्य साधन है गाय का गोबर और गौ मूत्र. इसकी मदद से फसल के लिये जीवामृत और घनामृत बनाया जाता है. जीमामृत से मिट्टी की सेहत और फसल की उत्पादकता बढ़ जाती है. बता दें कि गाय के गौबर और मूत्र में 16 तरह के पोषक तत्व होते हैं, जो मिट्टी की क्वालिटी और फसल की उत्पादकता बढ़ाने में मददगार साबित होते हैं.
जीरो बजट खेती
- प्राकृतिक खेती को 'जीरो बजट खेती' इसलिये भी कहते हैं क्योंकि ज्यादातर किसान गायपालन भी करते हैं, ऐसे में उनके गोबर-मूत्र का इस्तेमाल जीवामृत बनाने के लिये किया जाता है.
- जीवामृत से फसल पर महिने में दो बार का छिड़काव किया जाता है.
- एक अकेली गाय के गोबर से किसान करीब 30 एकड़ जमीन पर खेती करने के लिये जीवामृत बना सकते हैं
- केंचुआ खाद बनाने में देसी गाय के गोबर और मूत्र की गंध से केंचुओं की संख्या बढ़ने में मदद मिलती है.
- प्राकृतिक विधि से खेती करने पर खेत में गहरी जुताई की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि मिट्टी में कचरे और कीड़ों की संभावना कम हो जाती है.
- इस विधि का प्रयोग करने सिंचाई के लिये पानी की खपत कम हो जाती है, सिर्फ 10% पानी की ही जरूरत होती है.
- ज्यादा सिंचाई हानिकारक हो सकती है, क्योंकि इससे जड़ों की लंबाई तो बढ़ती है, लेकिन तनों की मोटाई और पौधों की लंबाई में कमी आ जाती है.
- प्राकृतिक खेती में देसी बीजों और खाद को मेन साधनों के रूप में देखा जाता है. जो फसल की उत्पादकता को बढ़ाते हैं.
- अलग से उर्वरक और कीटनाशक खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती, जिससे किसानों का खर्च कम होता है.
सरकार करेगी मदद
वैसे तो जीरो बजट प्राकृतिक खेती खर्च की संभावना बेहद कम है. लेकिन पर्यावरण को बेहतर बनाने और ग्लोबल वार्मिंग को कम करने में इस तकनीक का बड़ा योगदान है. यही कारण है कि इस विधि से खेती करने वाले किसानों को प्रोत्साहित करने के लिये सरकार आर्थिक अनुदान दे रही है. इसके लिये 'परंपरागत कृषि विकास योजना' के अंतर्गत ही 'भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्यति' नाम से एक उपयोजना तैयार की है. जिसके तहत किसानों को तीन साल के लिए 12,200 रूपये प्रति हैक्टेयर के हिसाब से आर्थिक सहायता दी जा रही है. देश के कई सफल किसान कैमिकलयुक्त खेती छोड़कर प्राकृतिक खेती को अपना रहे हैं.
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