(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
Indigo Farming: ब्रिटिश काल में किसानों से जबरन करवाई गई थी ये खेती, आज किसान इससे मोटा पैसा कमाते हैं...
Indigo Cultivation: अंग्रेजी हुकूमत के जाते ही भारत में नील की खेती भी बंद हो गई. उस दौरान नील ने कई किसानों को गहरे जख्म दिए, लेकिन आज इसी नील की खेती मुनाफे का सौदा साबित हो रही है. यहां जानिए कैसे
Neel Ki Kheti: आसमान और समंदर दोनों का ही रंग नीला है. यह आखों को अपार शांति प्रदान करता है. बल और वीर भाव का प्रतीक नीला रंग काफी डिमांड में है. खासतौर पर अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्राकृतिक नीले रंग की डिमांड बढ़ रही है. देश-विदेश में नीले रंग की डाई का इस्तेमाल किया जाता है. अब भारतीय किसानों की रूचि भी प्राकृतिक नीले रंग के सोर्स नील की खेती में बढ़ती जा रही है. आपको बता दें कि यह नीला रंग 'नील के पौधे' से प्राप्त किया जाता है.
इसकी हार्वेस्टिंग लेकर रासायनिक पदार्थों के इस्तेमाल से रंजक, डाई या नील बनाई जाती है. सुनने में तो प्राकृतिक नीले रंग की खेती बेहद साधारण लगती है, लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि भारत में नील की खेती का अपना ही एक इतिहास रहा है.
ब्रिटिश काल के दमन के साथ बंद हुई नील की खेती
भारत में नील की खेती काफी सालों पहले ही शुरू हो चुकी थी. एक प्रसिद्ध यूरोपीय विद्वान ई.डब्लू.एल.टावर नील की खेती को लेकर कुछ लाइनें कहीं थीं, जो ब्रिटिश काल में किसानों पर हुए अत्याचारों का चंद शब्दों में उल्लेख कर देती हैं.
उन्होंने लिखा है कि 'मानवता के खून से सनी बिना नील ब्रिटेन नहीं पहुंचता'. जिस नील का इस्तेमाल कपड़ों को चमकाने के लिए किया जाता है. सफेद को बेदाग बनाने के लिए किया जाता है. कभी वह भारतीय किसानों पर हुए जुल्म और अत्याचार की वजह था.
दरअसल नील की खेती के साथ एक समस्या थी कि इसकी लगातार खेती करने पर जमीन बंजर हो जाती थी. अंग्रेज भी इसी वजह से अपने देश को छोड़कर भारत में किसानों से जबरन नील की खेती करवाते थे,क्योंकि यहां की जमीन काफी उपजाऊ रही है.
इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें तो पता चलता है कि नील की खेती करने वाले किसानों को ब्रिटिश सरकार लोन देती थी, जिसके लालच में किसान नील की खेती करना चालू कर देते थे, लेकिन उसका ब्याज इतना ज्यादा होता था कि किसान कर्ज के जाल में फस जाते थे और नील की खेती का सिलसिला भी मजबूरी में चलता रहता था.
ऊपर से अंग्रेज और जमीदार भी भारतीय किसानों से कौड़ियों के भाव नील खरीदते थे, जिसके बदले में किसानों को बाजार भाव का सिर्फ 2.5% हिस्सा ही मिलता था. ऐसा कहा जाता है कि नील की खेती 1777 में बंगाल में शुरू हुई.
यह उस समय की एक अच्छी नकदी फसल थी, जिसका विस्तार भारत तक हुआ, लेकिन जब नील की खेती की आड़ में किसानों पर अत्याचार होने लगा तो 1859-60 के दशक में खुद बंगाल के किसान इसके खिलाफ आवाज उठाने के लिए आगे आए.
धीरे-धीरे विरोध की ये आंधी आंदोलन में तब्दील हो गई और साल 1866-68 के बीच बिहार के चंपारण, दरभंगा आदि जिलों में नील उगाने वाले किसान भी विरोध करने खुले तौर पर अंग्रेजी हुकूमत के सामने उतर आए.
आज मुनाफे का सौदा साबित हो रही नील की खेती
ऐसा कहा जाता है कि नील की खेती करने पर अधिक मात्रा में पानी की सिंचाई की आवश्यकता होती है. यही वजह है कि पुराने समय में लगातार नील की खेती करने पर जमीन बंजर हो जाया करती थी, लेकिन आज के समय में आधुनिक तकनीकों के आ जाने से यह खेती मुनाफे का सौदा साबित हो रही है.
किसान खुद आगे आकर प्राकृतिक नील को गा रहे हैं और इसकी प्रोसेसिंग करके बाजारों में बेच रहे हैं. एक्सपर्ट बताते हैं कि नील की खेती के लिए मानसून का मौसम यानी खरीफ सीजन सबसे अच्छा होता है.
बारिश के पानी में पौधों का अच्छा विकास होता है. साथ ही, थोड़े गरम और नरम जलवायु में नील का काफी अच्छा प्रोडक्शन मिल सकता है, हालांकि ज्यादा गर्म और ज्यादा ठंडे तापमान में यह फसल खराब भी हो जाती है.
ऐसे करें नील की खेती
जिस तरह भारत में दूसरी नकदी फसलों को उगाने के लिए खेत तैयार किया जाता है. उसी तरह नील की खेती करने से पहले मिट्टी की जांच का होना अनिवार्य है. मिट्टी की जांच रिपोर्ट के आधार पर खेत में खाद, उर्वरक, सिंचाई आदि की व्यवस्था करें.
नील की खेती के लिए सबसे पहले खेत की गहरी जुताई की जाती है. उसमें गोबर की खाद डालकर एक बार फिर रोटावेटर से जुताई की जाती है. फिर खेत में पानी का पलेवा लगाकर आखिर में पाटा लगा दिया जाता है. नील के पौधों की रोपाई ड्रिल विधि से करना फायदेमंद रहता है.
इसके पौधों को एक से डेढ़ फुट की दूरी पर रोका जाता है. अप्रैल के महीने में नील के पौधों की रोपाई की जाती है. बारिश के मौसम में इसके पौधे अच्छी तरह विकसित हो जाते हैं. करीब 2 से 3 सिंचाई के अंदर फसल अच्छी तरह तैयार हो जाती है और 3 से 4 महीने में नील की कटाई भी कर सकते हैं.
नील की प्रोसेसिंग
आज नील की खेती बिहार, बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तराखंड के कई इलाकों में की जा रही है. इसके पौधे 2 से 3 मीटर तक पहुंचे होते हैं, जिनसे बैंगनी और गुलाबी रंग के फूलों का प्रोडक्शन लिया जाता है.
इन फूलों से बाद में नेचुरल नीला रंग निकाला जाता है, जिससे डाई और कपड़े रंगने की नील तैयार की जाती है. नील के फूल-पत्तियों से नीला रंग बनाने की प्रोसेस अपने आप में खास है. कई लोग पारंपरिक विधि से नीला रंग निकालते हैं तो कई लोगों ने आज की आधुनिक मशीनों के जरिए नील की प्रोसेसिंग करना शुरू कर दिया है.
एक अनुमान के मुताबिक, 1 एकड़ खेत से नील की 7 क्विंटल सूखी पत्तियों का प्रोडक्शन मिलता है, जो बाजार में 50 से 60 किलो ग्राम के भाव बिकती हैं. 1 एकड़ में नीली खेती करके किसान 35,000 से 40,000 तक मुनाफा ले सकते हैं.
Disclaimer: खबर में दी गई कुछ जानकारी मीडिया रिपोर्ट्स पर आधारित है. किसान भाई, किसी भी सुझाव को अमल में लाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से सलाह जरूर लें.
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