Early Sowing of Wheat in East India: भारत की 73 फीसदी जमीन पर गेंहू की खेती (Wheat Cultivation) एक मुख्य खाद्यान्न फसल के तौर पर होती है. देश में इस नकदी फसल का उत्पादन और खपत दोनों ही काफी ज्यादा है. यहां उगाये गये गेंहू की पूरी दुनिया में डिमांड ( Worldwide Demand of Wheat) रहती है, इसलिये देश के साथ-साथ दुनिया की खाद्य आपूर्ति करना अपने आप में बड़ा चुनौतीपूर्ण काम हो जाता है. एक ताजा रिसर्च में पता चला है कि भारत को अंतरराष्ट्रीय बाजार के साथ घरेलू आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये गेंहू की फसल का रकबा बढ़ाना (Need to Improve Wheat Production)  होगा. बता दें कि वर्तमान में करीब 11 करोड़ टन गेहूं का उत्पादन (Wheat Production) हो रहा है, जिसे बढ़ाकर 2050 तक 14 करोड़ टन तक ले जाना होगा. इस काम में कई संसाधनों की आवश्यकता पडेगी.


पूर्वी भारत में जल्दी हो गेंहू की बुवाई
इस रिसर्च में बताया गया है कि पूर्वी भारत में गेहूं की अगेती खेती या समय से पहले बुवाई करके संभावित उत्पादन में 69 फीसदी तक पैदावार बढ़ा सकते हैं. यह तरीका धरती पर बढ़ती गर्मी या बढ़ते तापमान के बीच खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने में काफी मददगार साबित हो सकता है. इस रिसर्च से जुड़े वैज्ञानिक प्रोफेसर एंड्रयू मैकडॉनल्ड बताते हैं कि काफी सालों तक उनकी रिसर्च टीम ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सहयोगियों के साथ डेटा सेट का निर्माण किया है, जिससे कि संबंधित आंकड़े इकट्टा करके चुनौतियों को समझने में मदद मिल सके.


मिट्टी और जलवायु 
अपनी रिसर्च में प्रोफेसर एंड्रयू मैकडॉनल्ड ने बताया कि इस काम का निर्धारण कृषि प्रबंधन के तरीके और छोटी-छोटी प्रणालियां काफी मायने रखती हैं. अपनी रिसर्च में शोधकर्ताओं ने पाया कि पूर्वी भारत के किसान गर्मी का प्रभाव रोकने के लिये पहली फसल के परिपक्व होने के साथ ही गेहूं की बिजाई करके उपज को काफी हद तक बढ़ा सकते हैं. इस बीच किसानों की मेहनत से ही गेहूं की पैदावार, मात्रा, क्वालिटी और कृषि राजस्व का फायदा निर्धारित किया जा सकता है.


चावल की खेती पर प्रभाव
इस शोध में सामने आया है कि अकसर किसान ऐसा सोचते हैं कि गेहूं की अगेती या समय से थोड़ा पहले बुवाई करने पर चावल की पैदावार पर कोई बुरा असर पडेगा, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है. फसल चक्र के अनुसार समझे तो धान और गेहूं दोनों वैकल्पिक फसलों होती है. जहां धान की खेती नमी वाले इलाकों में की जाती है, तो गेहूं की फसल को शुष्क मौसम में उगाया जाता है. इस रिसर्च में गेहूं और धान की खेती में संपट बिठाने के लिये धान की बुवाई का समय और कुछ उन्नत किस्मों के सुझाव भी पेश किये गये, जिससे कि गेहूं की अगेती बुवाई से पहले प्रबंधन किया जा सके. प्रोफेसर मैकडॉनल्ड कहते हैं कि किसानों को सिर्फ फसल प्रबंधन नहीं करना होता, बल्कि बारी-बारी से खेती में लिये गये फैसलों का भी प्रबंधन करना होता है.


गंगा के पूर्वी मैदानों में होगा फायदा
प्रोफेसर मैकडॉनल्ड बताते हैं कि गेहूं की खेती के रुझान अंतरराष्ट्रीय समूहों और सरकारी एजेंसियों के सहयोग और सालों की मेहनत के बाद सामने आये हैं. इस रिसर्च में वैज्ञानिकों ने पूर्वी गंगा के मैदानों की पहचान गेहूं का उत्पादन बढ़ाने वाले इलाके के रूप में की है. अपनी रिसर्च में यह अंकित किया है कि पूर्वी गंगा के मैदानी इलाकों में स्थानीय आधार पर गरीबी का स्तर ज्यादा है. यहां खेती-किसानी से जुड़ी कई प्रथायें, संसाधनों तक पहुंच और छोटे भूमिधारकों का वर्चस्व भी मौजूद है.


जलवायु परिवर्तन में गेहूं का उत्पादन
रिसर्च में बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के कारण गेहूं की बढ़ती मांग को सीमित उत्पादन (Wheat Production) के जरिये पूरा करना ज्यादा कठिन और अप्रत्याशित हो जायेगा. मार्च-अप्रैल में की हीट वेव और यूक्रेन में युद्ध (Russia-Ukraine War) के दौरान भोजन की कमी जैसी परिस्थितियों ने भारत सरकार को गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध (Wheat Export) लगाने पर मजबूर किया. इससे गेहूं और इसकी पैदावार बढ़ाने की आवश्यकता के साथ-साथ गेहूं की खेती (Wheat Cultivation)के लिये  टिकाऊ विधियां अपनाने पर जोर देना चाहिये. रिसर्च में बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन की समस्यायें काल्पनिक नहीं हैं. ये धीरे-धीरे चरम पर पहुंच जायेंगी. ऐसी स्थिति में गेहूं की अगेती बुवाई (Early Sowing of Wheat) जैसे उपायों को अपनाकर खाद्य सुरक्षा (Food Security) से जुड़े बुरे प्रभावों से निपटने में मदद मिलेगी. 


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