Rabi Season Special: भारत में खरीफ फसलों की कटाई (Kharif Crop Harvesting) का काम तेजी से चल रहा है और जल्द ही किसान रबी सीजन (Rabi Season 2022) की बुवाई में जुट जाएंगे. इस बार खरीफ सीजन से सबक लेकर ही खेती करने की सलाह दी जा रही है, ताकि अनिश्चितताओं के कारण नुकसान को कम किया सके. इस बीच कुछ बातों को ध्यान में रखकर, खेती की उन्नत तकनीकें (New farming Techniques) और वैज्ञानिक उपायों के जरिये ही बुवाई का काम करना होगा.


बात करें प्रमुख नकदी फसलों की तो पिछले कुछ सालों में भारत भी गेहूं का बड़ा उत्पादक (Wheat Production) देश बनकर उभरा है. देश के साथ-साथ दुनियाभर में गेहूं की खाद्य आपूर्ति करने में भारत सबसे आगे रहा है. ऐसे में किसानों को भी कम समय और कम संसाधनों में गेहूं की खेती (Wheat Cultivation) करके अच्छी पैदावार लेने के लिए इन उपायों को अपनाना होगा.


इन इलाकों में होगी बंपर पैदावार


भारत में गंगा और सिंधु का मैदानी इलाका खेती-किसानी से लेकर पशुपालन तक के मशहूर है. इन इलाकों में ना सिर्फ बागवानी फसलों का चलन है, बल्कि गेहूं की रिकॉर्ड पैदावार भी इन्हीं इलाकों से मिलती है. यह पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान के कुछ इलाकों से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड के तराई क्षेत्र, जम्मू कश्मीर के जम्मू, कठुआ जिले, हिमाचल प्रदेश का ऊना जिला और पोंटा घाटी तक फैला हुआ है.


इन मैदानी इलाकों में करीब 12.33 मिलियन हैक्टेयर जमीन पर गेहूं की बिजाई की जाती है, जिससे 57.83 मिलियन टन तक गेहूं की पैदावरा मिलती है. सबसे अच्छी बात यह है कि यहां गेहूं की पैदावार के लिए रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं होती, बल्कि प्रकृति से मिले वरदान के साथ जैविक खेती करने पर ही बेहतर क्वालिटी वाला उत्पादन लिया जा सकता है. इसके लिए मिट्टी और जलवायु के अुसार उन्नत किस्म के बीजों का चयन करना भी काफी अहम है.


रिपोर्ट्स की मानें तो इन इलाकों में एचडी 3086 और एचडी 2967 बीजों से बड़े पैमाने पर खेती की जाती है. वहीं अधिक उत्पादन के लिये डीबीडब्ल्यू 187, डीबीडब्ल्यू 222 और एचडी 3226 जैसी रोगरोधी किस्मों की बुवाई का भी काफी चलन है. 


इन बातों का रखें खास ध्यान


कृषि विशेषज्ञों की मानें तो गेहूं की बुवाई के लिए खेतों को बेहतर ढंग से तैयार करना भी बेहद जरूरी है. ऐसे में बुवाई से करीब 15 दिन पहले ही खेत की गहरी जुताई लगाकर 4-6 टन/एकड़ या 10-15 टन/हैक्टेयर की दर से गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए. 


मिट्टी की उपजाऊ शक्ति बढ़ाने के साथ-साथ मिट्टी में खरपतवार नाशी दवा को भी मिलाएं, जिससे बाद में खरपतवारों का प्रकोप ही ना रहे. यह दवाओं के छिड़काव की लागत को कम करने में भी काफी मददगार साबित होगा.  


गेहूं की अच्छी पैदावार के लिए मिट्टी की जांच के आधार पर रासायनिक और जैव उर्वरकों का इस्तेमाल भी किया जा सकता है. जैविक खाद में मिलाकर इनका इस्तेमाल करने से बुरा असर नहीं पड़ता और फसल के साथ मिट्टी को भी पोषण मिल जाता है.


गंगा और सिंधु के मैदानी इलाकों में बुवाई से लेकर फसल प्रबंधन और कटाई का समय के अनुसार ही कार्य करने चाहिए. इससे भी जोखिम कम करने में मदद मिलती है. विशेषज्ञों की मानें तो 25 अक्टूबर से लेकर 31 अक्टूबर तक गेहूं की बिजाई करके काफी अच्छे परिणाम हासिल किए जा सकते हैं.


अक्सर गेहूं की फसल की लंबाई बढ़ने पर फसल के गिरने का खतरा बना रहता है. ऐसे में गेहूं की वनस्पतिक वृद्धि रोकने की सलाह दी जाती है. इसके लिये बुवाई के 40 व 75 दिन बाद निराई-गुड़ाई के समय ही दो बार वृद्धि अवरोधक क्लोरमिक्वाट (0.2%), प्रोपीकोनाजॉल (0.1%) का छिड़काव कर सकते है. इससे बालियों का फुटाव बेहतर होता है और फसल के गिरने की नौबत ही नहीं आती.  


उन्नत तरीकों से बिजाई


धान के बाद गेहूं की फसल से बेहतर उत्पादन (Wheat Production) के लिए कड़ी मेहनत नहीं, बल्कि स्मार्ट वर्क की जरूरत है. खासकर बिजाई के समय पशुओं और मजदूरों की मेहनत के बजाय मशीनों का इस्तेमाल करना चाहिए.


इस काम में जीरो टिलेज (Zero Tillage) सीड ड्रिल मशीन (Seed Drill Machine) और टर्बो हैप्पी सीडर (Turbo Happy Seeder) मशीन मददगार साबित होती है. इनसे बेहद कम समय में बिजाई का काम होता जाता है, जिससे बीजों का समय पर अंकुरण होता है, साथ ही खेतों को भी अलग से जुताई की जरूरत नहीं होती.


विशेषज्ञों की मानें तो धान की देरी से कटाई या जल भराव वाले इलाकों में मशीनों से गेहूं की बिजाई (Wheat Farming) का काम करना फायदेमंद रहता है. पुरानी विधियों के मुकाबले ये तरीका खेती की लागत को कम करके समय पर उत्पादन दिलाता है.


इतना ही नहीं, धान के फसल अवशेष (Paddy Stubble) या पुआल खेतों में ही पड़े रहने से मिट्टी की नमी भी कायम रहती है. इससे सिंचाई (Irrigation in Wheat) की लागत में भी काफी बचत होती है. इस तरह मिट्टी का तापमान भी नियंत्रित रहता है, जिससे खरपतवारों (Weed Management) की समस्या ही नहीं रहती और दवाओं के छिड़काव में लगने वाली लागत भी बच जाती है.  


Disclaimer: यहां मुहैया सूचना सिर्फ कुछ मीडिया रिपोर्ट्स और जानकारियों पर आधारित है. किसी भी जानकारी को अमल में लाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से सलाह लें.


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