Chipko Movement Needs Reborn Ror Rorest Protection: पर्यावरण के गहन संकट जूझती दुनिया को आज फिर आंदोलनों की जरूरत है, जिन्होंने कभी कटते पेड़ों को बचाने के लिये इंसानों में जोश भर दिया था. आज विश्व पर्यावरण दिवस पर घटती हरियाली और गायब होते जंगलों के बीच एक बार भी चिपको आंदोलन जैसे कार्यक्रमों की आवश्यकता पड़ने लगती हैं. 50 साल पहले मुसीबत के दौर में जल, जंगल, जमीन से जोड़ने के लिये इस कार्यक्रम की शुरूआत हुई. 1970 के दशक में जब जंगलों की कटाई हो रही ती, ठीक 3 साल बाद 1973 में क्रांति के रूप में चिपको आंदोलन शुरू हुआ, जिसके तहत कटते पेड़ों को बचाने के लिये महिलायें और गांव के दूसरे लोग पेड़ों को चारों ओर से घेरकर उससे चिपक जाते थे. पड़ों और वन वनस्पति को बचाने के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण में भी इस आंदोलन ने देश-विदेश के लोगों को जागरुक किया.
चिपको आंदोलन की अहम बातें:-
- साल 1974 में जब उत्तराखंड के चमोली स्थित रैणी गांव में जब पेड़ों को काटने के लिये ठेकेदार और मजदूर पहुंचे, तब गांव की एक महिला गौरा देवी के नेतृत्व में 27 महिलायें पेड़ों को कटने से बचाने के लिये पेड़ों से लिपट गई और मजदूरों को चेताया कि पेड़ काटने से पहले हमें काटना पडेगा. महिलाओं में बढ़ते आक्रोश को देखकर मजदूरों वापस हो गये और यहीं ये चिपको आंदोलन नामक क्रांति की शुरुआत हुई.
- उत्तराखंड के पहाड़ों से शुरु हुआ चिपको आंदोलन धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गया. इसी आंदोलन से पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा को ख्याति मिली, इन्होंने लोगों को बिना हिंसा वाले इस आंदोलन से जुड़ने और जंगलों को कटने से बचाने के लिये प्रोत्साहित किया. बाद में सुंदरलाल बहुगुमा 'पेड़ों के मित्र' नाम से मशहूर हुये और पर्यावरण की रक्षा के लिये इन्हें देश-विदेश में कई पुरस्कार भी मिले.
- उस समय चिपको आंदोलन आग की तरह फैलने लगा. उस समय गांव के लोग रात-रातभर जागकर अपने जंगलों को बचाने के लिये पेड़ों से चिपकर रहने लगे. इससे देश को पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरुक रहने की प्रेरणा मिली. सरकार को भी इस आंदोलन की बढ़ती क्रांति के बीच वन संरक्षण अधिनियम का कानून बनाना पड़ा.
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