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Agri Innovation: वो गांव....जहां आज तक नहीं जली एक भी पराली, फसल अवशेषों से इस तरह कमाते हैं दोगुना आमदनी

Stubble Management: अक्टूबर-नवंबर में जली पराली ने लोगों का सांस लेना तक मुश्किल कर दिया, लेकिन एक गांव ऐसा भी था, जहां एक भी पराली नहीं जली. यहां पराली से वो काम हुआ कि कई समस्या अपने आप सुलझ गईं.

Crop Residue Management: खरीफ फसलों की कटाई के बाद देश में पराली जलाने की समस्या एक गंभीर मुद्दा बन जाती है. दिल्ली, हरियाणा, पंजाब से लेकर यूपी, बिहार और मध्य प्रदेश के कई गांव में किसान धान काटने के बाद बची हुई ठूंठ को आग की भेंट चढ़ा देते हैं, जिससे बड़े लेवल पर प्रदूषण (Pollution) फैलता है. ये धुआं उड़कर शहरों में पहुंचता और लोगों की सेहत पर अपना असर दिखाता है. वहीं खेत में अवशेष जलने से खेत की उपजाऊ शक्ति कम हो जाती है. इन सभी बातों को लेकर किसानों में जागरुकता भी फैलाई जाती है. इसके बावजूद कई किसान मजबूरी में पराली जलाते हैं.

आज हम आपको एक ऐसे गांव के बारे में बताएंगे, जहां पराली जलाने का एक भी सामने नहीं आया. इस गांव के किसान पहले से ही जागरूक हैं और अपने खेतों से निकले फसल अवशेषों को जलाने के बजाए पशुओं के चारे और मल्चिंग खेती में इस्तेमाल करते हैं. इसकी मदद से गांव में ना तो पशु चारे का संकट पैदा होता है और ना ही प्रदूषण, बल्कि पशुओं के दूध के साथ-साथ फसल की उत्पादकता भी बढ़ जाती है और किसानों को अच्छी आमदनी लेने में काफी मदद मिलती है. 

तारीफ के काबिल हैं किसान
किसान तक की रिपोर्ट के मुताबिक, झारखंड को भी धान का प्रमुख उत्पादक राज्य कहा जाता है, यहां के किसान भी खरीफ सीजन में धान की खेती करते हैं, लेकिन इस राज्य में पराली जलाने के बहुत ही कम मामले आए हैं.

कई गांव तो ऐसे भी है, जहां कई सालों से पराली जलाने की कोई घटना नहीं है.इसे किसानों की समझदारी कह लीजिए या फिर जागरुकता. रिपोर्ट्स की मानें झारखंड में ज्यादातर किसानों ने धान की कटाई-छंटाई के लिए थ्रेसिंग मशीनों का इस्तेमाल किया है.

ये प्रोसेस के बाद पराली को खेतों में छोड़ दिया जाता है, ताकि ये मिट्टी में गलकर खाद बन जाए या सब्जी की खेती के लिए मल्चिंग के तौर पर पराली का इस्तेमाल हो सकें, हालांकि कई लोग इस पराली को घर भी ले जाते हैं. 

पराली से बन रहा पशु चारा
सिर्फ झारखंड के गांव ही नहीं, देश में कई गांव ऐसे हैं, जिन्होंने जीरो वेस्ट पॉलिसी अपनाई है यानी कि फसल अवशेषों को जलाया नहीं जाता, बल्कि पशुओं के चारे या वापस खेती में ही इस्तेमाल कर लिया जाता है. कई गांव में इस पराली से पशुओं के लिए सूखा चारा बनाया जाता है, जिसे भुसी या कुटी कहते हैं.

इस चारे में पशुओं को तरह-तरह सप्लीमेंट, न्यूट्रिशन और देसी आहार दिए जाते हैं, ताकि पशु भी तंदुरुस्त रहें और अच्छा दूध मिल सके. देश में चारे की महंगाई के पीछे सबसे बड़ा कारण यही है कि जो पराली पहले पशुओं के चारे के तौर पर काम आती थी, आज उस पराली में आग लगा दी जाती है.

कई जगहों पर पशुओं को पालन के बजाए मशीनों का भी इस्तेमाल बढ़ रहा है, जो चारे की मंहगाई के साथ-साथ दूध के दाम बढ़ने का भी कारण है. एक्सपर्ट्स बताते हैं कि कई गांव में लंपी के बढ़ते खतरे के बीच पशुपालन भी कम हुआ है. अब चारा निपटाने के लिए पशु ही नहीं है तो पराली भी किस काम की. यही सोच कर किसान पराली को जला देते हैं, जबकि वो चाहें तो दूसरे राज्यों में या चारा बनाने वाली यूनिट्स को भी पराली बेच सकते हैं.

पराली बढ़ाएगी आमदनी
झारखंड के किसान रामहरी उरांव किसान तक की रिपोर्ट में बताते हैं कि पहले किसान पारंपरिक तरीकों से खेती करते थे. फसल कटाई के बाद जो अवशेष बचते थे, उसे पशुओं को ही खिलाया जाता था, नहीं तो खेत के किसी कोने में इन अवशेषों को सड़ाकर खाद बना दी जाती थी.

वो बताते हैं कि उनके गांव में आज भी पराली से पशुओं के लिए कुटी बनाई जाती है, जिसमें चोकर आदि मिलाकर पशुओं को खिलाते हैं. कई किसान फसल अवशेषों को मल्चिंग के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. ये प्लास्टिक मल्चिंग का अच्छा विकल्प है.

ये पूरी तरह इकोफ्रैंडली और ऑर्गेनिक है, जिसे खेत में फैलाने से मिट्टी को कई फायदे मिलते हैं. यही वजह है कि कई किसान पराली को जलाने के बजाए फसल की उत्पादकता बढ़ाने के लिए खेती में इस्तेमाल करते हैं.

Disclaimer: खबर में दी गई कुछ जानकारी मीडिया रिपोर्ट्स पर आधारित है. किसान भाई, किसी भी सुझाव को अमल में लाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से सलाह जरूर लें.

यह भी पढ़ें:- आने वाले 15 दिन में कौन-कौन सी सब्जियां लगाने का टाइम आ रहा है? आप घर पर ही लगा लें, बचेगा खर्चा

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