सकल बन फूल रही सरसों...जब अमीर खुसरो ने पहना बसंती चोला, जानें मुस्लिमों की बसंत पंचमी मनाने की 800 साल पुरानी परंपरा
Basant Panchami 2023: बसंत पंचमी का त्योहार मुस्लिम भी मनाते हैं. पिछले 800 साल से हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में बसंत पचंमी धूमधाम से मनाई जाती है. इसकी शुरुआत अमीर खुसरो ने की थी.
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Basant Panchami 2023, Hazrat Nizamuddin Aulia Dargah: बसंत पंचमी का पर्व हिंदुओं का प्रमुख त्योहार है. इसे श्री पंचमी, सरस्वती पूजा और सरस्वती जयंती जैसे नामों से भी जाना जाता है. इस साल बसंत पंचमी 26 जनवरी 2023 को है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि बसंत के दिन केवल हिंदू धर्म से जुड़े लोग ही नहीं बल्कि मुस्लिमों द्वारा भी इसे धूमधाम से मनाया जाता है. मुस्लिमों द्वारा बसंत पंचमी मनाए जाने का इतिहास 800 साल पुराना है. कहा जाता है कि इसकी शुरुआत अमीर खुसरो ने की थी.
बसंत पंचमी का महत्व
बसंत पंचमी की शुरुआत माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि से होती है. इस दिन को देवी सरस्वती के प्रकटोत्वस के रूप में भी मनाया जाता है और देवी सरस्वती की पूजा की जाती है, जोकि ज्ञान, विद्या, कला और वाणी की देवी हैं. वास्तव में मां सरस्वती वैदिक शिक्षा प्रदान करने वाली देवी हैं. इसलिए कोई भी देवी सरस्वती का उपासक हो सकता है. यही कारण है कि सरस्वती पूजा का उत्सव केवल भारत में ही नहीं बल्कि पश्चिमोत्तर बांग्लादेश, नेपाल और अन्य कई देशों में मनाया जाता है.
मुस्लिम भी मनाते हैं बसंत पंचमी
मुस्लिम भी बसंत पंचमी का त्योहार बड़े ही धूमधाम के साथ मनाते हैं. बसंत पंचमी के दिन देश की राजधानी दिल्ली में स्थित निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में बसंत पचंमी मनाई जाती है. इसके अलावा देश के अन्य सूफी संतों की दरगाहों में भी इसकी रौनक देखने को मिलती है. इस साल भी 26 जनवरी 2023 को सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल के साथ दरगाह में बसंत पंचमी मनाई जाएगी.
800 साल पुरानी है परंपरा
हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में बसंत पंचमी मनाए जाने की परंपरा 800 साल पुरानी है. कहा जाता है कि हजरत निजामुद्दीन को कोई संतान नहीं थी. उन्हें अपने भांजे ख्याजा तकीउद्दीन नूंह से खूब लगाव था. लेकिन दुर्भाग्यवश बीमारी के कारण तकीउद्दीन की मृत्यु हो गई. इस घटना से हजरत निजामुद्दीन को बहुत गहरा सदमा लगा और वे दुखी रहे लगे.
ऐसे हुई परंपरा की शुरुआत
हजरत निजामुद्दीन के कई अनुयायियों में अमीर खुसरो भी एक थे. हजरत अमीर खुसरो ने गुरू-शिष्य (मुर्शिद-मुरीद) परंपरा को नया आयाम पेश किया. भांजे के मृत्यु से हजरत निजामुद्दीन दुखी रहने लगे थे. उनके चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए खुसरो इसका समाधान ढूंढने लगे. एक दिन गांव की महिलाएं पीली साड़ी पहने, सरसों के फूल लिए और गीत गाते हुए जा रही थी. महिलाओं की खुशी देख खुसरो ने उनसे इसका कारण पूछा. महिलाओं ने कहा वे अपने भगवान खुश करने के लिए पीले फूल चढ़ाने के मंदिर जा रही हैं.
खुसरो ने उनसे पूछा, क्या इससे भगवान खुश हो जाएंगे? महिलाओं ने ‘हां’ में उत्तर दिया और इसी के साथ खुसरों को हजरत निजामुद्दीन के चेहरे पर मुस्कान लाने की तरकीब मिल गई. वे भी पीली साड़ी पहनकर, हाथों में पीले फूल लेकर "सकल बन फूल रही सरसों' गीत गाते हुए हजरत निजामुद्दीन के पास पहुंच गए.
अमीर खुसरो ने बसंती चोला पहन गाए बसंत के गीत
सगन बन फूल रही सरसों.
सगन बन फूल रही सरसों.
अम्बवा फूटे, टेसू फूले, कोयल बोले डार-डार,
और गोरी करत सिंगार,
मलनियां गेंदवा ले आईं कर सों,
सगन बिन फूल रही सरसों.
तरह तरह के फूल खिलाए,
ले गेंदवा हाथन में आए.
निजामुदीन के दरवज़्ज़े पर,
आवन कह गए आशिक रंग,
और बीत गए बरसों.
सगन बन फूल रही सरसों.
खुसरों का पहनावा देख और गीत सुनकर हजरत निजामुद्दीन के चेहरे पर मुस्कान आ गई. इसके बाद से ही बसंत पचंमी के दिन हजरत निजामुद्दीन की दरगाह में बंसत पंचमी मनाने की परिपाटी चली.
दरगाह में ऐसे मनाया जाता है वसंतोत्सव
बसंत पंचमी पर दरगाह को पीले फूल और पीली लाइटों से सजाया जाता है. पीली रंग की चादर चढ़ाई जाती है. दरगाह से जुड़े अनुयायी पीले रंग का पटका और पगड़ी पहनते हैं. लोगों में बेसन के लड्डू बांटे जाते हैं और इस मौके पर दरगाह में कव्वाल की प्रस्तुति भी होती है.
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