ज्योतिष में अन्न का विशेष महत्व बताया गया है. अन्न की पवित्रता पर शास्त्रों में विस्तार से लिखा गया है. अन्न का संबंध सभी ग्रहों से सीधा है. दलहन, तिलहन, फल, सब्जी और अन्न सभी ग्रहों से अपने रंग गुण और प्रभाव के जुड़े हुए हैं.
अन्न की पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए. एक बार द्वापर युग में एक साधु का गंगा, समुद्र और बादल से पाप पर संवाद हुआ. इस संवाद कथा से स्पष्ट हुआ कि जो जैसा अन्न खाता है उसका मन वैसा ही हो जाता है.
एक बार एक ऋषि के मन में यह विचार आया कि सभी लोग अपना पाप गंगा जी में धो डालते हैं इससे लगातार गंगा जी में मनुष्यों के पाप धोने के कारण खुद गंगा जी भी पापी हो गई होंगी.
तब ऋषि ने गंगा जी से पूछा मइया आप तो पापी हो गई होंगी, क्योंकि हजारों वर्षों से आपमें मनुष्य अपने पापों को धो रहा है. गंगा जी ने कहा वत्स मैं कहाँ से पापी होऊंगी. मैं तो मनुष्यों के पाप को ले जा कर समुद्र में अर्पण कर देती हँ और स्वयं पवित्र हो जाती हूँ, मुझे मनुष्यों का पाप नहीं लगता है.
तब ऋषि समुद्र के पास गए कहा, समुद्र आप पापी हुए क्योंकि गंगा जी में मनुष्य हजारों वर्षों से पाप धोते आ रहा है और गंगाजी हजारों वर्षोंं से लगातार आपमें उनके पापों को उलीचते आ रही हैं तो आप पापी हो गए होंगें.
समुद्र ने कहा ऋषिवर मैं भी पापी नहीं होता क्योंकि जो पाप गंगा जी मुझमें उड़ेल देती हैं. मैं उसे वाष्प बना कर बादलों को दे देता हूँ. इस तरह मेरे पास भी कोई पाप नहीं बचता है. मैं भी निर्मल हो जाता हूँ.
ऋषि फिर बादलों के पास पहुँचे. बोले बादल तब तो पक्का आप पापी हो गए होंगे क्योंकि गंगा मइया में मनुष्य हजारों वर्षों से लगातार पाप धो रहा है उसे गंगा मइया समुद्र में उड़ेल देती हैं. समुद्र उस पाप को वाष्प में बदलकर आपको दे देता है. इससे आप जरूर पापी हो चुके होंगे.
बादल हँस पड़ा, ऋषिवर मैं भी पापी नहीं होता हूं क्योंकि समुद्र के द्वारा मुझे दिया गया पाप मैं वापस धरती पर पानी के रूप में बरसा देता हूँ. वास्तव में पाप मनुष्य की भावनाओं और मनोवृत्ति के आधार पर पाप अन्न के साथ में उपजता है और उसे मनुष्य ग्रहण करता है इससे उसे फिर से पाप लग जाता है.