Jyotish Shastra: वेद काल से ही हो रहा ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन, हमारे जीवन को ऐसे प्रभावित करते हैं ग्रह-नक्षत्र
Jyotish Shastra: ऐसी मान्यता है कि सूर्य, चंद्रमा और ग्रहों का ठीक से अवलोकन करना और उसकी व्याख्या करके सांसारिक और मानवीय घटनाओं की भविष्यवाणी करना ही ज्योतिषशास्त्र है.
Jyotish Shastra: माना जाता है कि सांसारिक मामलों पर ग्रहों और सितारों के प्रभाव की समझ उन्हें व्यक्तियों, समूहों और राष्ट्रों की नियति की भविष्यवाणी करने और प्रभावित की अनुमति देती है, यद्यपि अपने पूरे इतिहास में अक्सर ज्योतिष को एक विज्ञान के रूप में माना जाता हैं.
ज्योतिष क्या है? (What is Jyotish)
ज्योतिषशास्त्र ‘ज्योति का शास्त्र’ है. ज्योति आकाशीय पिंडों-नक्षत्र, ग्रह आदि से जुड़ी है, लेकिन ज्योतिष में हम सब पिंडों का अध्ययन नहीं करते. यह अध्ययन केवल सौरमण्डल तक ही सीमित रखते हैं. ज्योतिष का मूलभूत सिद्धांत है कि आकाशीय पिंडों का प्रभाव संपूर्ण ब्रह्माण्ड पर पड़ता है.
इस प्रकार मानव-संसार पर भी इन नक्षत्रों और ग्रहों आदि का प्रभाव पड़ता है. दूसरे शब्दों में आकाशीय पिण्डों एवं मानव संसार में पारस्परिक संबंध है.
इस संबंध को अथर्ववेद के तीन मंत्र स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं,पूरी समानता है. इस आधार पर हम कह सकते हैं कि ज्योतिष का मूल वेदों में से ही है.
ज्योतिष को लेकर अथर्ववेद के तीन मंत्र
पहला मंत्र-
चित्राणि साकं दिवि रोचनानि सरीसृपाणि भुवने जवानि। तुर्मिशं सुमतिमिच्छमानो अहानि गीर्भिः सपर्यामि नाकम्॥ (अथर्व वेद 19.7.1)
अर्थ: "द्युलोक -सौरमंडल में चमकते हुए विशिष्ट गुण वाले अनेक नक्षत्र हैं, जो साथ मिलकर अत्यंत तीव्र गति से टेढ़े-मेढ़े चलते हैं. सुमति की इच्छा करता हुआ मैं प्रतिदिन उनको पूजता हूं, जिससे मुझे सुख की प्राप्ति हो." इस प्रकार इस मन्त्र में नक्षत्रों को सुख तथा सुमति देने में समर्थ माना गया है. यह सुमति मनुष्यों को नक्षत्रों की पूजा से प्राप्त होती है. यह मनुष्यों पर नक्षत्रों का प्रभाव हुआ, जिसे ज्योतिष शास्त्र भी मानता है.
दूसरा मन्त्र है-
यानि नक्षत्राणि दिव्यन्तरिक्षे अप्सु भूमौ यानि नगेषु दिक्षु। प्रकल्पयंश्चन्द्रमा यान्येति सर्वाणि ममैतानि शिवानि सन्तु॥ (अथर्व वेद 19.8.1)
अर्थ: "जिन नक्षत्रों को चन्द्रमा समर्थ करता हुआ चलता है; वे सब नक्षत्र मेरे लिए आकाश में, अन्तरिक्ष में, जल में, पृथ्वी पर, पर्वतों पर और सब दिशाओं में सुखदायी हों."
अब प्रश्न उठता है कि चन्द्रमा किन नक्षत्रों को समर्थ करता हुआ चलता हैं? वेदों में इन नक्षत्रों की संख्या 18 बताई गई है. इनके नाम अथर्ववेद के 19 वें काण्ड के 7वें सूक्त में मंत्र-संख्या 2 से 5 तक (4 मंत्रों) में दिए गए हैं.
अश्विनी, भरणी आदि 18 नाम वही है, जो ज्योतिष ग्रन्थों में है. इस प्रकार नक्षत्रों के नाम तथा क्रम में पूरी समानता है. इस आधार पर हम कह सकते हैं कि ज्योतिष का मूल वेदों में है.
तीसरा मन्त्र है-
"अष्टाविंशानि शिवानि शग्मानि सह योगं भजन्तु मे। योगं प्र पद्ये क्षेमं च क्षेमं प्र पो योगं च नमोऽहोरात्राभ्यामस्तु।।" (अथर्व वेद 19.8.2)
अर्थ: "अट्ठाईस नक्षत्र मुझे वह सब प्रदान करें, जो कल्याणकारी और सुखदायक है. मुझे प्राप्ति-सामर्थ्य और रक्षा सामर्थ्य प्रदान करें. दूसरे शब्दों में पाने के सामर्थ्य के साथ-साथ रक्षा के सामर्थ्य को पाऊं और रक्षा के सामर्थ्य के साथ ही पाने के सामर्थ्य को भी मैं पाऊं।. दोनों अहोरात्र (दिवस और रात्रि) को नमस्कार हो."
इस मंत्र में योग और क्षेम की प्राप्ति के लिए प्रार्थना की है. साधारणतया जो वस्तु मिली नहीं है, उसको जुटाने का नाम 'योग' है. जो वस्तु मिल गयी है, उसकी रक्षा करना ही 'क्षेम' है. नक्षत्रों से इनको देने की प्रार्थना से स्पष्ट है कि नक्षत्र प्रसन्न होकर यह दे सकते हैं. इस प्रकार इस मंत्र का भी ज्योतिष से सम्बन्ध है.
इस मंत्र में जो 'अहोरात्र' पद आया है, उसका ज्योतिष के होराशास्त्र में अत्यन्त महत्त्व है. यथा- अहोरात्राद्यंतलोपाद्धोरेति प्रोच्यते बुधैः। तस्य हि ज्ञानमात्रेण जातकर्मफलं वदेत्॥ (बृ० पा० हो० शा० पू० अध्याय 3.2)
अर्थ: "अहोरात्र पदके आदिम (अ) और अन्तिम (त्र) वर्ण के लोप से 'होरा' शब्द बनता है. इस होरा (लग्न) के ज्ञानमात्र से जातक का शुभाशुभ कर्मफल कहना चाहिए."
आकाशीय पिंडों में नक्षत्र और ग्रह दोनों आते हैं. ज्योतिष ने इन दोनों में कुछ अन्तर किया है, जो निम्न श्लोकों से स्पष्ट है-
तेजःपुञ्ज नु वीक्ष्यन्ते गगने रजनीषु ये। नक्षत्रसंज्ञकास्ते तु न क्षरन्तीति निश्चलाः॥
विपुलाकारवन्तोऽन्ये गतिमन्तो ग्रहाः किल। स्वगत्या भानि गृह्णन्ति यतोऽतस्ते ग्रहाभिधाः॥ (बृ० पा० हो० शा० अध्याय 3.4-5)
अर्थ: रात्रि के समय आकाश में जो तेजःपुंज दिखते हैं, वे ही निश्चल तारागण नहीं चलने के कारण 'नक्षत्र' कहे जाते हैं. कुछ अन्य विपुल आकार वाले गतिशील वे तेजःपुंज अपनी गति के द्वारा निश्चल नक्षत्रों को पकड़ लेते हैं, अतः वे 'ग्रह' कहलाते हैं.
ऊपर तीन मंत्रों में नक्षत्रों से सुख, सुमति, योग, क्षेम देने की प्रार्थना की गई. अब ग्रहों से दो मंत्रों में इसी प्रकार की प्रार्थना का वर्णन है. दोनों मन्त्र अथर्ववेद के उन्नीसवें काण्ड के नवम सूक्त में है.
इस सूक्त के सातवें मन्त्र का अन्तिम चरण 'शं नो दिविचरा ग्रहाः' है, जिसका अर्थ है, आकाश में घूमने वाले सब ग्रह हमारे लिए शान्तिदायक हों. यह प्रार्थना सामूहिक है. इस सूक्त का दसवां मंत्र है-
शं नो ग्रहाश्चान्द्रमसाः शमादित्यश्च राहुणा । शं नो मृत्युधूमकेतुः शं रुद्रास्तिग्मतेजसः।।
अर्थ: "चन्द्रमा के समान सब ग्रह हमारे लिए शान्तिदायक हों. राहु के साथ सूर्य भी शान्तिदायक हों. मृत्यु, धूम और केतु भी शान्तिदायक हों. तीक्ष्ण तेज वाले रुद्र भी शान्तिदायक हों.'
अब प्रश्न उठता है चन्द्र के समान अन्य ग्रह कौन हैं? इसका उत्तर एक ही है कि पांच ताराग्रह- मंगल, बुध, गुरु, शुक्र एवं शनि हैं, जो चन्द्र के समान सूर्य की परिक्रमा करने से एक ही श्रेणी में आते हैं.
सूर्य किसी की परिक्रमा नहीं करता. इसलिए इसको भिन्न श्रेणी में रखा गया है. राहु और केतु प्रत्यक्ष दिखने वाले ग्रह नहीं हैं. इसलिए ज्योतिष में इसे 'छायाग्रह' कहा जाता हैं, परंतु वेदों ने इन्हें ग्रह की श्रेणी में ही रखा है.
इस प्रकार सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु को ज्योतिष में 'नवग्रह' कहा जाता है.
कुछ भाष्यकारों ने 'चान्द्रमसाः' का अर्थ 'चन्द्रमा के ग्रह' भी किया है और उसमें नक्षत्रों (कृत्तिका आदि) की गणना की है; परंतु यह तर्कसंगत नहीं लगता. इस मंत्र में आए हुए मृत्यु एवं धूम को महर्षि पराशर ने अप्रकाशग्रह कहा है.
ये पाप ग्रह हैं और अशुभ फल देने वाले हैं. कुछ के अनुसार गुलिक को ही 'मृत्यु' कहते हैं। उपर्युक्त मंत्र में इनकी प्रार्थना से यह स्पष्ट है कि इनका प्रभाव भी मानव पर पड़ता है.
श्री पराशर के अनुसार पितामह ब्रह्माजी ने वेदों से लेकर ज्योतिष शास्त्र को विस्तारपूर्वक कहा है- वेदेभ्यश्च समुद्धृत्य ब्रह्मा प्रोवाच विस्तृतम्। (बृ० पा० हो० सारांश उत्तरखण्ड अध्याय 20.3)
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है की ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन वेद काल से ही होता आया है. ये ग्रह नक्षत्र हमारे जीवन को अवश्य ही प्रभावित करते आएं हैं. बस सही गणना और विद्वत्ता होनी चाहिए.
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