Shani Dev: ज्योतिष शास्त्र (Jyotish Shastra) में शनि (Shani Dev) को क्रूर ग्रह माना जाता है जो लोगों को उनके कर्मों के हिसाब से दंडित करते हैं. शनि देव अपनी स्थिति के अनुसार अच्छे और बुरे दोनों परिणाम देते हैं. 


शनि की कृपा पाने के लिए लोग तरह-तरह के उपाय (Shani Upay) करते हैं. इसमें शनि कवच स्त्रोत का पाठ (Shani Kavach Path) करना अति उत्तम माना जाता है. शनि कवच भगवान शनि को समर्पित एक स्तोत्र है. माना जाता है कि इसका पाठ करने से शनि की अशुभ दृष्टि से बचा जा सकता है.


शनि कवच का पाठ करने से शनि ग्रह से संबंधित दोषों जैसे शनि साढ़े साती (Shani Sadesati) और शनि ढैय्या (Shani Dhaiya) से राहत मिलती है. इसका पाठ करने से व्यक्ति को धन,स्वास्थ्य और सफलता प्राप्त होती है.


शनि कवच स्त्रोत इनके लिए जरूरी


शनि देव की कुदृष्टि पड़ती है उनके जीवन में अस्थिरता आ जाती है. ऐसे लोग हमेशा मुसीबतों से घिरे रहते हैं. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, जिनकी कुंडली में शनि ग्रह कमजोर या अशुभ स्थिति में हो या फिर जो लोग शनि की साढ़ेसाती या ढैय्या से गुजर रहे हों उन लोगों को शनि कवच स्त्रोत का पाठ जरूर करना चाहिए. इसका पाठ करने समस्त दुखों का नाश होता है. 


शनि कवच पाठ (Shani Kavach Stotra Path)


अस्य श्री शनैश्चरकवचस्तोत्रमंत्रस्य कश्यप ऋषिः,


अनुष्टुप् छन्दः, शनैश्चरो देवता, शीं शक्तिः,


शूं कीलकम्, शनैश्चरप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः


नीलाम्बरो नीलवपु: किरीटी गृध्रस्थितत्रासकरो धनुष्मान्।


चतुर्भुज: सूर्यसुत: प्रसन्न: सदा मम स्याद्वरद: प्रशान्त:।।


श्रृणुध्वमृषय: सर्वे शनिपीडाहरं महंत्।


कवचं शनिराजस्य सौरेरिदमनुत्तमम्।।


कवचं देवतावासं वज्रपंजरसंज्ञकम्।


शनैश्चरप्रीतिकरं सर्वसौभाग्यदायकम्।।


ऊँ श्रीशनैश्चर: पातु भालं मे सूर्यनंदन:।


नेत्रे छायात्मज: पातु कर्णो यमानुज:।।


नासां वैवस्वत: पातु मुखं मे भास्कर: सदा।


स्निग्धकण्ठश्च मे कण्ठ भुजौ पातु महाभुज:।।


स्कन्धौ पातु शनिश्चैव करौ पातु शुभप्रद:।


वक्ष: पातु यमभ्राता कुक्षिं पात्वसितस्थता।।


नाभिं गृहपति: पातु मन्द: पातु कटिं तथा।


ऊरू ममाSन्तक: पातु यमो जानुयुगं तथा।।


पदौ मन्दगति: पातु सर्वांग पातु पिप्पल:।


अंगोपांगानि सर्वाणि रक्षेन् मे सूर्यनन्दन:।।


इत्येतत् कवचं दिव्यं पठेत् सूर्यसुतस्य य:।


न तस्य जायते पीडा प्रीतो भवन्ति सूर्यज:।।


व्ययजन्मद्वितीयस्थो मृत्युस्थानगतोSपि वा।


कलत्रस्थो गतोवाSपि सुप्रीतस्तु सदा शनि:।।


अष्टमस्थे सूर्यसुते व्यये जन्मद्वितीयगे।


कवचं पठते नित्यं न पीडा जायते क्वचित्।।


इत्येतत् कवचं दिव्यं सौरेर्यन्निर्मितं पुरा।


जन्मलग्नस्थितान्दोषान् सर्वान्नाशयते प्रभु:।।


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