महर्षि दधीचि के पुत्र पिप्पलाद जो बाद में प्रख्यात ऋषि बने उनसे भगवान शनिदेव भी डरते हैं. ऋषि पिप्पलाद का नाम लेने और पीपल के वृक्ष में जल चढानें से शनि का दोष नहीं लगता है. इसके अलावा ऋषि पिप्पलाद के कारण ही सोलह वर्षों तक के बालकों को भी शनिदेव का कोप नहीं सताता है.


पौराणिक कथा के अनुसार महर्षि दधीचि की हड्डियाँ देवताओं को वज्र बनाने के लिए चाहिए थीं. इस वज्र के प्रयोग से देवराज इंद्र वृत्तासुर का नाश कर सकते थे. यह बात जब महर्षि दधीचि को पता चली तो उन्होंने जनकल्याण के लिए अपनी हड्डियाँ दान कर दीं. उनके इस आत्मोत्सर्ग के समय उनकी पत्नी सुवर्चा व्यथित हो गईं. और पति के साथ सती होने लगीं. तब आकाशवाणी हुई कि तुम्हारे गर्भ में महर्षि दधीचि के ब्रह्मतेज से भगवान शंकर का अंशावतार होगा. अत: उसकी रक्षा करना आवश्‍यक है. इसके बाद ऋषि पत्नी ने अपने बच्चे को पीपल पेड़ के नीचे जन्म दिया और ऋषि के साथ सती हो गईं. पिप्पलाद पीपल पेड के नीचे गिरे पीपल के फल पिकरी को खा कर बड़े हुए. उनका बचपन बड़े कष्टों मेें बीता. बड़े होने पर पिप्पलाद ने भगवान शिव की घोर तपस्या की और ब्रह्मदण्ड प्राप्त किया.

जब उन्होंने देवताओं से पूछा कि उनका बाल्यकाल में कष्ट का कारण क्या है जिसके चलते वे जन्म से ही अनाथ हो गए. देवताओं ने उन्हें बताया कि यह शनिदेव के प्रभाव के कारण हुआ. आपके पिता और आप दोनों उन्हीं के प्रभाव के कारण ही इस गति को प्राप्त हुए थे. ऋषि पिप्पलाद क्रोधित हो गए कि शनिदेव बालकों को तक नहीं छोड़ते हैं. उन्होंने देव को श्राप दिया कि वह अपने स्थान से गिर जाएं. इसके साथ ही उन्होंने शनिदेव का सामना होने पर ब्रह्मदण्ड फेंक कर मारे जिससे शनिदेव का पैर कमजोर हो गया.

देवताओं ने पिप्पलाद ऋषि के क्रोध को शांति करने के लिए बताया कि शनि तो न्याय के देवता हैं. वे तो कर्म के अनुसार दण्ड देते हैं. इसमें शनि का कोई दोष नहीं है. पिप्पलाद ने इस शर्त पर उनको माफ किया कि सोलह वर्षों तक के बालकों को कभी शनिदेव का प्रकोप नहीं सताएगा. पीपल के वृक्ष पर रोजाना जल अर्पण करने वालों को शनिदेव नहीं सताएंगे. उसके बाद से लोग शनिदेव के प्रकोप से बचने के लिए पिप्पलाद ऋषि का नाम लेते हैं और पीपल पर जल चढ़ाते हैं.