Spirituality, Ashtanga Yoga Niyam: योग और व्यायाम शरीर के लिए बहुत जरूरी है और इसके कई लाभ भी हैं. योग से ना सिर्फ शरीर तंदरुस्त रहता है, बल्कि इससे कई बीमारियों को भी दूर किया जा सकता है.


संसार में योग की परंपरा काफी पुरानी है. वेद-पुराणों के अनुसार ऋषियों और तपस्तियों द्वारा भी योग की विधि को अपनाया गया है. योग के प्रसिद्ध ग्रंथ पातंजलयोगदर्शन (Patanjal Yoga Darshan) में इसके बारे में विस्तारपूर्वक बतलाया है.


इसके अनुसार योगश्चित्तवृतिनिरोधः यानी मन की वृत्तियों पर नियंत्रण करना ही योग है. कृष्ण द्वारा भी गीता में एक स्थान पर कहा गया है कि, ‘योगःकर्मसु कौशलम’ यानी कर्मों में कुशलता ही योग है.


क्या है अष्टांग योग (What Is Ashtanga Yoga)


बात करें अष्टांग योग की तो मन, शरीर , प्राण की शुद्धि और ईश्वर की प्राप्ति के लिए आठ तरह के योगों के बारे में बताया गया है, जिसे ही ‘अष्टांग योग’ कहा जाता है. इसमें योग के आठ अंगों या शाखाओं का उल्लेख मिलता है, जोकि पतंजलि योग के सूत्र में भी वर्णित है. अष्टांग योग के प्रत्येक योग के अभ्यास में शरीर और दिमाग से सभी अशुद्धियों को नष्ट किया जाता है.


अष्टांग योग के ‘नियम’ (Niyama in Ashtanga Yoga)


अष्टांग योग के आठ अंगों में पहला अंग है यम ( Yamas) और दूसरा अंग है नियम (Niyama). नियम के पांच प्रकार जोकि निज से ही संबंधित है. इसमें ऐसे कर्मों के बारे में बताया गया है जो हमें खुद की शुद्धि के लिए करने होते हैं. नियम के पांच प्रकार हैं- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान. जानते हैं इन नियमों के बारे में विस्तार से.


पहला नियम
शौच (Saucha) - यहां शौच का मतलब मन और शरीर की पवित्रता से होता है. यानि सिर्फ शरीर को साफ रखना ही शौच नहीं है बल्कि मन से गलत भावना को निकलना भी शौच है. अंष्टांग योग के शौच नियम में मन की अंत:शुद्धि, राग, द्वेष आदि का त्यागकर मन की वृत्तियों को निर्मल करने की प्रकिया होती है.


दूसरा नियम
संतोष (Santosha) - इसे समझना मुश्किल नहीं लेकिन निभाना जरूर मुश्किल है. कर्तव्य का पालन करते हुए जो प्राप्त हो उसमें संतुष्टि रखना या जो कुछ परमात्मा की कृपा से प्राप्त हो उसमें संतुष्टि रखना ही ‘संतोष’ है.


तीसरा नियम
तप (Tapas)- तप या तपस्या का अर्थ होता है कि मन और शरीर को अनुशासित रखना. सुख-दुख, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास जैसे द्वंद्वों को सहन करते हुए मन व शरीर की साधना भी तप है.


चौथ नियम
स्वाध्याय (Svadhyaya)- स्वाध्याय में केवल वेद-वेदान्तों का ही ज्ञान अर्जित करना नहीं बल्कि व्यक्ति को खुद के बारे में भी चिंतन करना जरूरी है. स्वयं का अध्ययन करना चाहिए क्योंकि हम खुद में भी सुधर कर सकें.  विचारों में शुद्धि और ज्ञान प्राप्ति के लिए विद्याभ्यास, धर्मशास्त्रो का अध्ययन, सत्संग आदि का आदान-प्रदान स्वाध्याय है.


पांचवा नियम
ईश्वर प्रणिधान (Ishvara Pranidhana)- ईश्वर के प्रति श्रद्धा और आस्था रखना ही ईशवर प्रणिधान कहलाता है. इस नियम का पालन करने के पीछे सबसे बड़ी वजह है मनुष्य का आंतरिक निर्माण ताकि अपने आप को हम बेहतर तरीके से जान सके. मन, वाणी और कर्म से ईश्वर की भक्ति के साथ उसके नाम, रूप, गुण, लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, मनन करने जैसे समस्त कर्म ही 'ईश्वर प्रणिधान' है.


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