Ashtang Yoga Yam Niyam: संसार में योग की परंपरा सदियों पुरानी है. वैदिक संहिताओं के अनुसार, ऋषि-मुनियों और तपस्वियों द्वारा प्राचीन काल से ही योग को अपनाया गया है, इसका उल्लेख वेदों में भी मिलता है. इतना ही नहीं सिंधु घाटी सभ्यता में योग और समाधि को प्रदर्शित करती हुई मुर्तियां भी प्राप्त हुई.


एस्ट्रोलॉजर चेतना कौशिक बताती हैं कि योग के प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘पातंजलयोगदर्शन’ में योग के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है. ‘योगश्चित्तवृतिनिरोधः’ यानी मन की वृत्तियों पर नियंत्रण करना ही योग है. भगवान श्रीकृष्ण भी गीता में एक स्थान पर कहते हैं, ‘योगःकर्मसु कौशलम’ यानी कर्मों में कुशलता ही योग है.


अष्टांग योग (Ashtang Yoga) वह होता है जोकि चित्त के अज्ञानरूपी प्रवाह को स्थिर कर ज्ञानरूपी प्रवाह के ओर ले जाए. इसके लिए अष्टांग योग के अभ्यास की जरूरत होती है. अष्टांग योग के आठ योगांग-‘यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि हैं.


बात करें अष्टांग योग के पहले अंग यानी ‘यम’ के बारे में तो, यम वह नियम जो व्यक्ति को समाज में नैतिक तरीके से रहना सिखाता है. यम ‘यम उपरमे’ धातु शब्द से उत्पन्न है, जिसका अर्थ होता है निवृत्त होना. इस तरह से यम के अंतर्गत भी पांच नियमों को बताया गया है, जोकि इस प्रकार से हैं..


पहला नियम


अहिंसा- अहिंसाप्रतिष्ठायांतत्सन्निधौ वैरत्याग: ॥पातंजलयोगदर्शन 2/35॥
किसी को बिना कारण हानि पहुंचाना हिंसा कहलाता है.ऐसे में पूरे मन, वचन और कर्म से यह कोशिश करना की हम किसी को नुक्सान न पहुंचाए. फिर चाहे वह शब्दों से हो, शारीरिक हो या फिर मानसिक तरह से. इसे ही यम का पहला नियम ‘अहिंसा’ कहा जाता है.


दूसरा नियम


सत्य- सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफ़लाश्रययत्वम् ॥पातंजलयोगदर्शन 2/36॥
मन, वचन और कर्म से सत्य का पालन करना और मिथ्या का त्याग करना ही ‘सत्य’ कहलाता है.   सच्चे मन से आप जो भी कर्म करे वही आपको सबसे अच्छा फल देगा. साथ ही ये आपके आस-पास के वातावरण को भी सत्य और फलदायी बनाता है.


तीसरा नियम


अस्तेय- अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ।।पातंजलयोगदर्शन 2/37।।
अस्तेय यानी की मन में किसी भी प्रकार का चोर या द्वेष न होना. जब आप मन, वचन और कर्म से किसी चीज का हनन न करने, किसी से भी अनैतिक तरीके से उसकी वास्तु विशेष को नहीं पाना चाहते है तो वही ‘अस्तेय’ है.


चौथा नियम


ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभ: ।।पातंजलयोगदर्शन 2/ 38।।
कई लोग ब्रह्मचर्य को लेकर भ्रमिक हो जाते हैं. उन्हें लगता है कि ब्रह्मचर्य का मतलब किसी भी तरीके का शारीरिक संबंध नहीं बनाना होता है. लेकिन पुराणों और योगदर्शन के यम-नियम के अनुसार, ब्रह्मचर्य का अर्थ इससे बहुत अलग है.


ब्रह्मचर्य का अर्थ है मन, वचन और कर्म से यौन संयम या मैथुन का त्याग करना. शरीर की इन्द्रियों से हम कहते हैं, पीते हैं, देखते हैं या करते हैं. किसी भी चीज का उपयोग उतना ही करें जितना की जरूरत हो. ऐसे में इन्द्रियों को किसी चीज का आदि न होने देना ही असल में ब्रह्मचर्य होता है. 


आखिरी नियम


अपरिग्रह- अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोध ।।पातंजलयोगदर्शन 2/ 39।।
अपने स्वार्थ के लिए धन,  संपत्ति और भोग सामग्री में संयम न करना परिग्रह है और इसका अभाव   अपरिग्रह है. अपरिग्रह ये बताता है की अष्टांग योग करने वालों को कुछ भी जरूरत से ज्यादा जमा नहीं करना चाहिए. धन या भौतिक वस्तुओं को संचित नहीं करना चाहिए.


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