Vat Savitri Vrat 2024: भविष्य पुराण उत्तर पर्व अध्याय क्रमांक 102 अनुसार, वट सावित्री की कथा भगवान कृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर को सुनते हैं. भगवान् श्रीकृष्ण बोले- महाराज! सावित्री नाम की एक राजकन्या ने वनमें जिस प्रकार यह व्रत किया था, स्त्रियों के कल्याणार्थ मैं उस व्रतका वर्णन कर रहा हूं, उसे आप सुनें.


प्राचीन काल में मद्रदेश (पंजाब) में एक बड़ा पराक्रमी, सत्यवादी, क्षमाशील, जितेन्द्रिय और प्रजापालनमें तत्पर अश्वपति नामका राजा राज्य करता था, उसे कोई संतान न थी. इसलिये उसने सपत्नीक व्रतद्वारा सावित्री की आराधना की.


कुछ कालके अनन्तर व्रतके प्रभावसे ब्रह्माजी की पत्नी सावित्री ने प्रसन्न हो राजाको वर दिया कि 'राजन् ! तुम्हें (मेरे ही अंशसे) एक कन्या उत्पन्न होगी.' इतना कहकर सावित्रीदेवी अन्तर्धान हो गयीं और कुछ दिन बाद राजाको एक दिव्य कन्या उत्पन्न हुई.


वह सावित्रीदेवीके वरसे प्राप्त हुई थी, इसलिये राजाने उसका नाम सावित्री ही रखा. धीरे-धीरे वह विवाहके योग्य हो गयी. सावित्रीने भी भृगुके उपदेशसे सावित्री व्रत किया.


एक दिन वह व्रतके अनन्तर अपने पिताके पास गयी और प्रणाम कर वहाँ बैठ गयी. पिताने सावित्रीको विवाहयोग्य जानकर अमात्योंसे उसके विवाहके विषयमें मन्त्रणा की; पर उसके योग्य किसी श्रेष्ठ वरको न देखकर पिता अश्वपतिने सावित्रीसे कहा- 'पुत्रि ! तुम वृद्धजनों तथा अमात्योंके साथ जाकर स्वयं ही अपने अनुरूप कोई वर ढूँढ़ लो.' सावित्री भी पिताकी आज्ञा स्वीकार कर मन्त्रियोंके साथ चल पड़ी.


स्वल्प कालमें ही राजर्षियोंके आश्रमों, सभी तीर्थों और तपोवनोंमें घूमती हुई तथा वृद्ध ऋषियोंका अभिनन्दन करती हुई वह मन्त्रियोंसहित पुनः अपने पिताके पास लौट आयी.


सावित्रीने देखा कि राजसभामें देवर्षि नारद बैठे हुए हैं. सावित्रीने देवर्षि नारद और पिताको प्रणामकर अपना वृत्तान्त इस प्रकार बताया- महाराज ! शाल्वदेशमें द्युमत्सेन नामके एक धर्मात्मा राजा हैं.


उनके सत्यवान् नामक पुत्रका मैंने वरण किया है.' सावित्रीकी बात सुनकर देवर्षि नारद कहने लगे- 'राजन् ! इसने बाल्य-स्वभाववश उचित निर्णय नहीं लिया.


यद्यपि द्युमत्सेनका पुत्र सभी गुणोंसे सम्पन्न है, परंतु उसमें एक बड़ा भारी दोष है कि आजके ही दिन ठीक एक वर्षके बाद उसकी मृत्यु हो जायगी.' देवर्षि नारदकी वाणी सुनकर राजाने सावित्रीसे किसी अन्य वरको ढूँढ़नेके लिये कहा.


सावित्री बोली- 'राजाओंकी आज्ञा एक ही बार होती है. पण्डितजन एक ही बार बोलते हैं. और कन्या भी एक ही बार दी जाती है-ये तीनों बातें बार-बार नहीं होतीं.


सत्यवान् दीर्घायु हो अथवा अल्पायु, निर्गुण हो या गुणवान्, मैंने तो उसका वरण कर ही लिया, अब मैं दूसरे पतिको कभी नहीं चुनूँगी. जो कहा जाता है, उसका पहले विचारपूर्वक मनमें निश्चय कर लिया जाता है और जो वचन कह दिया जाय, वही करना चाहिये.


इसलिये मैंने जो मनमें निश्चय कर कहा है, मैं वही करूँगी.' सावित्रीका ऐसा निश्चययुक्त वचन सुनकर नारदजीने कहा- 'राजन् ! आपकी कन्याको यही अभीष्ट है तो इस कार्यमें शीघ्रता करनी चाहिये.


आपका यह दान-कर्म निर्विघ्न सम्पन्न हो.' इस तरह कहकर नारदमुनि स्वर्ग चले गये और राजाने भी शुभ मुहूर्तमें सावित्रीका सत्यवान्से विवाह कर दिया. सावित्री भी मनोवाञ्छित पति प्राप्तकर अत्यन्त प्रसन्न हुई. दोनों अपने आश्रममें सुखपूर्वक रहने लगे. परंतु नारदमुनिकी वाणी सावित्रीके हृदयमें खटकती रहती थी.


जब वर्ष पूरा होनेको आया, तब सावित्रीने विचार किया कि अब मेरे पतिकी मृत्युका समय समीप आ गया है. यह सोचकर सावित्रीने भाद्रपद मासके शुक्ल पक्षकी द्वादशीसे तीन रात्रिका व्रत ग्रहण कर लिया और वह भगवती सावित्रीका जप, ध्यान, पूजन करती रही.


उसे यह निश्चय था कि आजसे चौथे दिन सत्यवान्‌की मृत्यु होगी. सावित्रीने तीन दिन-रात नियमसे व्यतीत किये. चौथे दिन देवता-पितरोंको संतुष्ट कर उसने अपने ससुर और सासके चरणोंमें प्रणाम किया.


सत्यवान् वनसे काष्ठ लाया करता था. उस दिन भी वह काष्ठ लेनेके लिये जाने लगा. सावित्री भी उसके साथ जानेको उद्यत हो गयी. इसपर सत्यवान्ने सावित्रीसे कहा- 'वनमें जानेके लिये अपने सास-ससुरसे पूछ लो.' वह पूछने गयी.


पहले तो सास-ससुरने मना किया, किंतु सावित्रीके बार-बार आग्रह करनेपर उन्होंने जानेकी आज्ञा दे दी. दोनों साथ-साथ वनमें गये. सत्यवान्‌ने वहाँ काष्ठ काटकर बोझ बाँधा, परंतु उसी समय उसके मस्तकमें महान् वेदना उत्पन्न हुई. उसने सावित्रीसे कहा-'प्रिये! मेरे सिरमें बहुत व्यथा है, इसलिये थोड़ी देर विश्राम करना चाहता हूं.'


सावित्री अपने पतिके सिरको अपनी गोदमें लेकर बैठ गयी. इतनेमें ही यमराज वहाँ आ गये. सावित्रीने उन्हें देखकर प्रणाम किया और कहा- 'प्रभो! आप देवता, दैत्य, गन्धर्व आदिमेंसे कौन हैं? मेरे पास क्यों आये हैं?'


धर्मराजने कहा- सावित्री ! मैं सम्पूर्ण लोकोंका नियमन करनेवाला हूं. मेरा नाम यम है. तुम्हारे पतिकी आयु समाप्त हो गयी है, परंतु तुम पतिव्रता हो, इसलिये मेरे दूत इसको न ले जा सके. अतः मैं स्वयं ही यहाँ आया हूं. इतना कहकर यमराजने सत्यवान्‌के शरीरसे अङ्गुष्ठमात्रके पुरुषको खींच लिया और उसे लेकर अपने लोकको चल पड़े.


सावित्री भी उनके पीछे चल पड़ी. बहुत दूर जाकर यमराजने सावित्रीसे कहा- 'पतिव्रते! अब तुम लौट जाओ. इस मार्गमें इतनी दूर कोई नहीं आ सकता.' सावित्रीने कहा- महाराज! पतिके साथ आते हुए मुझे न तो ग्लानि हो रही है और न कुछ श्रम ही हो रहा है.


मैं सुखपूर्वक चली आ रही हूं. जिस प्रकार सज्जनोंकी गति संत हैं, वर्णाश्रमोंका आधार वेद है, शिष्योंका आधार गुरु और सभी प्राणियोंका आश्रय-स्थान पृथ्वी है, उसी प्रकार स्त्रियोंका एकमात्र आश्रय स्थान उसका पति ही है अन्य कोई नहीं.


इस प्रकार सावित्रीके धर्म और अर्थयुक्त वचनोंको सुनकर यमराज प्रसन्न होकर कहने लगे- 'भामिनि ! मैं तुमसे बहुत संतुष्ट हूं, तुम्हें जो वर अभीष्ट हो वह माँग लो.' तब सावित्रीने विनयपूर्वक पाँच वर माँगे-



  1. मेरे ससुरके नेत्र अच्छे हो जायँ और उन्हें राज्य मिल जाय.

  2. मेरे पिताके सौ पुत्र हो जायें.

  3. मेरे भी सौ पुत्र हों.

  4. मेरा पति दीर्घायु प्राप्त करे तथा

  5. हमारी सदा धर्ममें दृढ़ श्रद्धा बनी रहे. धर्मराजने सावित्रीको ये सारे वर दे दिये और सत्यवान्‌को भी दे दिया. सावित्री प्रसन्नतापूर्वक अपने पति को साथ लेकर आश्रममें आ गयी. भाद्रपदकी पूर्णिमाको जो उसने सावित्री-व्रत किया था, यह सब उसीका फल है.


युधिष्ठिरने पुनः कहा- भगवन् ! अब आप सावित्री व्रतकी विधि विस्तारपूर्वक बतलायें.


भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- महाराज ! सौभाग्यकी इच्छावाली स्त्री को भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशीको पवित्र होकर तीन दिनके लिये सावित्री व्रतका नियम ग्रहण करना चाहिये. यदि तीन दिन उपवास रहनेकी शक्ति न हो तो त्रयोदशीको नक्तव्रत, चतुर्दशीको अयाचित व्रत और पूर्णिमाको उपवास करे.


सौभाग्यकी कामनावाली नारी नदी, तड़ाग आदिमें नित्य-स्नान करे और पूर्णिमाको सरसोंका उबटन लगाकर स्नान करे. यथाशक्ति मिट्टी, सोने या चांदी की ब्रह्मासहित सावित्रीकी प्रतिमा बनाकर बाँसके एक पात्रमें स्थापित करे और दो रक्त वर्णके वस्त्रोंसे उसे आच्छादित करे. फिर गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्यसे पूजन करे.


कूष्माण्ड, नारियल, ककड़ी, तुरई, खजूर, कैथ, अनार, जामुन, जम्बीर, नारंगी, अखरोट, कटहल, गुड़, लवण, जीरा, अंकुरित अन्न, सप्तधान्य तथा गलेका डोरा (सावित्री सूत्र) आदि सब पदार्थ बाँसके पात्रमें रखकर सावित्रीदेवीको अर्पण कर दे. रात्रि के समय जागरण करे. गीत, वाद्य, नृत्य आदिका उत्सव करे.


राजन् ! इसी प्रकार ज्येष्ठ मासकी अमावास्याको वटवृक्षके नीचे काष्ठभारसहित सत्यवान् और महासती सावित्रीकी प्रतिमा स्थापित कर उनका विधिवत् पूजन करना चाहिये.


रात्रि को जागरण आदि कर प्रातः वह प्रतिमा ब्राह्मणको दान कर दे. इस विधानसे जो स्त्रियाँ यह सावित्री व्रत करती हैं, वे पुत्र-पौत्र-धन आदि पदार्थोंको प्राप्तकर चिर- कालतक पृथ्वीपर सब सुख भोगकर पतिके साथ ब्रह्मलोक को प्राप्त करती हैं.


यह व्रत स्त्रियोंके लिये पुण्यवर्धक, पापहारक, दुःखप्रणाशक और धन प्रदान करनेवाला है. जो नारी भक्तिसे इस व्रतको करती है, वह सावित्री की भाँति दोनों कुलोंका उद्धार कर पतिसहित चिरकालतक सुख भोगती है. जो इस माहात्म्यको पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे भी मनोवाञ्छित फल प्राप्त करते हैं.


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