Tata Motors and Ford Conflict: रतन टाटा देश ही नहीं बल्कि दुनिया के सबसे बड़े उद्योगपतियों में से एक है. इसके साथ ही रतन टाटा को लोग इसलिए भी काफी पसंद करते हैं, क्योंकि रतन टाटा कई तरह से देश के लिए सहयोग देते रहते हैं. जब भी देश को जरूरत होती है, तो टाटा ग्रुप सबसे पहले मदद के लिए हाथ बढ़ाने वालों की लिस्ट में शामिल होता है.


आज हम बात करने जा रहे हैं रतन टाटा की उस डील की, जिससे टाटा मोटर्स के हाथ में लग्जरी कार निर्माता कंपनी जगुआर लैंड रोवर की कमान आ गई. जहां कभी टाटा को ये कहकर सुनाया गया था कि टाटा नहीं जानती कि कार कैसे बनाते हैं, वहीं रतन टाटा ने गाड़ियों की इतनी बड़ी और सफल कंपनी खड़ी कर दी.



क्या है जगुआर लैंड रोवर की दास्तां?


साल 1989 में फोर्ड (Ford) ने British Leyland से 2.5 बिलियन डॉलर में जगुआर को खरीदा था. पहले के समय में अल्ट्रा प्रीमियम सेगमेंट में आती थी. इस कार को बेंटले और रोल्स-रॉयस की टक्कर की कार माना जाता था. वहीं अब के समय की जगुआर लग्जरी कार ब्रांड में मर्सिडीज, बीएमडब्ल्यू, ऑडी और वॉल्वो जैसी गाड़ियों को टक्कर देती है.


फोर्ड ने किया ग्लोबल मार्केट पर कब्जा


फोर्ड ने 90 के दशक में केवल जगुआर को ही नहीं खरीदा, बल्कि उस दौर में कई बड़े ब्रांड जैसे ऑस्टिन मार्टिन और वॉल्वो की डील भी फोर्ड ने की. इन तीनों वेंचर्स को फोर्ड ने करीब 6.5 बिलियन डॉलर्स में अपने नाम किया. वहीं साल 2000 में फोर्ड ने 2.7 बिलियन डॉलर में लैंड रोवर को भी खरीद लिया. वो दौर पूरी तरह से फोर्ड का ही था.


फिर हुई टाटा मोटर्स की एंट्री


फोर्ड के किसी चोटी के शिखर तक पहुंचने के बाद सबसे बुरा दौर भी आया. साल 2006 में यूनाइटेड स्टेटस ऑटो मार्केट में करीब 12.7 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ था. इससे उबरने के लिए फोर्ड ने साल 2007 में अपने सात प्लांट बंद कर दिए. मार्च 2007 में फोर्ड ने ऑस्टिन मार्टिन बेच दी.


इसी साल जून में फोर्ड ने जगुआर लैंड रोवर को बेचने के लिए दुनियाभर में नीलामी का ऐलान किया. इस नीलामी में टाटा ने बाजी मारी और फोर्ड को दिवालिया होने से बचा लिया. टाटा ने जगुआर लैंड रोवर को साल 2008 में 2.3 बिलियन डॉलर में खरीदा था. जबकि फोर्ड ने इन दोनों कंपनियों को खरीदने में 5.2 बिलियन डॉलर खर्च किए थे. लेकिन रतन टाटा ने उस दौर में इन कंपनियों को खरीदा, जब ये कंपनियां काफी ज्यादा बुरे दौर से गुजर रही थीं.


यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि साल 1998 में जिस कंपनी ने टाटा ग्रुप से ये कहा था कि वो कार नहीं बना सकती, वो कंपनी कोई और नहीं बल्कि फोर्ड ही थी. इसे इत्तेफाक कहा जाए या टाटा का बदला.


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