आज से 9 वर्ष पहले की यही तारीख. 16 मई 2014. बदल गई थी इस दिन देश की राजनीति. पहली बार देश की जनता ने पूर्ण बहुमत के साथ देश की सत्ता बीेजपी को सौंपी थी. बीजेपी की इस जीत के नायक थे नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी. बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले ही उनको प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर धुआंधार प्रचार किया था. अच्छे दिन लाने का वादा किया था. जनता ने भी अपना पूरा प्याज जताया था. उसके बाद से बीजेपी और नरेंद्र मोदी लगातार कसौटी पर कसे जाते रहे हैं- चाहे वह दोस्तों की तरफ से हो, या फिर विरोधी दलों की तरफ से हो.
बीते 9 वर्ष में बहुत कुछ बदल गया
16 मई 2014 वह दिन था, जिस दिन चुनाव नतीजे घोषित हुए थे और देश की जनता ने बीजेपी को बंपर बहुमत के साथ देश का नेतृत्व करने का काम दिया था. इसके बाद की एक तारीख पर भी बात करनी चाहिए. नतीजे आने के 10 दिनों बाद जब 26 मई को नरेंद्र मोदी ने देश के प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली, तो वह दिन भी याद करना चाहिए. राष्ट्रपति भवन का वह परिसर याद करना चाहिए और क्या दृश्य था, जब गुजरात से सीधा दिल्ली पहुंचा एक व्यक्ति, जो कभी सांसद भी नहीं रहा, सीधा भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेनेवाला था, वह भी याद करना चाहिए. वह घटना ऐतिहासिक थी. सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों की उपस्थिति में नरेंद्र मोदी ने शपथ ली थी. जब वह संसद भवन पहुंचे थे तो सीढ़ियों पर नमन करता उनका ऐतिहासिक दृश्य भी याद करना चाहिए. फिर, आज से उसकी तुलना कीजिए. हम सार्क देशों के बीच कहां हैं, प्रधानमंत्री मोदी कहां हैं, राष्ट्रपति भवन के उस परिसर में क्या हुआ और संसद भवन का परिदृश्य क्या है? इन 9 वर्षों में नरेंद्र मोदी ने खुद को भी और देश को भी बदल दिया.
बदलाव आम लोगों के चेहरे पर नहीं दिख रही है
हमारे पास उपलब्धि के तौर पर गिनाने को कुछ ज्यादा नहीं है. देश के घरेलू हालात हों या विदेशी मोर्चे पर, हमारे पास दिखाने को बहुत कुछ नहीं है. अगर दो अवसरों को छोड़ दें तो जितना सशक्त मैंडेट, जितना सशक्त बहुमत नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को मिला, वह भारत के इतिहास में किसी को नहीं मिला. एक बार आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी को, दूसरी बार इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी को. यह देखना चाहिए कि 2014 या 2019 में जो मैंडेट मिला था, क्या प्रधानमंत्री या बीजेपी ने उसका फायदा उठाया? सरकार की उपलब्धियों को देखें तो क्या मजबूत हुआ है? आपने हाल के दिनों में कोई सर्वे देखा है कि प्रधानमंत्री की लोकप्रियता की बात हो रही हो? जितने भी अंतरराष्ट्रीय सूचकांक हैं, चाहे वह प्रेस फ्रीडम का हो, नागरिकों के चेहरे पर खुशी का हो, आर्थिक मजबूती का हो, उत्पादन का हो, भारत लगातार पीछे होता जा रहा है. कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है, जहां हम बढ़ रहे हैं. हालांकि सरकार दावा करती है कि हम बड़ी अर्थव्यवस्था हो गए हैं, लेकिन वह मजबूती लोगों के चेहरे पर नहीं दिख रही है, रोजगार में नहीं दिख रही है, महंगाई पर लगाम कसने में नहीं दिख रही है और लोगों की खुशहाली में नहीं दिख रही है.
चुनावी नतीजे दिखा रहे हैं कम होती लोकप्रियता
लोगों की खुशहाली दो तरीके से दिखती है- सत्ताधीशों के प्रति नजरिया और चुनावों के दौरान जनता अपनी खुशी या नाराजगी जाहिर करती है. कर्नाटक के चुनाव नतीजे हमें क्या संदेश देते हैं? बल्कि, पिछले दो-चार साल में, खासकर 2019 के बाद जितने भी चुनाव-उपचुनाव हुए, हालिया कर्नाटक से लेकर पंजाब, हिमाचल तक, सत्तारूढ़ दल को हार मिली है. इसको सरकार की लोकप्रियता के संदेश या नाराजगी के तौर पर देखना चाहिए. कई राज्यों से बीजेपी बाहर हो चुकी है. लोकसभा के उपचुनाव देखें तो मंडी का हो या जालंधर का या मैनपुरी का हो, सभी बीजेपी हार चुकी है. एनडीए बिखर चुका है, तमाम साथी छोड़कर जा चुके हैं. बीजेपी की जीत का बुनियादी कारण रहा है कि वह 36-37 फीसदी वोट शेयर पर जीतती रही है. एक और बुनियादी कारण ये रहा है कि इन्होंने अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति को साधा. जैसे, विपक्ष को बांटिए, उनमें झगड़ा लगाइए और उनको कमजोर बनाइए. अगर हम देखें कि विपक्ष में कोई संवाद हो जाता है और बीजेपी के खिलाफ हर सीट पर विपक्ष का उम्मीदवार खड़ा होता है, तो परिदृश्य बदल भी सकता है.
दूसरे, राज्यों का भी परिदृश्य देखने लायक है. क्या भारत में किसी ऐसे प्रधानमंत्री की कल्पना कर सकते हैं जो पांच-छह राज्यों की सीटों के आधार पर पूरे देश का प्रधानमंत्री बनना चाहे, क्या आप किसी ऐसे परिदृश्य की सोच सकते हैं जब बीजेपी किसी भी राज्य में न बचे और नरेंद्र मोदी फिर भी प्रधानमंत्री बने रहें. हम अगर यह भी मान लें कि 2024 में भी नरेंद्र मोदी पीएम बन जाएं और उस दौरान बीजेपी ज्यादातर राज्यों से साफ हो जाए, तो वह स्थिती कैसी होगी? हो सकता है, 2024 तक चीजें बदल जाएं और बदलनी चाहिए, लेकिन अगर चीजें वैसी रहीं तो फिर क्या होगा? एक बात है कि कर्नाटक के नतीजों से बीजेपी और नरेंद्र मोदी के पास एक मौका है कि वो अपने आप में सुधार ले आएं. चुनाव में 10 महीने बचे हैं, हालांकि समय कम है, लेकिन वो खुद को रीलॉन्च तो कर ही सकते हैं और हिंदुत्व की राजनीति का विकल्प सोच सकते हैं.
हिंदुत्व की राजनीति छोड़ करनी होगी विश्वास की राजनीति
बीजेपी और नरेंद्र मोदी को हिंदुत्व की राजनीति छोड़कर विश्वास की राजनीति को पकड़ना होगा. यह डर भी है कि बीजेपी अपने हिंदुत्व के एजेंडे को और आक्रामक तरीके से लागू करे. आप जरा देखिए कि कर्नाटक हिंदू बहुल राज्य है, हिमाचल में 95 फीसदी हिंदू हैं, पंजाब में 40 फीसदी हिंदू हैं, लेकिन बीजेपी हार रही है. इसका मतलब है कि उनका हिंदुत्व का एजेंडा फेल हो रहा है. अब एक बात ये हो सकती है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में हिंदुत्व के एजेंडे पर कायम रहकर वह वापस सत्ता में आ सकती है. 2018 में नरेंद्र मोदी अपनी प्रसिद्धि के चरम पर थे और उसी के चलते 2019 में वह चुनाव जीते भी थे. तो, क्या यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रधानमंत्री का लक्ष्य केवल लोकसभा चुनाव जीतना है और राज्यों में जीत-हार से उनको फर्क नहीं पड़ता, क्या उनको इससे फर्क नहीं पड़ता कि बीजेपी एक पार्टी के तौर पर कितनी ही कमजोर हो जाए, लेकिन पार्टी को ध्वस्त करने की कीमत पर भी वह प्रधानमंत्री बने रहना चाहते हैं. यह बहुत ही विचित्र और भयानक स्थिति है, जो तानाशाही की तरफ हमें ले जा सकती है. बहुमत तो ये है कि कई राज्यों में आप हैं ही नहीं और कुछ राज्यों में सीटें लाकर, या जिसे कहें कि हिंदी पट्टी के राज्य या जहां हिंदुत्व का एजेंडा चलता है, आप प्रधानमंत्री बन भी जाएं, तो यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए सही नहीं है.
2024 में अगर मोदी प्रधानमंत्री बन भी जाते हैं तो यह उनकी या बीजेपी की बड़ी उपलब्धि नहीं होगी. वह जब भी जाएं, चाहे 2024 में जाएं 2029 में जाएं, 2034 में जाएं, लेकिन वह एक बड़े राष्ट्रीय दल को कमजोर कर जाएंगे, यह तो निश्चित तौर पर कहा जा सकता है. बीजेपी का कमजोर होना, देश के लिए अधिक नुकसानदेह है, उसके मुकाबले कि प्रधानमंत्री मोदी दो बार और अपनी सत्ता बचा ले जाएं.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)