2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों से साल भर पहले एक बार फिर तीसरे मोर्चे की कवायद शुरु हो गई है. इस बार पहल की है तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने. उन्हें समर्थन मिला है ममता बनर्जी, हेमंत सोरेन और असदुद्दीन ओवैसी का. ओवैसी ने तो के चंद्रशेखर राव को प्रधानमंत्री पद के लिए भी उपयुक्त उम्मीदवार बता दिया है. जब देश भर में मोदी-मोदी चल रहा हो ऐसे समय में केसीआर ने हवा के खिलाफ चिराग जलाने की हिम्मत दिखाई है.


दरअसल देश के 75 फीसदी हिस्से पर बीजेपी का राज होने के बाद क्षेत्रीय दलों की बेचैनी बढ़ी है. 2014 में केंद्र में बीजेपी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद क्षेत्रीय दलों की  अहमियत घटी है. बीजेपी बार-बार कहती है कि केंद्र और राज्यों में एक ही पार्टी की सरकार होने पर विकास तेज गति से होता है. इस प्रचार के बाद कई राज्यों में बीजेपी को अप्रत्याशित सफलता मिली है. त्रिपुरा में बीजेपी को मिला प्रचंड बहुमत इसकी ताज़ा मिसाल है. कई राज्यों में बीजेपी को कम सीटें मिलने के बावजूद क्षेत्रीय दलों के समर्थन से सरकार बनाने का मौका मिला है. पिछले साल गोवा और मणिपुर में तो हाल ही में नगालैंड और मेघालय में बीजेपी केंद्र की सत्ता के बलबूते ही क्षेत्रीय दलों के हाथ पकड़ कर सत्ता में आई है.


साल 2014 के बाद बीजेपी चुनाव दर चुनाव एक के बाद एक राज्य जीतकर देश भर में फैल गई है. इससे क्षेत्रीय दल बेचैन हैं. गैर बीजेपी शासित राज्यों का आरोप है कि केंद्र में उनकी कोई सुनवाई नहीं है. तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबु नायडू, पश्चिम बंगाल की मुखयंमंत्री ममता बनर्जी लगातार केंद्र सरकार पर सौतेले व्यवहार और अपने राज्यों के हितों की अनदेखी का आरोप लगा रहे हैं. 2014 में मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही के चंद्रशेखर राव मोदी के सुर में सुर मिला रहे थे लेकिन जब केंद्र में उन्हें अहमियत मिलनी बंद हो गई तो उन्होंने मोदी सरकार के खिलाफ क्षेत्रीय दलों को लामबंद करने की मुहिम छेड़ दी है.


तीन उत्तर-पूर्वी राज्यों में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद के चंद्रशेखर राव ने जब राष्ट्रीय राजनीति में गुणात्मक बदलाव के नाम पर तीसरे मोर्चे की चर्चा छेड़ी तो अपने-अपने राज्यों में राजनीति के हाशिए पर पहुंच चुके कई नेता भी राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका की संभावनाएं तलाशने लगे हैं. उत्तर प्रदेश में लोकसभा की दो सीटों पर हो रहे उपचुनाव के साथ विधान परिषद और राज्यसभा चुनाव के लिए एसपी-बीएसपी में गठबंधन हो गया है. एसपी के अध्यक्ष अखिलेश यादव का कहना है कि देश में आर्थिक अराजकता के हालात बन रहे हैं. ऐसे ही हालात प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ देश भर में तमाम दलों को एकजुट होने पर मजबूर कर देंगे.


1989 के बाद लोकसभा के हर चुनाव से पहले तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट सिनेमा हॉल में फिल्म शुरु होने से पहले आने वाली फिल्म के ट्रेलर की तरह जरूरी सी हो गई है. हर चुनाव में इसकी जरूरत और प्रासंगिकता पर चर्चा ज़रूर होती है लेकिन इसके गठन को लेकर कोई गंभीर कोशिश नहीं होती. वैसे भी ज्यादातर क्षेत्रीय दलों के बीजेपी और कांग्रेस के साथ चले जाने बाद से तीसरा मोर्चा एक अधूरा ख्वाब बन कर रह गया है. इस ख्वाब को पूरा करने की कोशिश अलग-अलग मौकों पर कई दिग्गज नेताओं ने की लेकिन किसी को कामयाबी नहीं मिली. देश के मौजूदा राजनीतिक हालात में तीसरे मोर्चे का गठन मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन सा लगता है.


हालांकि आज कई राज्यों में ऐसे दलों की सरकारें हैं जो न बीजेपी के साथ हैं और न ही कांग्रेस के साथ हैं. इनमें पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक, उड़ीसा में बीजू जनता दल, आंध्र प्रदेश में तेलगु देशम, तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति और दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार प्रमुख है. इन राज्यों में कुल मिलाकर 147 लोकसभा सीटें हैं. ये सब दल एक साथ आकर बीजेपी के खिलाफ कोई मोर्चा बनाने की स्थिति में नहीं हैं. इनमें कोई भी दल चुनाव में एक दूसरे को अपना वोट दिलाकर मदद करने की स्थिति में नहीं है. सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के अपने अहं और अपनी महत्वाकाक्षाएं हैं. कोई एक दूसरे को नेता मानने को तैयार नहीं होगा. सभी दलों को अपनी लड़ाई अपने बूते ही लड़नी है.


देश के कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों का कोई वजूद ही नहीं है. इन राज्यों में बीजेपी और कांग्रेस की सीधी टक्कर है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में आज बीजेपी की सरकारें हैं. इनमें उत्तराखंड को छोड़कर किसी भी राज्य में कोई क्षेत्रीय दल नहीं है. उत्तराखंड में भी क्षेत्रीय दल लुप्त होने के कगार पर हैं. इन राज्यों की 110 सीटों पर बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला है. महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन का मुकाबला कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन से है. जम्मू-कश्मीर के दलों की मजबूरी है केंद्र के साथ रहना. सो वहां जो भी बड़ी पार्टी होती है केंद्र में सरकार वाली पार्टी के साथ मिलकर सरकार बना लेती है. यही हाल लोकसभा की 25 सीटों वाले पूर्वोत्तर राज्यों का है. इसी मजबूरी की वजह से पहले मणिपुर और अब मेघालय और नगालैंड में बीजेपी गठबंघन की सरकारें बनी हैं.


देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के दो बड़े दल एसपी और बीएसपी फिलहाल अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं. ऐसे में इनसे देश को नेतृत्व देने के लिए आगे आने की उम्मीद करना मूर्खता ही होगी. कर्नाटक में जनता दल सेक्यूलर की भी यही हालत है. कभी गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेसी तीसरे मोर्चे की अगुवाई करने वाले बिहार के क्षेत्रीय नेताओं में जहां नीतीश और पासवान बीजेपी के पाले में हैं वहीं लालू प्रसाद यादव कांग्रेस का दामन थामे हुए है. कभी लालू यादव प्रधानमंत्री बनने का सपना देखते थे. नीतीश मोदी को टक्कर देने का दावा करते थे. दोनों ने ही हालात के सामने घुटने टेक कर अपनी नीयति स्वीकार कर ली.


के चंद्रशेखर राव को मुख्यमंत्री बने हुए चार साल ही हुए हैं. तीसरे मोर्चे की अगुवाई का सीधा सा मतलब है प्रधानमंत्री पद की दावेदारी करना. उनसे ज्यादा तजुर्बा, चंद्रबाबू नायडू, ममता बनर्जी और नवीन पटनायक का है. तीसरे मोर्चे की सबसे बड़ी दिक्कत यही है. सबसे बड़ा सवाल नेतृत्व का ही खड़ा होता है. नेतृत्व के झगड़े के चलते ही कभी कांग्रेस का विकल्प बनकर उभरा जनता दल इतनी बार टूटा कि सही से गिनती करना भी मुश्किल है. इसी बिखरे हुए जनता परिवार से प्रधानमंत्री पद के दर्जनभर से ज्यादा उम्मीदवार हैं. यह बात अलग है कि इनमें से किसी में भी देश को कोई नई सोच, नई दिशा और नया संकल्प देने की सलाहियत नहीं है.


सच्चाई यह है कि देश में साल 2014 में 30 साल बाद किसी पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी है. इस बीच देश ने गठबंधन सरकारों के कई असफल प्रयोग देखे हैं. कोई भी गठबंधन सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई. 1989 में बीजेपी और वामदलों के बाहरी समर्थन से बनी जनता दल की वीपी सिंह के नेतृत्व वाली सरकार बीजेपी के समर्थन वापसी के कारण गिरी. उसके बाद कांग्रेस के समर्थन से बनी चंद्रशेखर की कठपुतली सरकार को कांग्रेस खुद ही चार महीने से ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर पाई. 1996 में कांग्रेस के समर्थन से बनी संयुक्त मोर्चा की सरकार कांग्रेस ने दो बार गिरा कर तीसरे मोर्चे की राजनीति के ताबूत में आखिरी कील ठोक दी.


साल 1996 में बीजेपी ने 13 दिन की सरकार बनाकर एक सबक सीखा. सबक यह कि केंद्र में गबंधन सरकार चलानी है तो पहले खुद को मजबूत करना होगा. क्षेत्रीय दलों को समर्थन देकर सरकार बनाने से बेहतर है कि उनके समर्थन से अपनी सरकार बनाई जाए. 1998 में बनी वाजपेयी सरकार तेरह महीनों में ही एक वोट से गिर गई. साल 1999 में तीसरी बार बनी वाजपेयी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किए बगैर जल्दी चुनाव कराए. बाजपेयी ने अपने प्रयोग को सही साबित कर दिखाया. 2004 से 2014 तक कांग्रेस ने इसी फार्मूले पर दो बार सरकार बनाई और चलाई. साल 2014 में नरेंद्र मोदी ने एक बड़ा गठबंधन बनाकर कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए को पटखनी दी.


बीजेपी को अकेले पूर्ण बहुमत मिलने के बावजूद मोदी गठबंधन सरकार चला रहे हैं. यह अलग बात है कि उनकी सरकार में सहयोगी दलों की कोई पूछ नहीं है. मन मसोस कर बीजेपी के सहयोगी उसके साथ हैं. अभी बीजेपी के अच्छे दिन चल रहे हैं. देश का मूड बीजेपी को एक और मौका देने का लगता है. कांग्रेस लगातार कमजोर होती जा रही है. ऐसे में बीजेपी के सहयोगी अपनी तमाम अनदेखी के बावजूद उसका दामन छोड़कर न कांग्रेस के पाले में जा सकते हैं और न ही किसी संभावित तीसरे मोर्च में शामिल हो सकते हैं. ताजा राजनीतिक हालात का संकेत यह है कि 2019 में कांग्रेस के साथ मिलकर तमाम छोटे दलों का महागठबंधन भी मोदी को दोबारा सत्ता में आने से रोकने में शायद ही कामयाब हो. ऐसी सूरत में तीसरे मोर्चे की कवायद किसी भी सूरत से व्यावहारिक नहीं लगती.


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