देश की राजनीति के मौसम को समझकर अपना सटीक फैसला लेने वाले दिवंगत केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान की आज 75 वीं जयंती है. उन्हें आधुनिक राजनीति का मौसम-विज्ञानी कहा जाता था क्योंकि सरकार किसी भी दल की हो या गठबंधन की,पासवान उसमें कैबिनेट मंत्री की हैसियत से हमेशा रहे. पिछले साल आठ अक्टूबर को वे दुनिया से विदा हो गये लेकिन अपनी सियासत की लौ को बरकरार रखने के लिये ऐसा 'चिराग' छोड़ गए जिसे बुझाने के लिये बाहर से नहीं बल्कि कुनबे के भीतर से ही एक ऐसी अदावत शुरु हो गई जिसने दिये और तूफान की लड़ाई का रुप ले लिया है.


पासवान की विरासत को संभालने और उसे आगे बढ़ाने के वास्ते उनके बेटे चिराग़ पासवान बेशक अभी युवा हैं लेकिन उन्हें इतना नासमझ भी नहीं कहा जा सकता. यह अलग बात तो है लेकिन बड़ा सवाल भी है कि  उन्होंने अपने पिता से  सियासत का वह नायाब गुर क्यों नहीं सीखा कि आपके दुनिया से रुखसत होने के बाद अगर सगा चाचा ही मेरा सियासी भविष्य चौपट करने पर उतारु हो जाएगा,तो उससे कैसे निपटा जाए.जाहिर है कि चिराग़ ने सपने में भी शायद इस पल के बारे में सोचा नहीं होगा,सो कभी पिता से इस विषय पर चर्चा ही न की हो. लेकिन पुरानी कहावत है कि जर,जोरु और ज़मीन से भी पहले सियासत के जरिये मिलने वाली ताकत ही वो नशा है,जिसका असर चढ़ जाने के बाद उसे उतारना बेहद मुश्किल है.


बिहार से लेकर दिल्ली तक की राजनीति ने आज चिराग़ पासवान को भी उसी दोराहे पर ला खड़ा कर दिया है,जहां उन्हें सही रास्ते की तलाश है. सार्वजनिक रुप से भले ही न बोलें लेकिन वे जानते हैं कि कानूनी दांवपेंच भरी लड़ाई भी अब बस दिखावे के लिए ही होनी है.चूंकि उनके चाचा पारस पासवान को लोकसभा अध्यक्ष ने सदन में लोक जनशक्ति पार्टी का अधिकृत नेता मान लिया है, लिहाजा अब सुप्रीम कोर्ट से भी चिराग को किसी तरह की राहत मिलने की आस रखना बड़ी गलतफहमी ही कही जायेगी. वह इसलिये कि संसद के भीतर होने वाले किसी भी तरह के कार्यकलाप में न्यायपालिका हस्तक्षेप करने से बचती आई है.


अब चिराग़ को अपने राजनीतिक जीवन का सबसे अहम फैसला ये लेना है कि जिस सियासी कद को उन्होंने किसी भी तरह से खोया है,उसे दोबारा पाने के लिए किस रास्ते को चुनना है.चूंकि आज उनके पिता की जयंती है,सो इससे अच्छा अवसर और क्या हो सकता है कि वे किसी अन्य दल के साथ अपनी पार्टी के गठबंधन का एलान करके एक नई ताकत के साथ सियासी नक़्शे पर अपनी अलग पहचान बनायें.अपने चाचा से हुई खटपट और पार्टी के दो फाड़ होने के बाद जिस तरह से उन्हें युवा शक्ति का समर्थन मिला है,उस आधार पर कह सकते हैं कि उनका राजनीतिक भविष्य संभावनाओं से भरपूर है,सो उन्हें बाजी हार जाने की फिक्र तो नहीं ही करनी चाहिये.


कैसा अजब संयोग है कि आज ही लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल यानी आरजेडी का 25 वां स्थापना दिवस भी है. देश की राजनीति में लालू और रामविलास पासवान,दोनों ही जयप्रकाश नारायण आंदोलन की देन हैं.अगर जेपी मूवमेंट न होता, तो शायद देश को पता ही नहीं लग पाता कि बिहार में पिछड़े व दलितों में भी राजनीतिक रुप से जागरुक समझी जाने वाली ऐसी प्रतिभाएं भी हैं.


वैसे भी लालू के बेटे व आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने चिराग़ पासवान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए उन्हें न्योता दिया है कि बिहार के कुशासन के खिलाफ क्यों न मिलकर इस लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाए. अब ये चिराग पासवान को बेहद सूझबूझ से तय करना होगा कि तेजस्वी का साथ पाने से उनका सियासी  कद किस हद तक ऊंचा होगा. उन्हें इस सच को मानना भी चाहिये कि चाचा-भतीजे की इस लड़ाई में सांसदों के संख्या बल के लिहाज से फ़िलहाल वे अकेले पड़ गए हैं और सियासत का फ़लसफ़ा कहता है कि एक और एक हमेशा दो नहीं होते, बल्कि कभी वे 11 की ताकत भी बन जाते हैं. अपने पिता की विरासत को जिंदा रखने के लिए वो ताकत हासिल करना चिराग़ की आज पहली जरुरत होनी चाहिये.



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