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ब्लॉग: शिवसेना सांसद महोदय! आप भी इंसान हैं, भगवान नहीं!!

‘हम कहें सो कायदा’ की नीति शिवसेना ने स्वर्गीय बालासाहेब ठाकरे के उदयकाल से ही अपना रखी थी. बालासाहेब के बाद कार्याध्यक्ष बने उद्धव ठाकरे भले ही आजकल अपने भाषणों में पिता की ही तरह तीक्ष्ण भाषायी तंज और तीव्रता लाने की कोशिश करते हों, लेकिन मा6रपीट की नीति अपने अब तक के कार्यकाल में उन्होंने निजी तौर पर नहीं अपनाई. हालांकि, उनके सांसद रवींद्र गायकवाड़ ने एआईआर के विमान में न सिर्फ इस नीति पर अमल किया बल्कि दिल्ली में इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के कर्तव्यनिष्ठ 60 वर्षीय कर्मचारी शिव कुमार का चश्मा तोड़ने और कमीज़ फाड़ने के बाद यह दावा किया कि उन्होंने उसे चप्पलों से नहीं बल्कि सैंडलों से 25 बार पीटा! गोया कि खड़ाऊं से पीट देते तो पाप कट जाते! ख़ुद शिव कुमार ने कहा है कि अगर हमारे सांसदों का ऐसा व्‍यवहार और संस्‍कृति है तो भगवान हमारे देश को बचाए!

हम यहां व्यापक राजनीतिक गुंडागर्दी के बारे में बात करके मामले को तनु नहीं बनाना चाहते, क्योंकि शिवसेना की संस्कृति इस मामले में शुरू से ही सांद्र रही है. कुछ हिंदी-मराठी वरिष्ठ पत्रकार इसके भुक्तभोगी हैं और मुंबई में मैं ख़ुद इसका गवाह रहा हूं. ईमानदार और विचारवान पत्रकारों पर हमला शिवसेना की संस्कृति में शामिल है लेकिन इसका तीखा विरोध भी होता था. याद आता है कि मुंबई में पत्रकारों पर हुए हमलों के विरोध में 90 के दशक की शुरुआत में ‘मुंबई हिंदी पत्रकार संघ’ ने प्रभाष जोशी, राहुल देव, एन. राम, निखिल वागले जैसे कई प्रतिष्ठित पत्रकारों की अगुवाई में शिवसेना भवन के दरवाज़े पर तंबू गाड़कर धरना-प्रदर्शन किया था, जिसका एक पदाधिकारी मैं भी था. बाद में सार्थक विरोध नदारद हो जाने के चलते पत्रकारों पर शिवसेना के हमले और तीखे हो गए. याद कीजिए, 20 नवंबर 2009 को शिवसैनिकों ने मराठी चैनल आईबीएन–लोकमत और हिन्‍दी चैनल आईबीएन-7 पर पुणे और मुंबई में हमला किया और उनके ऑफिस में जमकर तोड़फोड़ की थी. और यह कोई इकलौता मामला नहीं था, लेकिन किसी ने चूं तक नहीं की!

यह चूँ तक न करना सामने वाले का हौसला बढ़ाता है, जबकि उसकी इतनी हैसियत नहीं होती! यकीनन बालासाहेब की औक़ात बड़ी थी, इसीलिए वह खुलकर हिटलर का अनुयायी होने का दावा करते थे, हिंदू आत्मघाती दस्ता बनाने का आवाहन करते थे, मुसलमानों की तुलना कैंसर की बीमारी से करते थे, फिल्म इंडस्ट्री को जूते की नोक पर रखते थे, वैलेंटाइंस डे पर पार्कों मे पाए गए युवक-युवतियों की पिटाई में धर्मनिरपेक्ष थे, बाबरी मस्जिद विध्वंस में शिवसैनिकों के हाथ होने पर गौरवान्वित महसूस करते थे, अफज़ल गुरु की फांसी पर मुहर न लगाने के लिए सर्वप्रिय राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की आलोचना कर सकते थे, ‘मुंबई सबकी है’ कहने पर उन्होंने सचिन तेंदुलकर को भी नहीं बख़्शा था, 2011 में वर्ल्ड कप फाइनल के लिए भारत–पाकिस्तान के बीच हुए क्वालीफाइंग मुकाबले पर कहा था कि यदि पाकिस्तान मैच जीत गया तो शिवसेना निर्णय करेगी कि पाक फाइनल खेलेगा या नहीं, उन्होंने ‘एक बिहारी, सौ बीमारी’ शीर्षक से 6 मार्च, 2008 को ‘सामना’ का संपादकीय लिखा था- लेकिन बालासाहेब किसी से डरते नहीं थे. उन्हें और उनकी शिवसेना को यह औक़ात मराठी माणुस के दम पर मिली हुई थी. उनका नारा- ‘महाराष्ट्र मराठियों का है’ बेहद अपीलिंग था.

मगर इन चप्पलमारू सांसद महोदय को यह ध्यान में रखना पड़ेगा कि जिन बालासाहेब ठाकरे के पदचिह्नों पर चलने की कोशिश वह कर रहे हैं, वह उनके पैरों की धूल भी नहीं हैं. यूएसए के ‘वाशिंगटन पोस्‍ट’ अख़बार ने बालासाहेब के बारे में लिखा था कि वह शिकागो पर राज करने वाले अल कैपोन की तरह हैं जो बॉम्‍बे पर राज करते हैं. दक्षिण भारतीयों के खिलाफ़ 60 और 70 के दशक में बालासाहेब ने ‘हटाओ लुंगी, बजाओ पुंगी’ अभियान चलाया.  उत्तरभारतीयों को परप्रांतीय कहकर महाराष्ट्र में दोयम दर्जे का नागरिक बनाना चाहा, महाराष्ट्र और कर्नाटक सीमाविवाद को लेकर उग्र आंदोलन किया, वर्ष 1992 में अयोध्‍या में विवादित ढांचा गिराये जाने से ऐन पहले भी बालासाहेब ने सामना में भड़काऊ लेख लिखा. वर्ष 1993 में उन्होंने चुनौती दी कि अगर किसी ने उन्हें गिरफ़्तार किया तो मुंबई जल जाएगी. हम लोगों ने अपनी आंखों से वह ज़माना भी देखा है, जब बालासाहेब के एक आवाहन पर मुंबई थम जाती थी.

वैसे तो 1969 में परेल (मुंबई) के कम्युनिस्ट विधायक कृष्णा देसाई की हत्या के आरोप से लेकर शिवसेना का पूरा इतिहास ही जूतमपैजारऔर हिंसक हमलों से भरा हुआ है. शिवसेना सांसद रवींद्र गायकवाड़ अपवाद नहीं हैं. इस घटना के बाद दिल्ली के फिरोज शाह कोटला में खोदी गई पिच से लेकर दक्षिण और उत्तर भारतीयों को मुंबई में पीटे जाने के कई दृश्य दिमाग में घूम जाते हैं. शिवसेना द्वारा किया गया पाकिस्तानी कलाकारों का तीक्ष्ण विरोध भी जहन में उभरता है. शिवसेना त्यागने के बाद छगन भुजबल और नारायण राणे को ‘बिठोबा’ और ‘कोम्बड़ी चोर’ कहना याद आता है. शिवसेना नेता शशिकांत गणपत कलगुडे एक महिला ट्रैफिक पुलिस को ताबड़तोड़ थप्पड़ मारता दिखाई देता है, 100 वड़ा पाव न देने पर विले-पार्ले में तृप्ति फरसान नाम की दुकान के मालिक को पीटता शिवसैनिक याद आता है.

बालासाहेब हिंसक राजनीति पुरोधा तो थे पर कभी नहीं सुना गया कि खुद बालासाहेब ने किसी को अपने मुंह से गाली दी हो. मांसाहेब मीनाताई को हर शिवसैनिक यूं ही नहीं अपनी मां से बढ़कर मानता था. उनके असामयिक निधन पर बालासाहेब ने गणपति भगवान की मूर्ति मातोश्री की खिड़की से बाहर सड़क पर फेंक दी थी इसके बावजूद पूरा महाराष्ट्र उनके शोक में सराबोर हो गया था. शिवसैनिक होने के नाम पर उन्होंने ‘शिवसेना स्टाइल’ में निबटने का अधिकार तो दिया था, लेकिन किसी बुजुर्ग को चप्पलों से पीटने का अधिकार किसी को नहीं दिया था. उनकी पूरी राजनीति ‘मराठी माणूस’ और ‘मराठी अस्मिता’ पर केंद्रित थी जिसका इस शिवसेना सांसद के कुकृत्य से कोई मेल नहीं है. यह सीधे-सीधे एक वीआईपी, सामर्थ्यवान व्यक्ति का अहंकार और गुंडागर्दी है. एयरलाइनों ने एकजुटता दिखाते हुए खुद को भगवान समझने वाले इन सांसद महोदय के उड़ान भरने को तो बैन कर दिया है, लेकिन देखने की बात यह है कि हर मुद्दे को शिवसेना स्टाइल से निबटाने के पक्षधर उद्धव ठाकरे इनकी चप्पलमार उड़ान रोकने के लिए क्या कार्रवाई करेंगे और कैसी मिसाल पेश करेंगे!

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