वरिष्ठ पत्रकार जितेंद्र दीक्षित का ब्लॉग: इस पोस्ट को पढ़ने के बाद मुझे किसी पार्टी विशेष या विचारधारा का समर्थक मानने की गलती ना करें. बीते 10 साल में मुंबई में जितने भी चुनाव हुए हैं उनमें मैंने अलग-अलग पार्टियों को वोट दिया है. किसी में बीजेपी को, किसी में शिवसेना को, तो किसी में कांग्रेस को. वोट किसे दिया जाए यह तय करते वक्त मैं उम्मीदवार की छवि उसकी पार्टी का मेनिफेस्टो और पिछला क्रियाकलाप देखता हूं. कोई पार्टी मुझे स्थानीय स्तर के लिए योग्य लगती है तो कोई राज्य के लिए और कोई केंद्र के लिए. जब पार्टियां अपने वादों के प्रति, अपनी विचारधारा के प्रति वफादार नही रहतीं तो हम नागरिक किसी एक पार्टी के वफादार क्यों रहें? (अगर आप राजनीति में जाना चाहते हैं तो अलग बात है.)
बहरहाल बात करते हैं बहुतचर्चित फिल्म The Kashmir Files की. रविवार की शाम फिल्म देखने का मौका मिला. दिलचस्प बात ये थी कि सिनेमा घर के बाहर तमाम फिल्मों के पोस्टर लगे थे, जो वहां दिखाई जा रही थी शिवाय The Kashmir Files के. मुझे याद नहीं इससे पहले कौन सी ऐसी फिल्म थी जो सिनेमा घर में तो दिखाई जा रही थी, लेकिन उसके बैनर पोस्टर उस सिनेमा घर के बाहर नहीं लगाए गए. ये बात अपने आप में एक संदेश देती है. जब फिल्म खत्म हुई तो कई महिलाओं को रोते बिलखते देखा. कईयों के चेहरे भाव शून्य थे. सन्नाटे में भीड़ यह सोचते हुए सिनेमाघर से बाहर निकल रही थी कि क्या वाकई में ऐसा नरसंहार कश्मीर में हुआ था? क्या कश्मीरी पंडित इसी तरह से अपने पुश्तैनी घरों से भगाए गए थे? क्या एक इंसान दूसरे के साथ इस हद तक क्रूरता कर सकता है?
मैं पिछले 3 सालों से कश्मीर पर एक किताब को लेकर काम कर रहा हूं, जो शायद अगले महीने तक आ जाएगी. किताब के लिए किए गए रिसर्च के आधार पर मैं कह सकता हूं कि फिल्म में दिखाई गई ज्यादातर घटनाएं सच है. चाहे वह एयरफोर्स के अफसरों की हत्या हो, नादिमार्ग का नरसंहार हो, 19 जनवरी 1990 की वो शाम हो जब कश्मीरी पंडितों को धर्म परिवर्तन करने, भाग जाने या मर जाने का अल्टीमेटम दिया गया था. यह बात भी सही है कि कई पड़ोसियों ने आतंकियों को कश्मीरी पंडितों को मरवाने में मदद की. अपवाद स्वरूप कुछ ऐसे कश्मीरी मुस्लिम भी थे जिन्होंने अपने पंडित पड़ोसियों की जान बचाई.
फिल्म में शरणार्थी कैंप में रह रहे कश्मीरी पंडितों की बदहाली का भी सटीक चित्रण है. वाकई में कई कश्मीरी पंडित कैंपों में सांप बिच्छू के डसे जाने से मारे गए और उन्हें मूलभूत सुविधाओं के लिए संघर्ष करना पड़ता था. ठंडे वातावरण में सदियों से रहने वाले कश्मीरी पंडितों को जम्मू में ऐसे वक्त में जीना पड़ रहा था जहां तापमान 45 डिग्री के ऊपर चला जाता था. इससे कई कश्मीरी पंडित बीमारी से ग्रस्त हो गए.The Kashmir Files कोई डॉक्यूमेंट्री फिल्म नहीं है. फिल्मकार ने नाटकीयता और कलात्मक स्वतंत्रता का सहारा कुछ हद तक जरूर लिया है.
मेरा रिसर्च सिर्फ किताबी ज्ञान पर आधारित नहीं है. पिछले साल आज ही के दिन अपनी किताब को पूरा करने के लिए मैं कश्मीर में था. मैं कई लोगों से मिला जिनमें वे कश्मीरी पंडित भी थे जो अब भी कश्मीर में ही हैं और वे भी जो कि शरणार्थी कैंपों में रह रहे थे.खुफिया और पुलिस विभाग के अधिकारियों से भी मिला. मैंने उस दौर को देखने वाले कश्मीरी मुसलमानों से भी बात की. ज्यादातर कश्मीरी मुसलमान इस अफवाह पर आज भी यकीन करते हैं कि कश्मीरी पंडितों का पलायन तत्कालीन गवर्नर जगमोहन ने कराया था. उनके मुताबिक जगमोहन का प्लान था कि सारे कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से निकालकर सुरक्षित जगह भेज दिया जाए और उसके बाद एयर फोर्स का इस्तेमाल करके कश्मीर में बम गिराया जाएं और सब को मार डाला जाए. जगमोहन ने पलायन रोकने का प्रयास किया या फिर कश्मीरी पंडितों को भागने में मदद की इस बारे में उन्होंने अपनी आत्मकथा My Frozen Turbulence In Kashmir में काफी कुछ विस्तार से और सबूतों के साथ लिखा है. मेरा मानना है कि जिनको इस विषय पर और ज्यादा जानने की उत्सुकता हैं वे उनकी आत्मकथा जरूर पढ़ें. पढ़ते वक्त यह बात भी ध्यान रखें कि आत्म कथाएं अक्सर खुद को क्लीन चिट दिए जाने के लिए भी लिखी जाती हैं.
मुझे ये नहीं मालूम कश्मीर फाइल्स को किसी पार्टी या विचारधारा विशेष के प्रोपेगेंडा के लिए बनाया गया है या नहीं लेकिन मैं इतना कहूंगा कि इस जैसी फिल्म कभी न कभी बननी ही थी. सच का चरित्र है कि वो देर सबेर किसी न किसी तरह खुद को सतह पर ले आता है. कश्मीरी पंडितों के दर्द का इससे बेहतर पुरजोर चित्रण आज तक किसी ने नहीं किया. जब कश्मीरी पंडितों का नरसंहार हो रहा था तब ना तो सोशल मीडिया था और ना ही चौबीसों घंटे चीखने चिल्लाने वाले न्यूज़ चैनल लेकिन अब ये सबकुछ है. ये दुखद सत्य है कि हमेशा अल्पसंख्यक, दबे कुचले लोगो के लिए आवाज उठाने वाले तबके ने कभी दिल से कश्मीरी पंडितों की त्रासदी के लिए आवाज नहीं उठाई. इनमे से कुछ का दिल आज भी म्यांमार से भगाए गए रोहिंगों के लिए पसीजता है. अगर किसी ने कश्मीरी पंडितों की त्रासदी की बात की तो उसे Right Winger Propagandist कहकर खारिज कर दिया गया.
भूलिए मत कश्मीरी पंडित कश्मीर में अल्पसंख्यक थे. कई लोग कह सकते हैं कि पंडित अल्पसंख्यक होने के बावजूद संपन्न थे और मुसलमान बहुसंख्यक होने के बावजूद गरीब. इससे दोनो समुदायों के बीच नफरत की खाई थी. ये भी अर्धसत्य है. कश्मीर को पढ़ेंगे तो पाएंगे कि कुछ पंडित जरूर ऐशो आराम से जीते थे लेकिन ज्यादातर का हाल वहां के मुसलमानों के जैसा ही रहा. कश्मीरी पंडितों को अभी भी अपने घर लौटने का इंतजार है. हो सकता है इस फिल्म के मार्फत कोई हलचल हो और उनके लिए न्याय की कवायद शुरू हो. एक और बात. मैं इस फिल्म को टैक्स फ्री करने के बिलकुल खिलाफ हूं. उल्टा मेरा सुझाव है कि हर टिकट पर 10 ₹15 का टैक्स बढ़ा दिया जाना चाहिए और इस अतिरिक्त पैसे को विस्थापित कश्मीरी पंडितों की मदद में लगाया जाना चाहिए.
मैं कोई फिल्म समीक्षक नही हूं लेकिन एक दर्शक के नाते बताना चाहूंगा कि फिल्म में बोरियत भरे क्षण भी हैं. खासकर अंत से पहले छात्र नेता करण पंडित का भाषण कुछ ज्यादा ही लंबा खिंचता है. अगर आपने ये फिल्म नहीं देखी है तो जरूर देखें और देखते वक्त इस बात को भुला कर देखें कि अनुपम खेर राइट विंगर हैं, उनकी पत्नी बीजेपी सांसद है और फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री भगवा एजेंडा से प्रभावित हैं.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)