लॉकडाउन की वजह से जगह-जगह फंसे जो मजदूर सड़कों पर या रेल की पटरियों पर पैदल चलकर अपने गृहराज्य लौट रहे हैं, उन्हें अब स्वार्थी और विलेन के तौर पर पेश करने की कोशिश हो रही है. शुक्रवार की सुबह कई ऐसे मजदूरों की महाराष्ट्र के औरंगाबाद में मालगाड़ी से कटकर मौत हो गई थी.


कुछ लोग आरोप लगा रहे हैं कि मजदूर मुसीबत पड़ने पर उन शहरों को छोड़कर भाग रहे हैं जिन्होंने उन्हें रोजी रोटी दी. गुरूवार को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने राज्य की सभी राजनीतिक पार्टियों की एक बैठक बुलाई थी.


इस बैठक में नफरत की सियासत करने के लिये कुख्यात एक राजनेता ने मुंबई छोड़कर लौट रहे मजदूरों की निंदा की और कहा, '' मैं पहले से ही कहता था कि मुसीबत पड़ने पर ये लोग निकल जाएंगे.  हर जगह पर मानवता, मानवता और मानवता नहीं चल सकती. दूसरे देशों में जब तुम जाते हो तो मानवता वगैरह नहीं देखी जाती. आज ये मुफ्त वापस भेजे जाने की मांग कर रहे हैं. कल ये मुफ्त वापस बुलाये जाने की मांग करेंगे. आज तुमको तुम्हारे घर की याद आ रही है इसलिये जा रहे हो. कल रोजगार की जरूरत पड़ेगी तो फिर महाराष्ट्र में आओगे."


ऐसे वक्त में जब मजदूरों के प्रति सहानुभूति पूर्ण नजरिया अपनाया जाना चाहिये, इस राजनेता की ये प्रतिक्रिया चौंकाती है. वैसे इस राजनेता के अलावा भी कई लोग हैं जो कि मुंबई छोड़कर अपने गृहराज्य लौटना चाह रहे लोगों को नकारात्मक नजरिये से देख रहे हैं. ये वे लोग हैं जिन्हें बड़े आराम से तीन वक्त का खाना मिल रहा है, चाय-कॉफी मिल रही है और जिनके सामने अपना रोजगार जाने का कोई डर नहीं है.


इन लोगों ने कड़ी धूप में रोजाना 50 से 60 किलोमीटर पैदल चल रहे मजदूरों की पीड़ा नहीं देखी है. कोई उत्तर भारत में अपने गांव 1200 किलोमीटर का फासला तय करने निकला है तो कोई 1500. मुंबई नासिक हाईवे पर पैदल चल रहे लोगों का हुजूम नजर आता है. जिनमें बूढ़े, बच्चे और महिलाएं भी हैं. कहीं खाना या पानी कोई दे देता है तो कहीं इन्हें भूखे प्यासे ही आगे बढ़ना पड़ता है.


क्या वजह है कि ये लोग इतना लंबा फासला पैदल तय करने की कोशिश कर रहे हैं. वजह है डर. ये डर ही है जो कि इनके कदमों को आगे बढ़ने के लिये मजबूर करता है. डर भुखमरी का. डर बीमारी का. डर अपने बच्चे को दूध के लिये बिलखते देखने का. डर अपने परिजनों को मरते देखने का. डर रोजगार छिन जाने का.


हालांकि महाराष्ट्र सरकार लगातार दावा कर रही है वो मजदूरों की देखभाल कर रही है. उन्हें खाना उपलब्ध करवा रही है लेकिन क्या ये सरकारी मदद लाखों की तादाद में मौजूद सभी मजदूरों तक पहुंच पा रही है. अब तक कई समाज सेवी संस्थाएं ऐसे लोगों को खाना पहुंचा रही थी लेकिन अब उनके फंड और संसाधन भी खत्म हो रहे हैं. जो खाना आ भी रहा है उसके वक्त का कोई भरोसा नहीं रहता. ऐसे में इन मजदूरों के सामने यही सवाल है कि वे कब तक सरकार और समाजसेवी संस्थाओं के भरोसे रहेंगे. कईयों का यही मानना है कि ऐसी हालत में जीने से अच्छा है कि गांव लौट जाया जायें.


हालांकि दूसरे राज्यों के मजदूरों को वापस भेजने के लिये ट्रेनें और बसें चलाईं जा रहीं है लेकिन उनकी संख्या पर्याप्त नहीं. इसके अलावा मुंबई की कोरोना कैपिटल की इमेज को देखते हुए दूसरे राज्य की सरकारें भी यहां से मजदूरों को बुलाने से हिचकिचा रही हैं. नई नई शर्तें महाराष्ट्र सरकार के सामने दूसरे राज्यों की सरकारें पेश कर रहीं हैं.


मुंबई से प्रवासी मजदूरों को वापस भेजना बेहद जरूरी इसलिये है क्योंकि ऐसे ज्यादातर मजदूर झुग्गी बस्तियों में रहते हैं जहां सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन नहीं हो पा रहा. ऐसी झुग्गियों में संक्रमण सबसे ज्यादा फैल रहा है. मजदूर अपने गृहराज्य लौटेंगे तब ही कोरोना के खिलाफ जंग में रफ्तार आयेगी लेकिन उनकी पीड़ा के प्रति आंखें मूंदे लोग उन्हें विलेन के तौर पर पेश कर रहे हैं.