एक्सप्लोरर

अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी और साम्राज्य का अहंकार

Afghanistan Crisis: तीन दिन भी नहीं बीते हैं, जब अमेरिकी अखबारों में अफगानिस्तान में फलीभूत हो रही घटनाओं के सिलसिले में विदेश नीति के ‘विशेषज्ञों’ के हवाले से छाप रहा था कि 30 दिन से पहले तालिबान काबुल पर कब्जा नहीं कर पाएंगे. छह दिन पहले एक अमेरिकी सैन्य विशेषज्ञ का विश्लेषण था कि काबुल को दुश्मनों के हाथों में जाने के लिए करीब 90 दिन लग सकते हैं, और जून में अमेरिकी विश्लेषकों ने भविष्यवाणी की थी कि अमेरिकी सेनाएं अफगानिस्तान से निकलने की योजना को अमली जामा पहना दें तो अशरफ गनी के नेतृत्व वाली सरकार छह से बारह महीनों में गिर जाएगी. इनमें से कई विशेषज्ञ और सार्वजनिक मामलों के टिप्पणीकार बीते कुछ हफ्तों में तालिबान द्वारा एक के बाद शहरों को जीतते देख कर समझ चुके होंगे कि अमेरिकी सैन्य खुफिया विभाग और विदेश मंत्रालय के अनुमान पूरी तरह गलत निकले. सबसे विचित्र बात तो यह कि आठ जुलाई को व्हाइट हाउस की प्रेस कॉन्फ्रेंस में बाइडेन पूरे जोर से यह बात समझाने और स्थापित करने में लगे थे कि अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान से अपनी सेनाएं वापस बुलाने का यह मतलब नहीं कि उन्होंने यह देश तालिबान के हवाले कर दिया है. सवाल उछल रहे थेः

सवालः मिस्टर प्रेसिडेंट क्या आप तालिबान पर भरोसा करते हैं?

सवालः क्या अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे को किसी प्रकार से नहीं रोका जा सकता?

प्रेसिडेंटः नहीं. ऐसा, बिल्कुल नहीं है.

सवालः क्यों?

प्रेसिडेंटः क्योंकि अफगानिस्तान के पास 75 हजार तालिबान के विरुद्ध तीन लाख सैनिकों वाली सशक्त हथियारों से लैस सेना है, जैसी दुनिया के तमाम देशों के पास है. साथ ही हवाई सेना भी है. ऐसा नहीं कि तालिबान को रोका नहीं जा सकता.

यह कोई पहला मौका नहीं है कि अमेरिकी सैन्य विश्लेषक, नीति निर्धारक और असंख्य ‘विशेषज्ञ’ पूरी तरह अयोग्य साबित हुए. जिस 11 सितंबर के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन हमले में भले ही सद्दाम हुसैन की कोई भूमिका नहीं थी, उसने इसे निश्चित ही ‘सबसे बड़ा’ प्रहार माना होगा और यहां अमेरिकी पूरी तरह गच्चा खा गए थे तथा बदला लेने के लिए उन्होंने अफगानिस्तान पर हमले किए, जहां उनका मानना था कि इस घटना का मास्टरमाइंड ओसामा बिन लादेन छुपा बैठा है. तत्कालीन राष्ट्रपति बुश ने घोषणा की कि आतंकी हमलों के अपराधियों को पकड़ कर इंसाफ करने के लिए अमेरिका धरती के आखिरी छोर तक जाएगा और जरूरत पड़ी तो अमेरिकी सैनिक पहाड़ियों में उनका धुआं निकाल देंगे. बदला यीशु का रास्ता नहीं हो सकता मगर तब भी यह बाइबिल सम्मत है. अमेरिका ने भले ही ‘न्याय’, ‘मानवाधिकार’ और ‘आतंकवाद का अभिशाप’ जैसे पावन शब्दों और मुहावरों का इस्तेमाल करते हुए इस हमले को ‘विश्व समुदाय’ पर आक्रमण बता कर अफगानिस्तान पर युद्ध थोपा, मगर इसमें जरा संदेह नहीं था कि अमेरिका खून का प्यासा है. 1812 में ब्रिटिश सेनाओं द्वारा वाशिंगटन डीसी को जला देने के बाद से अमेरिका की धरती पर कभी हमला नहीं हुआ था और अमेरिकियों के लिए यह राहत की बात थी कि वह किसी तरह शीत युद्ध से सकुशल निकलने में कामयाब रहे, जबकि सोवियत साम्राज्य बिखर गया लेकिन अब उन्हें इस्लामी आतंकियों के ऐसे समूह से मुंह की खानी पड़ी है, जो उस देश में छुपे थे जिसे कई अमेरिकी विद्वान अक्सर ‘आदिम लोगों की दुनिया’ बताया करते हैं.

अफगानिस्तान पर 2001 में अमेरिकी हमले के साल भर के भीतर बिन लादेन वहां से किसी अन्य देश में निकल गया था. बाद में करीब एक दशक बाद उस देश की पहचान पाकिस्तान के रूप में हुई. बीती सुबह (16 अगस्त) को बाइडेन ने इंकार किया है कि अमेरिका किसी ऐसे मिशन पर था, जिसका लक्ष्य अफगानिस्तान को एक ‘संयुक्त केंद्रीकृत लोकतंत्र’ बनाने की परिस्थितियां तैयार करना था. उन्होंने कहा कि ‘अफगानिस्तान में हमारा लक्ष्य कभी भी राष्ट्र-निर्माण नहीं था.’ अफगानिस्तान से बाहर निकलने के निर्णय के औचित्य पर यह विहंगम नजरिया एक साथ सही और गलत दोनों है. बाइडेन कितना ही इंकार करें लेकिन राष्ट्र-निर्माण की बयानबाजी निःसंदेह थी, जिसके बहाने अमेरिकी सेना पर वहां आधा-अधूरे कब्जे के बावजूद लगातार दिन-ब-दिन बढ़ते खर्चों को प्रशासन जायज ठहरा रहा था. बुश प्रशासन के राष्ट्र-निर्माण के विस्तृत प्रोजेक्ट का विरोध करते हुए ओबामा प्रशासन ने पहले ही अपने कोर मिशन को स्पष्ट कर दिया था कि वह ‘अलकायदा को पाकिस्तान और अफगानिस्तान में परास्त और नष्ट कर देना चाहते हैं. वह उसकी ऐसी स्थिति कर देना चाहते हैं कि वह भविष्य में इन देशों में कभी लौट न सके’, लेकिन इसके साथ यह भी साफ जाहिर था कि यह लक्ष्य अफगानिस्तान में लोकतंत्र की स्थापना के बगैर संभव नहीं है. भले ही वह लोकतंत्र बहुत विकसित न हो. इस प्रकार, इन मायनों में बाइडेन का कल का बयान न केवल गलत है बल्कि यह ओबामा के ‘कोर मिशन’ की कमोबेश नाकामी बताता है, जिसका संबंध राष्ट्र-निर्माण से ही है. जिसे भले ही आंशिक रूप से, स्वीकार किया जाना चाहिए.

दो दशक बाद सत्ता में तालिबान की अभूतपूर्व वापसी के सभी आयामों को भले ही नहीं मगर कुछ को वर्तमान के अफगानिस्तान के परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश हम कर सकते हैं. यह आज और भविष्य में न केवल अफगानिस्तान बल्कि शेष विश्व के लोगों के लिए भी आवश्यक है. अब बंद हो चुकी द लिटिल मैगजीन (सितंबर-अक्तूबर 2001 अंक) में मैंने बीस साल पहले एक लेख लिखा थाः टेररिज्म, इंकः द फैमिली ऑफ फंडामेंटलिज्म्स. इसमें मैंने लिखा था कि अमेरिकियों को पहले ही ‘यह चेतावनी दी जा चुकी थी कि बीती सहस्राब्दि में अफगानिस्तान को कभी नहीं जीता जा सका और यह उनका कब्रिस्तान बनेगा. अफगानों को जीतने में ब्रिटिश नाकाम रहे, सोवियत भी उनके भयावह इलाकों में उलझ कर फंस गए थे और यह तमाम महाशक्तियों की किस्मत ही रही कि वह हठी अफगानों के आगे पस्त पड़ गए.’ यह बात किसी ठप्पे जैसी हो सकती है कि अफगानिस्तान ‘साम्राज्यों का कब्रगाह’ है, खास तौर पर आधुनिक साम्राज्यों के लिए. लेकिन खुद तालिबान कहते हैं कि उनकी विजय अफगानों के इस प्रण का नतीजा है कि वे किसी पराई शक्ति द्वारा शासित नहीं होंगे. कोई सोच सकता है कि अपने अतीत को अपने हाथों से रचने के गर्व से भरे अमेरिकी इस बात में शायद तालिबान के साथ कोई समानता महसूस करें. अफगानिस्तान ‘साम्राज्यों का कब्रगाह’ है, जैसे विचार पर अमेरिकियों ने कभी हिसाब-किताब नहीं लगाया और न ही यह उनके विमर्श का मुद्दा बना, यहां तक कि उन चुनिंदा समूहों में भी यह बात नहीं हुई, जो अमेरिकी विदेश नीति के तीखे आलोचक हैं.

तालिबानों का अपने विरोधियों को धूल चटाना और सरकार को चंद दिनों में देखते-देखते गिरा देना सिर्फ इस धारणा से तय नहीं किया जा सकता कि वहां नाकाम होना अमेरिकियों की किस्मत में बदा था क्योंकि अफगान कभी विदेशियों के आधिपत्य को स्वीकार नहीं करेंगे. यहां कई नजरिये सक्रिय हैं. अपने पिछले आलेख में मैंने तालिबान को ऐसे लोगों/समूह के रूप में बताया था, जिन्हें कोई देश नहीं स्वीकारता. यहां पर हम मानवविज्ञानी जेम्स स्कॉट के शानदार काम से देश-की-धरती और देश-विहीन-धरती की व्याख्या समझ सकते हैं. हकीकत से भरा तथ्य यह है कि अफगानिस्तान जैसे देश में सत्ता की पहुंच सीमित होती है और अमेरिकी बीस साल में वहां की पूरी धरती को नहीं नाप सके. इस देश में बड़ा भू-भाग है, जहां सरकार की पहुंच नहीं है. मगर वह है, और अदृश्य है. यह भू-भाग ऊबड़-खाबड़, अपरिष्कृत, जटिल और अभेद्य है. यहां सरकार द्वारा अन्य जगहों पर पहुंचाई जा सकने वाली सुविधाएं-तकनीक नहीं पहुंच पाती हैं. इसके कई नतीजा निकल कर आते हैं. जिनमें से एक है, तालिबान. तालिबान इन इलाकों से बहुत ढंग से परिचित है और अफगानों के कई स्थानीय कबीलों के साथ उसका परस्पर विश्वास का संबंध है. इन जगहों की अमेरिकियों को कोई खबर नहीं है और तालिबान यहां शरण ले सकते हैं. सरकार होने के बावजूद इस देश-विहीन-धरती के कई दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक पहलू हैं, जिनमें सबसे प्रमुख यह कि ये भू-खंड सत्ता के किसी तर्क को नहीं मानते और इस तरह शासकों की उन महारतों/नियंत्रण को नाकाम कर देते हैं, जिसे अमेरिका जैसे देश लंबे प्रयासों से तकनीक की मदद से हासिल करते हैं.

इसी संदर्भ की दूसरी बात अफगान सुरक्षा बलों की तथाकथित विफलता से जुड़ी है, जिसे एकदम नई वर्तनी के रूप में देखा जाना चाहिए. यह राजनीतिक भाषा के नए पाठ पढ़ाती है, फिर चाहे आप दक्षिण, केंद्रीय या वामपंथी क्यों न हों. अफगान सैनिक जैसे सूखी पत्तियों की तरह झरे, उसे देख कर हर कोई हैरान है. अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन लगातार ‘अफगान सेना की अपने देश को न बचा पाने की नाकामी’ पर बोलते रहे और उन्होंने गहरी उदासी से यह बात कही कि अफगान सेना ने आसानी से घुटने टेक दिए. ‘कई बार तो बिना लड़े ही.’ तालिबान कोई एक संगठन नहीं है और उनकी सुनिश्चित संख्या भी किसी को नहीं पता लेकिन एक विस्तृत अनुमान है कि उनकी संख्या अधिक से अधिक डेढ़ लाख हो सकती है. इसके बरक्स अफगान सुरक्षा सेनाओं में तीन लाख सैन्य बल है और कई वर्षों से उनकी ‘ट्रेनिंग’ पर अरबों डॉलर खर्च किए गए. बावजूद इसके अधिकतर शहरों से यही खबरें आई कि तालिबान का आंशिक या बिल्कुल विरोध नहीं हुआ. जब वे काबुल के चार प्रमुख दरवाजों से अंदर आए तो उन्हें किसी प्रतिकार का सामना नहीं करना पड़ा. काबुल में प्रवेश करने से बहुत पहले या फिर कंधार, मजार-ए-शरीफ और जलालाबाद समेत अन्य कई छोटे शहरों में घुसने से पूर्व तालिबान को एक गोली तक नहीं चलानी पड़ी. राजधानी में भी यही हुआ. कहा जा रहा है, ऐसा इसलिए हुआ कि तालिबान ने प्रभावशाली स्थानीय नागरिकों और सुरक्षाबलों से पहले ही सांठगांठ कर ली थी. छोटी-मोटी झड़प या बगैर किसी लड़ाई के तालिबान ने न केवल अपनी राह इन शहरों में बनाई बल्कि उनके सामने बिना किसी प्रतिरोध के हथियारों का समर्पण भी हुआ. उन्हें बड़ी संख्या में सैन्य वाहन, हथियार, गोला-बारूद, ग्रेनेड, मोर्टार, तोपखाना और रॉकेट लॉन्चर हाथ लगे. अफगानिस्तान सेना पर नियंत्रण के बाद तालिबान के पास अब एक बड़ी फौज के साथ टैंक, 200 फाइटर जेट और हेलीकॉप्टर भी हैं. अफगान सैनिकों के इस आचरण को कोई वहां की भ्रष्ट व्यवस्था का जिम्मेदार मान रहा है और कोई इसे सुरक्षाबलों की अनुशासनहीनता बता रहा है. कुछ का तर्क है कि वर्दीधारी अफगान अपनी जान के लिए डर गए और उन्होंने बिना लड़े आत्मसमर्पण करने का आसान विकल्प चुना.

इन तर्कों में कुछ तो बिल्कुल शिथिल हैं और कुछ ‘स्थानीय’ लोगों के भ्रष्टाचार की पुरानी बातों का दोहराव हैं. भ्रष्टाचार क्या होता है, यह जानने के लिए किसी को अमेरिका में ट्रंप के व्हाइट हाउस में मिशिगन वालों और कुलीनों को देखना चाहिए. मगर यह एक अलग विषय है. अफगान सुरक्षाबलों का अचानक गायब हो जाना, पठानों और अफगानों की उस पारंपरिक छवि से मेल नहीं खाता, जिसमें वह जबर्दस्त लड़ाके नजर आते हैं और जिनकी राइफल को उनसे जुदा नहीं किया जा सकता. लेकिन यह समझना होगा कि ‘प्रशिक्षित’ अफगान सैनिकों का क्या मतलब है? एक अमेरिकी फौजी औसतन 27 पौंड के साजो-सामान अपने पास रखता है और कुछ तो 70 पौंड तक साथ लिए चलते हैं. इसके बरक्स अफगान सैनिक के पास आपको एक राइफल और कुछ राउंड गोलियां ही मिलेंगी. जब आप एक अफगान योद्धा और अमेरिकी सैनिक को साथ-साथ खड़ा करेंगे तो अफगान कुछ हास्यास्पद नजर आ सकता है, किसी फूले हुए सामान्य अमेरिकी पुलिसवाले की तरह. जो कुछ-कुछ बोझिल और आलू की बोरी की तरह भी दिख सकता है. यह बात हालांकि थोड़ी उद्दंडता का आभास दे सकती है मगर अफगान-पुरुषों ‘नागरिकों’ और ‘तालिबान’ में बहुत स्पष्ट फर्क नहीं दिखाई देता है. दोनों समान रूप से राइफल संस्कृति में पैदा होते हैं, आपसी नातेदारियों में उस ऊबड़-खाबड़ भू-भाग से वह परिचित होते हैं. ऐसे में उन्हें वहां से निकाल कर सीधे ‘सैनिकों’ के उस वेश में ले आना कठिन है, जैसे सैनिक हमारी आधुनिक सैन्य धारणाओं में हैं. इसके विपरीत वास्तव में अमेरिकियों को वहां पर ट्रेनिंग लेनी चाहिए थी. शायद ही किसी अमेरिकी सैनिक या उनके कमांडिंग ऑफिसर और जनरल ने अफगानिस्तान में बोली जाने वाली कोई भाषा सीखी होगी. इस देश का इतिहास तो उनके लिए बिल्कुल अपरिचित होगा. यह आश्चर्यजनक नहीं कि एक अमेरिकी सैनिक दुनिया के अधिकांश हिस्सों में अपने देश की तरह ही दूसरे के प्रति उदासीनता दिखाता है, साथ ही जिसे हम तकनीकी भ्रम कहते हैं, वह उसमें यह अभिमान पैदा करता है कि तकनीक किसी की प्रकार की कमी की भरपाई कर सकती है.

मैं पहले ही बता चुका हूं कि अफगानों के बीच चाहे जो मतभेद हों और जातीय समूहों में आपसी दुश्मनियां हों, अमेरिकियों को वहां साफ तौर पर विदेशियों के रूप में ही देखा गया. ऐसी फौज के रूप में, जिसने उनकी जमीन पर कब्जा जमा रखा है. जैसा मैंने कहा कि तालिबानों ने स्थानीय समुदायों के साथ पहले से सांठगांठ कर ली होगी, लेकिन अफगानों का इतिहास है कि वह हमेशा केंद्रीय सत्ता के प्रतिरोध में खड़े रहते हैं और इस कसौटी पर देखें तो इसमें कोई संदेह नहीं कि एक बार तालिबान सत्ता में पहुंचे और उन्होंने ‘सरकार’ की तरह काम करना शुरू किया तो उन्हें विरोध का सामना करना ही पड़ेगा. इस बात को बढ़ा-चढ़ा कर कहना कठिन जरा होगा कि अमेरिकियों को मुक्तिदाता के रूप में देखने में ज्यादातर अफगानों ने पूरी उदासीनता बरती. कई लोगों को यह बात बुरी लग सकती है मगर खास तौर पर अमेरिकियों की भूमिका देखें तो वह अपनी कल्पना में अफगान महिलाओं और लड़कियों को कड़े-बेगार परिश्रम, यौन उत्पीड़न, अशिक्षा और गुलामी से आजाद करा रहे थे. अफगानिस्तान में लिंग-भेद, तालिबान और अमेरिकी कब्जे के साथ यह पूरा मिशन बहुत अहम है और इस संबंध में मैं अगले आलेख में लिखूंगा क्योंकि यह विस्तार से विचार किए जाने की अपेक्षा करता है. वर्तमान में हालांकि तालिबान का पुनरुत्थान और वापसी न केवल उन लोगों के लिए कड़े सवाल पैदा करती है, जो पूरी दुनिया में लोकतंत्र को बढ़ावा देना चाहते हैं और जिन्हें यह विचार अत्यंत प्रिय है कि मनुष्य की आजादी की आकांक्षा का उच्चतम शिखर ‘लोकतंत्र’ है. साथ ही तालिबान की यह वापसी उन लोगों से भी कुछ सवाल करती है जो संसार के स्थापित लोकतांत्रिक देशों में निवास करते हैं. यह कड़वा सच है कि आज दुनिया भर के लोकतंत्र गंभीर, बल्कि अभूतपूर्व तनाव के दौर से गुजर रहे हैं. दुनिया के स्थापित लोकतंत्रों में संकट की सबसे खराब तस्वीर संभवतः अमेरिका में नजर आती है. हर प्रकार से आज प्रत्येक देश में ‘गणतंत्रवादी’ अपने यहां के तालिबान हैं. विश्व के लिए अब यह विचार करने का समय है कि क्या अफगानिस्तान का तालिबान के हाथों में चले जाना इस अमंगल की पूर्व-सूचना नहीं है कि पूरी दुनिया में लोकतंत्र जैसे अभूतपूर्व विचार का पतन नजदीक दिखाई दे रहा है.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

एक महाशक्ति का अपमानजनक अंत : रन, अमेरिका, रन

और देखें

ओपिनियन

Advertisement
Advertisement
25°C
New Delhi
Rain: 100mm
Humidity: 97%
Wind: WNW 47km/h
Advertisement

टॉप हेडलाइंस

कड़ाके की ठंड की होने वाली है एंट्री! यूपी-हरियाणा में घने कोहरे का अलर्ट तो इन 11 राज्यों में होगी भीषण बारिश
कड़ाके की ठंड की होने वाली है एंट्री! यूपी-हरियाणा में घने कोहरे का अलर्ट तो इन 11 राज्यों में होगी भीषण बारिश
छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा ढहने का मामला, चेतन पाटिल को HC ने दी जमानत
छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा ढहने का मामला, चेतन पाटिल को HC ने दी जमानत
Shah Rukh Khan Death Threat: शाहरुख खान को मारने की धमकी देने वाले शख्स के थे ये खतरनाक मंसूबे, हुआ खुलासा
शाहरुख खान को मारने की धमकी देने वाले शख्स के थे ये खतरनाक मंसूबे, हुआ खुलासा
Photos: भारत या ऑस्ट्रेलिया, कौन है बॉर्डर-गावस्कर ट्रॉफी का असली किंग? जानें किसने जीती कितनी सीरीज
भारत या ऑस्ट्रेलिया, कौन है बॉर्डर-गावस्कर ट्रॉफी का असली किंग? जानें किसने जीती कितनी सीरीज
ABP Premium

वीडियोज

Indore: ब्रेक की जगह दबा दिया एक्सीलेटर...इंदौर में बड़ा हादसा | Madhya Pradesh | ABP NewsLatest News: टोल प्लाजा को लेकर मेरठ में मचा 'गदर' | Delhi–Meerut Expressway | ABP NewsTop News: 3 बजे की बड़ी खबरें | Gautam Adani Bribery Case | Maharashtra Exit Poll | Rahul GandhiGautam Adani Bribery Case : हिंदुस्तान अदाणी जी के कब्जे में है - राहुल गांधी हमला | Rahul Gandhi

पर्सनल कार्नर

टॉप आर्टिकल्स
टॉप रील्स
कड़ाके की ठंड की होने वाली है एंट्री! यूपी-हरियाणा में घने कोहरे का अलर्ट तो इन 11 राज्यों में होगी भीषण बारिश
कड़ाके की ठंड की होने वाली है एंट्री! यूपी-हरियाणा में घने कोहरे का अलर्ट तो इन 11 राज्यों में होगी भीषण बारिश
छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा ढहने का मामला, चेतन पाटिल को HC ने दी जमानत
छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा ढहने का मामला, चेतन पाटिल को HC ने दी जमानत
Shah Rukh Khan Death Threat: शाहरुख खान को मारने की धमकी देने वाले शख्स के थे ये खतरनाक मंसूबे, हुआ खुलासा
शाहरुख खान को मारने की धमकी देने वाले शख्स के थे ये खतरनाक मंसूबे, हुआ खुलासा
Photos: भारत या ऑस्ट्रेलिया, कौन है बॉर्डर-गावस्कर ट्रॉफी का असली किंग? जानें किसने जीती कितनी सीरीज
भारत या ऑस्ट्रेलिया, कौन है बॉर्डर-गावस्कर ट्रॉफी का असली किंग? जानें किसने जीती कितनी सीरीज
‘इंडिया की बाइक्स चला रहे और पाकिस्तानियों पर लगा दिया बैन‘, यूएई के शेख पर भड़की PAK की जनता
‘इंडिया की बाइक्स चला रहे और पाकिस्तानियों पर लगा दिया बैन‘, यूएई के शेख पर भड़की PAK की जनता
लड़कों से रेस लगा रही थी लड़की, स्टाइल दिखाने के चक्कर में हो गया छीछालेदर, देखें वीडियो
लड़कों से रेस लगा रही थी लड़की, स्टाइल दिखाने के चक्कर में हो गया छीछालेदर, देखें वीडियो
ट्रंप का अमेरिका में मास डिपोर्टेशन का प्लान, लेकिन 1 करोड़ 10 लाख लोगों को निकालना नहीं आसान
ट्रंप का अमेरिका में मास डिपोर्टेशन का प्लान, लेकिन 1 करोड़ 10 लाख लोगों को निकालना नहीं आसान
सिरसा: साइड नहीं देने पर स्कूल वैन पर ताबड़तोड़ फायरिंग, नाबालिग समेत 4 घायल
सिरसा: साइड नहीं देने पर स्कूल वैन पर ताबड़तोड़ फायरिंग, नाबालिग समेत 4 घायल
Embed widget