नयी दिल्लीः तालिबान का हिंदी में अर्थ होता है-विद्यार्थी.लेकिन अफ़ग़ानिस्तान के तालिबानी लड़ाकों का इससे दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है क्योंकि वे शरीआ कानून को मानते हैं और तानाशाही रवैये से राज करना उनकी फ़ितरत में शुमार है.उन्हीं लड़ाकों के हौंसले फिर से सातवें आसमान को छूने लगे हैं क्योंकि अमेरिका ने वहां से अपने सैनिकों की वापसी शुरु कर दी है जो 31 अगस्त तक पूरी हो जायेगी.लेकिन भारत के लिए यह स्थिति बेहद चिंताजनक बन गई है क्योंकि क्षेत्रीय सुरक्षा और रणनीतिक लिहाज से भी अफगानिस्तान शुरु से ही भारत के लिये अहम रहा है.
अगर वहां दोबारा तालिबान का कब्जा होता है,तो भारत के लिए फिक्रमंद होना इसलिये भी जरुरी हो जाता है क्योंकि पाकिस्तान पहले से ही उसका मददगार है और अब चीन ने भी उससे दोस्ताना रिश्ते बनाने शुरु कर दिये हैं.इसलिये अहम सवाल ये है कि पाकिस्तान-चीन के इशारों पर चलकर तालिबान क्या भारत के साथ भी अच्छे रिश्ते बनाने की जहमत उठायेगा?
वैसे तो अभी से ही वहां के हालात दिनोंदिन बदतर होते जा रहे हैं.तालिबानी फौज लगातार वहां के नए हिस्सों पर कब्जा करती जा रही है और अफगानिस्तान की सेना जान बचाने के लिए दूसरे देशों की तरफ भाग रही है. अफगानिस्तान के इस बिगड़ते हुए हालात पर रूस दौरे पर गए विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने भी मॉस्कों में भारी चिंता जताई है.
उनके मुताबिक अफगानिस्तान की स्थिति ने काफी ध्यान खींचा है क्योंकि उसका सीधा संबंध क्षेत्रीय सुरक्षा के साथ है. हिंसा में कमी लाने पर जोर देते हुए विदेश मंत्री ने यह भी कहा कि अगर हमें अफगानिस्तान और उसके आसपास शांति देखना है तो यह महत्वपूर्ण है कि आर्थिक और सामाजिक तरक्की बनी रहे और इसे सुनिश्चित करने के लिए भारत और रूस को एक साथ मिलकर काम करना होगा.
भारतीय विदेश मंत्रालय के मुताबिक़, अफ़गानिस्तान में क़रीब 1700 भारतीय मौजूद हैं जो वहां स्थित बैंकिंग, सुरक्षा और आईटी सेक्टर की कंपनियों के अलावा अस्पतालों में काम करते हैं.इसके अलावा रणनीतिक स्तर पर और देश की सुरक्षा के लिहाज़ से भी अफ़ग़ानिस्तान में भारत की पकड़ कमज़ोर होना उसके लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है.भारत ने पिछले कुछ सालों में अफ़ग़ानिस्तान में शिक्षा, स्वास्थ्य, मूलभूत सुविधाओं के सुधार में मदद दी है और वहां बड़े पैमाने पर निवेश भी किया है.अफ़गानिस्तान का नया संसद भवन बनाने के अलावा भारत वहां बांध, सड़क, शिक्षण संस्थान और अस्पताल बनाने की योजनाओं से जुड़ा है.
अहम बात ये भी है कि भारत की चिंता सिर्फ़ तालिबान और अपने संबंधों को लेकर नहीं है. इन संबंधों में पाकिस्तान और चीन की भूमिका भी अहम हो जाती है. चीन भी अफ़ग़ानिस्तान में तांबे और लोहे की ख़दानों में निवेश करता रहा है. वह वन बेल्ट वन रोड योजना के तहत कई देशों पर अपना प्रभाव बढ़ाता रहा है.वहीं, चीन-पाकिस्तान और तालिबान-पाकिस्तान की नज़दीकी भी जग जाहिर है. ऐसे में चीन,पाकिस्तान की मदद से तालिबान से करीबी बढ़ा सकता है जो भारत के लिए एक बड़ी चुनौती बन जाएगा.
पूर्व राजदूत अशोक सज्जनहार कहते हैं, "चीन अफ़ग़ानिस्तान में एक प्लेयर तो ज़रूर होगा. नई व्यवस्थाओं में वो भी अफ़ग़ानिस्तान में पैठ बनाने की कोशिश करेगा. लेकिन, चीन पहले भी वहां निवेश कर चुका है .हालांकि उस पर ज़्यादा काम नहीं हो पाया,इसलिये अब वो अपनी ताकत बढ़ाएगा.जहां तक पाकिस्तान की बात है तो अगर तालिबान बिल्कुल ही पाकिस्तान के कहे अनुसार चला, तब तो भारत के लिए चिंता हो सकती है. लेकिन, मुझे लगता है कि तालिबान सत्ता में आने के बाद कुछ हद तक उदारता लाएगा और अपने अनुसार सरकार चलाएगा. किसी भी सरकार की तरह वो भी दूसरे देशों से अच्छे संबंध बनाना चाहेगा."
गौर करने वाली बात यह भी है कि अफ़ग़ानिस्तान के बदाख़्शान प्रांत पर तालिबान का नियंत्रण स्थापित होने के साथ ही इसके कब्ज़े वाले इलाकों की सीमा चीन के शिनजियांग प्रांत की सरहद तक पहुंच गई है.लिहाज़ा, चीन को दक्षिण एशिया क्षेत्र में अपनी खुराफ़ात करने के लिए एक और आसान रास्ता मिल गया है,जो भारत के लिए चिंता का सबब है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)