इधर देश में "अग्निपथ" योजना को लेकर शोले भड़क रहे हैं, तो उधर अफगानिस्तान में हुए एक आतंकी हमले ने दो अल्पसंख्यक समुदायों के बीच नफ़रत की एक नई आग सुलगा दी है. इसकी तपिश भारत तक आना भी लाजिमी है, इसलिये अंतराष्ट्रीय जगत में ये सवाल उठा रहा है कि आखिर ऐसा क्या और क्यों हुआ कि भारत में चल रहे आंदोलन के बीच  आतंकवादियों को अचानक ये क्या सूझा कि अफगानिस्तान के गुरुद्वारे में ऐसा खतरनाक हमला कर दिया गया, जिसमें दो बेगुनाह मारे गए और सात से ज्यादा श्रद्धालु जख्मी हो गए?


मजहबी ताने-बाने को तोड़ने की कोशिश
बेशक पिछले साल अगस्त से अफगानिस्तान पर तालिबान का शासन हो गया है, जो शरिया को सख्ती से लागू करवाने और अल्पसंख्यकों के हकों को छिनने-कुचलने के लिए कुख्यात हैं. लेकिन राजधानी काबुल के गुरुद्वारे पर हुई इस आतंकी हमले की टाइमिंग न सिर्फ अहम है बल्कि वो ये भी सवाल खड़ा करती है कि क्या ये हिंदुस्तान के उस मज़हबी ताने-बाने को नेस्तनाबूद करने की कोई साजिश है, जिस पर पिछली चार सदियों से सिख और मुस्लिम एक-दूसरे को किसी दुश्मन नहीं बल्कि एक दोस्त की नज़र से देखते आये हैं. ये नज़ारा सिर्फ देश की राजधानी में ही नहीं बल्कि हर उस शहर में देखने को मिल जाएगा ,जहां एक-दूसरे के साथ किसी भी किस्म के कोई कारोबारी रिश्ते हों और इस परंपरा को निभाने व अपने मुस्लिम कर्मियों की दिल से मदद करने में शायद ही कोई ऐसा हिंदू कारोबारी होगा, जो इसमें पीछे रह गया होगा.


देश को आजादी मिलने के बाद इतिहास के उस पुराने व स्याह पन्ने को पढ़कर फिर से अपने जख्मों को हरा करने की जहमत हममें से किसी को भी नहीं उठानी चाहिए क्योंकि वो नफ़रत की एक नई चिंगारी ही पैदा करेगी.लेकिन इस सच को कौन झुठला सकता है कि सिखों के नौवें गुरु गुरु तेगबहादुर जी ने मुगल सम्राट औरंगज़ेब की धर्म-परिवर्तन की मांग को ठुकराते हुए अपनी शहादत न दी होती और फिर उसके बाद उनके पुत्र और सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह ने मुगल सेना से लड़ने के लिए अगर खालसा पंथ की स्थापना नहीं की होती, तो क्या हिंदू धर्म की ध्वजा ऐसे ही तमाम शिखरों पर लहरा रही होती?


दोनों समुदायों में आपसी भाईचारा
ये तो है, इतिहास की एक कड़वी हकीकत. बात करते हैं कि इस दरमियान आखिर ऐसा क्या हुआ कि इन दोनों समुदायों के बीच नफ़रत की खाई को पाटकर उसमें मोहब्बत व भाईचारे की मिट्टी भरने वाले एक फकीर को सिखों के अलावा मुसलमान भी उतनी ही शिद्दत से याद करने लगे. आपने बुर्का पहने हुई मुस्लिम महिलाओं को किसी मंदिर की चौखट पर अपना शीश नवाते देखा है? शायद कभी नहीं. लेकिन ये देखकर आप हैरान नहीं होंगे कि वही बुर्कानशीं महिलाएं दिल्ली के बंगला साहिब या शीशगंज गुरुद्वारे में आकर श्री गुरु ग्रंथ साहिब के चरणों में शीश झुकाते हुए और अपनी खाली झोली फैलाते हुए कुछ इस अंदाज़ में फरियाद कर रही हों, मानो उनके लिए वही उनका खुदा है, जो उनकी हर मुराद पूरी कर देगा. किसी दूसरे धर्म के प्रति ऐसी आस्था व विश्वास की ऐसी मिसाल शायद कम ही देखने को मिले. 33 बरस पहले बंगला साहिब में जब मैंने पहली बार ये नज़ारा देखा, तो हैरान रह गया था.


गुरुद्वारे के ग्रंथी जी  से पूछा कि आखिर माजरा क्या है, क्योंकि मैंने अपने उज्जैन शहर में कॉलेज शिक्षा खत्म करते वक्त तक ये नजारा कभी अपनी आंखों से नहीं देखा था. तब एक युवा पत्रकार की उत्सुकता का जवाब  बेहद सलीके से देते उन्होंने बताया था कि बेशक गुरुनानक देव जी सिखों के पहले गुरु हैं लेकिन  मक्का-मदीना, ईरान, अफगान और पाकिस्तान से लेकर हिंदुस्तान में मुस्लिमों की बड़ी आबादी आज भी उन्हें ऐसा फकीर मानती है, जो उनकी हर फरियाद सुनता तो है, लेकिन जो जायज़ है, उसे ही पूरी करता है. तब उन्होंने ये भी कहा था कि इस्लाम में शुक्रवार यानी जुम्मे को सबसे पवित्र दिन मानते हुए कहते हैं कि खुदा उस दिन आपकी हर फरियाद पूरी करता है. शायद यही वजह है कि हर शुक्रवार को गुरुद्वारे में शीश नवाने वाली मुस्लीम महिलाओं की संख्या ज्यादा होती है. लेकिन फिर क्या वजह है कि अफगानिस्तान के पवित्र गुरुद्वारे पर ये आतंकी हमला किया गया, जहां अब महज़ 140 सिख बचे हैं?


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)