उतार-चढ़ाव व विरोधाभासों से जूझते जोगी मुख्यमंत्री बन ही गए थे
अजीत जोगी जब अपने राजनीतिक करियर के शिखर पर थे तो वह एक दुर्घटना के शिकार हो गए. उन्हें व्हील चेयर पर आना पड़ा इसके बाद वह राजनीति में कभी पूरी तरह वापसी नहीं कर सके.
दूरस्थ ग्रामीण परिवेश में गरीबी के बीच पले-बढ़े अजीत प्रमोद कुमार जोगी का पहले आईपीएस व फिर आईएएस जैसी देश की प्रतिष्ठित परीक्षाएं पास कर लेना ही बड़ा कारनामा था, मगर महत्वाकांक्षी जोगी ने इसी पर बस नहीं की बल्कि देश के एक राज्य का मुख्यमंत्री बन के दिखा दिया. यह एक बड़ी उड़ान थी, वह भी तब, जब उनका राजनीतिक जीवन विरोधाभासों व उतार-चढ़ाव से भरा रहा.
अजीत जोगी बुनियादी तौर पर ब्राह्णवाद विरोधी थे, मगर अर्जुन सिंह, प्रणब मुखर्जी तथा पीवी नरसिम्हाराव जैसे कांग्रेस के उच्च जातीय नेता उनके राजनीतिक आदर्श रहे, हालांकि अथक प्रयासों के बावजूद जोगी जोड़तोड़ की राजनीति के इन दिग्गजों जैसी ऊंचाई प्राप्त नहीं कर सके. वे कांग्रेस का महा शक्तिशाली नेता बनना चाहते थे. इसके लिए वे अनेक बड़े नेताओं के यहां शीष नवाते रहे, लेकिन यह भी राजनीति की विडंबना है कि वे सदैव आपाधापी में फंसे रहे. उन्होंने खुद को ऐसा जन नेता सिद्ध करने की कोशिश भी की, जो वे नहीं थे.
राजनीतिक करियर के चरम पर जोगी एक भयानक दुर्घटना का शिकार हो गए. इस एक्सीडेंट के बाद वे व्हील चेयर पर आ गए, जिसका उनके भविष्य पर ऐसा नकारात्मक असर पड़ा कि वे कभी पूरी तरह वापसी नहीं कर सके. इसी तरह वे ‘जाति’ के झमेले में भी फंसे रहे. अपनी पूरी राजनीतिक यात्रा के दौरान वे खुद को जनजातीय या ‘सतनामी हरिजन’ सिद्ध करने के लिए संघर्ष करते रहे. न्यायालयों से कई तरह की राहतें मिलने के बावजूद बीते साल छत्तीसगढ़ पुलिस ने उनके खिलाफ कथित रूप से जाति का फर्जी प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करने के आरोप में प्रकरण दर्ज कर ही लिया.
अजीत जोगी शुरू से जल्दी में थे. 1981 से 1985 तक वे मध्यप्रदेश की व्यावसायिक राजधानी कहे जाने वाले शहर इंदौर के कलेक्टर रहे और तभी तात्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की नजर में आए. मध्य प्रदेश की राजनीति उस समय खासी पेंचदार थी. ऐसे समय में अर्जुन सिंह, शुक्ला बंधु, प्रकाशचंद सेठी, माधवराव सिंधिया जैसे राज्य के कद्दावर नेताओं की सलाह व पसंद को नजरअंदाज करते हुए राजीव गांधी ने कांग्रेस से राज्यसभा के लिए अजीत जोगी का चयन कर लिया.
जोगी ने भी सक्रियता दिखाई और राज्यसभा पहुंचते ही राजीव गांधी के पक्ष में उस ‘शाउटिंग ब्रिगेड’ का हिस्सा बन गए, जो सदन में बोफोर्स घोटाले का मुद्दा उठाने वाले किसी भी सदस्य के पीछे पड़ जाती थी. रत्नाकर पांडे, सुरेश पचौरी, एसपी बाबा मिश्रा और एसएस अहलुवालिया इस ब्रिगेड का हिस्सा थे. 1991 में राजीव गांधी की असमय हत्या के बाद इस ब्रिगेड ने सोनिया गांधी के विश्वस्तों में शामिल होने के भरसक प्रयत्न किए कि इस तरह कांग्रेस पर कब्जा किया जा सकता था.
राजीव की अकाल मृत्यु जोगी के लिए बड़ा धक्का थी, सो उन्होंने नए राजनीतिक धरातल की तलाश में अर्जुन सिंह, नरसिम्हा राव, प्रणब मुखर्जी के साथ सोनिया गांधी के निजी सचिव विंसेंट जॉर्ज के यहां हाजिरी लगानी शुरू कर दी. यह जोगी की अतिरिक्त खूबी थी कि इनमें से हरेक को उन्होंने विश्वास दिला दिया कि वे उन्हीं के वफादार हैं. इस विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए जोगी उन लोगों को एक-दूसरे की सूचनाएं प्रदान करते थे. जब प्रधानमंत्री बने नरसिम्हा राव के साथ अर्जुन सिंह की खींचतान शुरू हुई तो जोगी को सिंह, राव के खेमे में अपना खबरी समझते रहे, जबकि राव के विश्वस्त लोगों की नजर में जोगी यही काम अर्जुन सिंह के खेमे में घुस कर उनके लिए अंजाम दे रहे थे. भारतीय राजनीति के दो महारथियों के साथ ऐसी खतरनाक खेल, खेल लेने के बाद अजीत जोगी की महत्वाकांक्षाएं और बढ़ गईं.
इसी बीच उन्हें कांग्रेस का प्रवक्ता बना दिया गया. तब 24 अकबर रोड स्थित पार्टी कार्यालय में नियमित रूप से प्रतिदिन शाम 4 बजे आयोजित की जाने वाली पत्रकार वार्ता में मीडिया बंधुओं से उनकी रोजाना मुलाकातें होने लगीं. शब्दों से खेलने का हुनर जानने वाले जोगी जल्द ही रिपोर्टर्स के बीच लोकप्रिय हो गए, जिसका उन्होंने खूब फायदा भी उठाया. मीडिया बंधुओं को वह अलग-अलग खबरें, इधर-उधर की गपशप बताते रहते. कांग्रेस मुख्यालय के बाद उनके शाहजहां रोड स्थित आवास पर भी मीडियाकर्मी जुटे रहते. हर पत्रकार को वह गोपनीयता की शर्त पर कुछ अलग बताते और यह उस पत्रकार की योग्यता पर निर्भर करता था कि जोगी की बातों से वह क्या सार निकालता है.
जब नरसिम्हा राव को हटा दिया गया तो जोगी कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी के 7, पुराना किला स्थित आवास पर नियमित हाजिरी भरने लगे. कई प्रयासों के बाद केसरी के दरबार तक उनकी पहुंच बन पाई. इससे तब मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की बेचैनी बढ़ गई, जो जोगी की प्रतिभा देखते हुए स्वाभाविक भी था. जोगी देहली में दिग्गी राजा के किस्से सुनाते रहते. बताना जरूरी नहीं है कि इनमें थोड़े सत्य के साथ बाकी बहुत कुछ जोगी की कल्पनाशीलता की उपज होता.
ऐसे ही किसी किस्से के बारे में एक रिपोर्टर ने बहुत दिलचस्प बात बताई, जिससे दोनों नेताओं के बीच की तनातनी व कड़वाहट साफ दिखाई पड़ती है. हुआ यूं कि किसी मसले को लेकर चंद पत्रकारों की मौजदूगी में जोगी ने दिग्विजय सिंह को लैंडलाइन से फोन लगा कर उसका स्पीकर चालू कर लिया. बातों-बातों में दिग्विजय सिंह ने जोगी को सीख दी “कांग्रेस ऑफिस की पवित्रता, गरिमा तो न खराब कर.”
जोगी, आदिवासी नेता व रतलाम लोकसभा सीट से सांसद दिलीपसिंह भूरिया तथा असलम शेर खान ने तब बहुत धमाल किया लेकिन मध्यप्रदेश की राजनीति में जमे हुए दिग्विजय सिंह का कुछ नहीं बिगाड़ सके. इन्हीं हंगामों के बीच प्रदेश में सत्तासीन कांग्रेस के दो गुटों के बीच भोपाल में झगड़ा हो गया. तब जोगी ने आरोप लगाया कि इस झगड़े में दिग्विजय समर्थकों ने उन्हें मारने के लिए ‘सुअर मार बम’ का इस्तेमाल किया था, संयोग से वे बच गए.
समय ऐसे ही बीत रहा था कि अजीत जोगी के मुकद्दर का ताला खुल गया. सन् 2000 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने तीन नए राज्य उत्तराखंड, झारखंड व छत्तीसगढ़ बनाने की घोषणा की. जोगी को तब छत्तीसगढ़ से कांग्रेस के एक दर्जन विधायकों का समर्थन भी प्राप्त नहीं था, लेकिन कथित तौर पर ईसाई धर्मगुरु, जनजातीय नेता तथा विचारक उनके पक्ष में लामबंद हो गए. छत्तीसगढ़ के दिग्गज नेता विद्याचरण शुक्ला आश्वस्त थे कि कांग्रेस द्वारा उन्हें ही राज्य का मुख्यमंत्री बनाया जाएगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. सन् 1977 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी को धोखा देना तथा राव के प्रधानमंत्रित्व काल में संसदीय कार्य मंत्री रहते हुए राजीव गांधी के खिलाफ बोफोर्स मामले को हवा देने जैसी उनकी हरकतें पार्टी भूली नहीं थी, सो जोगी छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री करार पाए.
छत्तीसगढ़ का बनना दिग्विजय सिंह के लिए सबसे दुखद रहा. एक तो मध्यप्रदेश का बहुत बड़ा भाग उनके हाथ से जाता रहा, दूसरा यह कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बन के सिंह के बहुत बड़े आलोचक जोगी उनके समकक्श खड़े हो गए. इसके अलावा छत्तीसगढ़ बनने के बाद दिग्विजय सिंह को कुछ और आघात भी सहना पड़े.
1 नवंबर 2000 को इन पंक्तियों का लेखक रायपुर में था, जहां अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की ओर से पर्यवेक्षक के रूप में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद आए हुए थे. उन्होंने वहां की परिस्थितियों पर बात करते हुए जो कहा, वह अंग्रेजी के प्रतिष्ठित दैनिक ‘द टेलिग्राफ’ में छपा था. आजाद ने कहा था, “दोपहर से पहले जब हमने कांग्रेस विधायक दल की सूची तैयार कर ली, तो सोचा हमारा काम पूरा हो चुका. हम चर्चित फिल्म मिशन कश्मीर देखने जाने की योजना बनाने लगे, तभी हमें अहसास हुआ कि अभी एक महत्वपूर्ण युद्ध बाकी है- मिशन छत्तीसगढ़.” वास्तव में फिर वहां वीसी शुक्ला व दिग्विजय सिंह समर्थकों के बीच सड़क पर मारपीट हुई. इसमें कुछ लातें व घूंसे मुख्यमंत्री के हिस्से में भी आए.
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री की हैसियत से जोगी का कार्यकाल निष्प्रभावी रहा. दिसंबर 2003 में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई. अप्रेल 2004 में लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान जोगी, महासमंद में चुनाव प्रचार कर लौट रहे थे कि एक भयानक दुर्घटना का शिकार हो गए. इस हादसे में बुरी तरह घायल जोगी की जान तो किसी तरह बच गई, लेकिन व्हील चेयर उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गई.
इसीलिए सन् 2014 के आम चुनाव का प्रचार करते हुए मोदी ने उन्हें ‘अपाहिज’ तक कह डाला, लेकिन स्टेम सेल थेरेपी के सहारे जोगी लौटने की जद्दोजहद में लगे थे. मायावती की बहुजन समाज पार्टी को साथ ले कर उन्होंने अपनी एक नई पार्टी जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ बनाने की घोषणा कर दी. मगर उनके इस कदम का असर यह हुआ कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को वापसी का मौका मिल गया, हालांकि जोगी ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया.
(रशीद किदवई ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के विजिटिंग फैलो हैं.)
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