ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने हाल में बयान दिया है कि देश में नफरत का ज़हर फैलाया जा रहा है. लेकिन, सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर संस्था की मुस्लिम समाज में कितनी विश्वसनीयता है और क्यों ये ऐसे बयान दे रहे हैं? पहली बात तो ये है कि हमें ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के बारे में समझना चाहिए. वो कोई धार्मिक या राजनीतिक संस्था नहीं है. वो एक एनजीओ के रूप में काम करती है, जिसका स्वरूप 1970 में हुआ.
इसका काम ये था कि भारत के अंदर मुस्लिम समाज से जुड़े मुद्दे, जैसे- शादी-ब्याह उसका किसी तरीके से संरक्षण किया जाए. क्योंकि अदालतों में उसका कई बार टकराव देखने को मिलता था. आपने शाहबानो केस में भी देखा और दूसरे मामलों में भी.
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के फैसले राजनीति से प्रेरित
मुस्लिम सिविल लॉ या जो उसके शरिया कानून हैं, उसको सिविल में कैसे जोड़ा जा सकता है या पास लाया जा सकता है, उस विषय में उनका काम होता है. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्यों के बहुत से लोगों की पृष्ठभूमि राजनीतिक होती है.
हमें समझना चाहिए कि कई बार उनकी जो विज्ञप्ति आती है उसमें उस राजनीतिक पृष्ठभूमि की भी आहट या वजूद महसूस होता है.
हालांकि, ये हकीकत है कि समाज में नफरत का जहर एक अभिशाप है. इससे देश और समाज को कमजोर करता है. आजादी के समय से ही तमाम राजनीतिक दलों के लिए ये एक बड़ी चुनौती रही है. उस चुनौती में कभी खट्टा मीठा अनुभव भी हुआ है और उसमें साम्प्रदायिक दंगे भी हुए हैं वो चाहे कांग्रेस का ही राज क्यों न रहा हो.
मैंने अपनी किताबों में लिखा है कि 58 छोटे-बड़े दंगे हो चुके थे, जिनमें 15 हजार लोग मारे गए. ये आंकड़ा साल 2000 से पहले का है. देश में बड़े दंगे हुए और साल 2000 के बाद का भी अपना इतिहास है.
अब बड़े दंगे नहीं होते, लेकिन अगर समाज में इस तरह की छिटपुट घटनाएं होती हैं, जिससे लोगों का मन आहत होता है और हमारे यहां के सौहार्दपूर्ण वातावरण है उसे खराब करने की कोशिश की जा रही है.
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की क्या भूमिका?
इस स्थिति में नफरत का जहर फैलने वाला बयान देकर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड क्या सरकार से संवाद करना चाहती है? क्या उसमें इसकी भूमिका है? सामाजिक स्तर पर उसने क्या-क्या काम किए. ये सिर्फ ये कह देना का समस्या है, लेकिन समस्या का क्या समाधान है.
ओवैसी भी मुस्लिम पर्सनल बोर्ड के सदस्य
मैं ये भी बता दूं कि उस ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य असदुद्दीन ओवैसी भी हैं. और भी कई लोग शामिल हैं. लेकिन बात ये होती है कि कई बार हमारे राजनेताओं के या पब्लिक फीगर के बयान से और भी उत्तेजना फैलती है.
मेरा कहना ये है कि अगर किसी भी एनजीओ को इस तरह का एहसास होता है तो सवाल उठता है कि उसके लिए वो क्या काम कर रहे हैं और क्या काम करना चाहिए?
आरोप लगाना तो बहुत आसान काम है. दरअसल, जो धार्मिक उन्माद की जो बात कर रहे हैं, वो आखिर क्यों पैदा हो रही है, क्योंकि परस्पर विश्वास की कमी है. उसे मजबूत करने की जरूरत है.
मुसलमानों में AIMPLB की कितनी विश्वसनीयता?
ये एनजीओ के समान है और इसकी कोई धार्मिक मान्यता नहीं है. मैंने अपनी पत्रकारिता में भी देखा कि जिस समुदाय को जो चीज सही लगती है, वो उसे मान लेती है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य कई बार चुनाव लड़े और बुरी तरह से हारे और जीते भी हैं. लेकिन वो किस राजनीतिक दल से हैं, उसके ऊपर ये निर्भर करता है.
मेरा ये कहना है कि उसका कोई व्यापक असर हो, ऐसा नहीं होता है. लेकिन उसके विरोधियों ने जरूर उसका फायदा उठाया है कि देखिए मुस्लिम समाज के प्रतिनिधि ऐसा कर रहा है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की कितनी विश्वसनीयता है इसके बारे में तो कोई सर्वे नहीं है, लेकिन जिस वक्त इसकी शुरुआत हुई था, उस समय मंशा अच्छी थी और स्वीकार्यता बहुत ज्यादा थी, जब तक कि उसने अपने आपको गैर-राजनीतिक रखा.
जब से शाहबानों के मामले आए, बाबरी मस्जिद का मामला आया, उसका कोई मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के कोई लेना-देना नहीं था. लेकिन, उसमें भी कानूनी मदद, कानूनी और उसके ऊपर बयान देने शुरू किए और उसको अपने मुद्दों में शामिल किया.
वहीं से उसका अघोषित रूप से एक राजनीतिक सफर शुरू हो गया और यही वजह है कि इस पर अब तक प्रश्न उठाए जा रहे हैं.
अपनी 'लक्ष्मण रेखा' में रहें संस्थाएं
सवाल मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के बयान को गंभीरता से लेना या नहीं लेने का है ही नहीं. हर चीज की एक मंशा होती है. अगर हम कोई बयान दे रहे हैं तो उसकी मंशा क्या है? इस देश में, समाज में अगर बेचैनी का माहौल है तो एक हाथ से ताली तो बजती नहीं है. हम कहते हैं कि उग्रवाद बढ़ रहा है, तो उसको कम करने के लिए हम क्या प्रयास कर रहे हैं. दूसरा ये कि हम गैर राजनीतिक प्लेटफॉर्म पर दूसरे समुदाय के या बाकी लोगों के साथ क्या कर रहे हैं? ताकि इन सभी चीजों के ऊपर अंकुश लग सके. जब तक हमारे समाज की जड़ें नहीं मजबूत होगी, इस तरह का उन्माद फैलता रहेगा.
लेकिन, इस तरह के ऑर्गेनाइजेशन के कार्यक्षेत्र की जो लक्ष्मण रेखा है, उस तक ही सीमित रहकर करेगा तो उसकी मान-मर्यादा ज्यादा बढ़ती है. अगर वो चाहे कोई भी संगठन हो, बात सिर्फ ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ही नहीं है, तो फिर उसकी विश्वसनीयता और ताकत पर प्रश्न चिन्ह खड़ा होता है
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)