एशिया में जब हम रणनीतिक अलाइनमेंट या ध्रुवीकरण की बात करते हैं, तो चीन के तरीकों से थोड़ी जो कड़वाहट आई है, इस क्षेत्र के देशों में वह एक कारण है. दूसरे, अमेरिका दूसरी कई समस्याओं में उलझा हुआ था, इस क्षेत्र के ऊपर जो उनकी आर्थिक नीति के हिसाब से, सुरक्षा के हिसाब से काफी महत्व रखता है, लेकिन वो पूरा ध्यान नहीं दे रहे थे. अमेरिका का रुझान तो ओबामा के समय में ही इसकी शुरुआत हुई, जब बाइडेन उप-राष्ट्रपति थे, जब उन्होंने "एक्टिवेट एशिया" यानी एशिया की तरफ रुख का बयान दिया था. भारत इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में एक प्रमुख ताकत माना जाता है, जो इसकी कूटनीति पर प्रभाव डाल सकता है.


भारत और चीन की अपनी समस्याएं भी हैं. चीन से निराशा औऱ दोनों देशों की अपनी राजनीतिक, आर्थिक और कूटनीतिक आवश्यकताएं हैं, जिसकी वजह से अमेरिका और भारत नजदीक आ रहे हैं. चीन के ऊपर इस क्षेत्र के कई देश आर्थिक तौर पर निर्भर थे, लेकिन उसके बावजूद चीन के 'असर्टिव अप्रोच' और 'यूनिलेटरल व्यू' से उनको निराशा हुई है, जिसकी वजह से वो अब दूरी बरतना चाह रहे हैं. 


विदेश नीति नहीं होती है व्यक्तिगत छवि से प्रभावित


बाइडेन हों या कोई और राष्ट्रपति, उसी तरह भारत हो या अमेरिका, जापान हो या कोई और देश, उसकी विदेश नीति किसी की व्यक्तिगत छवि से प्रभावित नहीं होती है. हरेक देश की एक सामरिक सोच होती है, रणनीतिक नीति होती है, और सर्व-सहमति से वह विकसित होती है. चीन के प्रति अमेरिका की एक कड़वाहट जो दिखती है, उसे ओबामा से ट्रंप और ट्रंप से बाइडेन तक के एक प्रोग्रेसन में देखना चाहिए. हालांकि, अपेक्षा यह जरूर थी कि बाइडेन के समय कुछ बदलेगा. ट्रम्प जब राष्ट्रपति थे, तो बहुत सीधे तौर पर बात करते थे और जो उनका असर्टिव रवैया था, वह एक डेमोक्रेटिक सेटअप में संभव नहीं होता और बहुत ठीक भी नहीं माना जाता है.



हालांकि, जो विशेषज्ञ हैं, विचारक हैं, उनका मानना था कि बाइडेन के आने पर भी बहुत रुख नहीं बदलेगा औऱ अमेरिका-चीन के बीच एक तनाव दिखेगा ही. अमेरिका का जो रुख हिंद-प्रशांत क्षेत्र में रहा है, वह निरंतर ही कही जाएगी, हालांकि यह माना जा रहा था कि डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रतिनिधि बाइडेन का रुख थोड़ा अलग रहेगा. सामरिक मामलों में रिपब्लिकन-डेमोक्रेट जो विभेद है, वह बहुत कम ही लोगों को दिखेगा. 


अमेरिका और चीन के बीच धीरे-धीरे तनाव बढ़ रहा है और अमेरिका की तरफ से प्रयास रहा है कि इसे कम किया जाए. वह इसके लिए राजनीतिक प्रयास कर रहा है. शांग्रीला डायलॉग में अमेरिका ने यह इच्छा भी जताई थी कि चीन के रक्षामंत्री से बात हो जाए, लेकिन वह हो नहीं पाई. इसका एक कारण यह भी है कि चीनी राष्ट्रपति पर अमेरिका ने सैंक्शन लगाए हुए हैं. दोनों देशों के बीच टेंशन कम करने के लिए बातचीत तो हो रही है. ताइवान स्ट्रिप में जो दोनों देशों के जहाज आमने-सामने आने की घटना है, तो वो कोई भी देश आक्रामकता दिखाता है, अगर किसी दूसरे देश से उसके संबंध ठीक नहीं है. भारत-चीन के रिश्तों में खटास जगजाहिर है. भारत इस तनाव को कम करना चाह ही रहा है, लेकिन वह अपनी सुरक्षा के साथ कोई समझौता नहीं करेगा. दूसरे, चीन ने सीमारेखा में जो बदलाव किया है, बिना उसके पीछे हटे स्थितियां सामान्य नहीं होगी. 


चीन एक मुद्दा है, लेकिन एकमात्र मुद्दा नहीं


भारत और अमेरिका के रिश्तों में चीन के अलावा भी दोनों देशों के बीच आकर्षण है, बहुतेरे कॉमन फैक्टर हैं. इसे नेचुरल अट्रैक्शन बोलते हैं. आर्थिक सहयोग है, प्रजातांत्रिक देश हैं दोनों, सांस्कृतिक लेन-देन है, पीपल टू पीपल कांटैक्ट है. तो, केवल चीन ही मसला नहीं है. दोनों देशों के बीच और भी बहुत सारी सामान्य बातें हैं. यह बात तो मानकर चलनी चाहिए कि भारत और चीन के बीच जब हम राष्ट्रीय क्षमता (नेशनल पावर) की बात करते हैं, तो यह डिफरेंस दोनों के बीच लंबे समय से रहा है और इसमें सामरिक क्षमता भी शामिल है. यह गैप जो है, दोनों देशों के बीच बढ़ा है, इससे इंकार नहीं कर सकते, लेकिन यह मानना कि चीन की जो ताकत है, वह पूरी तरह ओवरह्वेलमिंग है, यह भी ठीक नहीं है.


चीन की जो क्षमता है, वह जापान के प्रति भी है, अमेरिका के प्रति भी है, जापान के प्रति भी है. चीन का जो मुख्य खतरा है, वह उनके ईस्ट कोस्ट और वेस्ट पैसिफिक की तरफ है, भारत के प्रति इसलिए है क्योंकि हिंद महासागर पर उनकी बहुत निर्भरता है. अगर अंग्रेजी में कहें तो हिंद महासार चीन के लिए 'एकिलस हील' है. भारत की छवि एक जिम्मेदार देश की है. पूरी दुनिया के देश हमारा सम्मान करते हैं कि हमलोग काफी सोच-समझकर ही काम करते हैं. कभी-कभार चीजें पब्लिक कंजम्पशन के लिए भी कही जाती हैं, तो इस बात को भी उसी तरह देखा जाए. 


हमारी आर्थिक क्षमता को बढ़ाने पर ध्यान दिया जाए. रणनीतिक तौर पर मजबूत होना चाहिए. जिनसे हमारे विचार मेल खाते हैं, जैसे क्वाड के देश हैं, या बाकी जो भी देश हैं, उनके साथ मिलकर काम करना जारी रखना चाहिए. इसके ऊपर प्रयास इसलिए किया ही जा रहा है कि चीन अपनी विस्तारवादी नीति में सफल न हो. 


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