दिल्ली के कंझावला कांड में सेक्शन 302 को लेकर मीडिया से जानकारी मिल रही है. कहा जा रहा है कि पुलिस को कहीं से सीसीटीवी फुटेज मिला है, जो आरोपियों के गाड़ी से उतरकर बॉडी को देखने से जुड़ा है. बॉडी देखने के बावजूद भी इन लोगों ने गाड़ी चलाई है. आईपीसी के सेक्शन 302 में एक क्लॉज है कि अगर आरोपी को जानकारी है कि उसके किसी हरकत से कोई व्यक्ति मर सकता है और जो इंजुरी हैं वो मौत के लिए पर्याप्त हैं, तो ऐसे मामलों में भी 302 लगता है. अभी केस इंवेशटिगेशन के स्टेज पर है. अभी बहुत सी चीजें ऐसी निकलकर आएंगी, जिससे और चीजें क्लियर होंगी.
अगर ये साबित होता है कि इन लोगों ने कुछ देखा और उसके बावजूद भी गाड़ी चलाते रहे, तो उसका एंगल दूसरा होगा. इस केस में पुलिस ने बहुत जल्दी-जल्दी ओपिनियन बना लिया. शुरुआत में पहले तो एक्सीडेंट का बताया, फिर बाद में सेक्शन 304 लगाया. अब सेक्शन 302 लगाने की बात आ रही है. इंवेशटिगेशन स्टेज पर बहुत जल्दी-जल्दी ओपिनियन नहीं बनाना चाहिए. क्योंकि जांच के दौरान कई चीजें ऐसी निकलकर आती हैं, जिससे सेक्शन बदल सकते हैं.
पुलिस को जल्दी-जल्दी ओपिनियन नहीं बदलनी चाहिए
जब कोर्ट के सामने जांच रिपोर्ट फाइल होगी, तो फिर कोर्ट दोबारा सारे सबूतों की पड़ताल (evaluate)करेगी. उसमें सेक्शन 302, सेक्शन 304 या सेक्शन 304 A बनता है, ये कोर्ट तय करेगी. कोर्ट में सुनवाई के दौरान भी सेक्शन में बदलाव होता है. कोर्ट के पास अधिकार रहता है कि वो किसी भी स्टेज पर सेक्शन में बदलाव कर सकती है. इस केस में पुलिस ने थोड़ी जल्दबाजी की है. बहुत जल्दी-जल्दी सेक्शन को लेकर ओपिनियन देने की जरुरत थी नहीं क्योंकि जबतक जांच पूरी नहीं होती, कुछ भी हो सकता है. सेक्शन 302 लगने के बाद पुलिस के ऊपर और अभियोग पक्ष (prosecution) के ऊपर जिम्मेवारी और बढ़ जाएगी. यहां पर 302 लगाना सही है (applicable) या आरोपी के पास किसी तरह का उस शख्स को मारने का इरादा (intention) था , ये साबित करने का भार prosecution के ऊपर बहुत ज्यादा हो जाता है.
कई सारे पहलुओं की पड़ताल होनी है
इसमें कुछ पहलू और रह गए हैं. क्या आरोपी अंजलि को पहले से जानते थे या नहीं जानते थे. घटना को अंजाम देने के लिए कोई पहले से प्लानिंग हुई थी या मारने को लेकर कोई मोटिव (motive) या इंटेंशन था. किसी स्टेज पर ओपिनियन को लेकर कोई अंतर हुआ है या दुर्घटनावश वो गाड़ी के नीचे आई है. दुर्घनावश भी अगर वो गाड़ी के नीचे आई है तो उसके बावजूद भी उन लोगों ने देखा कि पीड़िता गाड़ी के नीचे है. बॉडी लटकी हुई और उसके बाद भी रौंदना जारी रखा या गाड़ी के नीचे से नहीं निकाला. इस केस से ये सारे मामले जुड़े हुए हैं. ये सब अपने आप में ही बहुत गंभीर आरोप है और इसकी वजह से आरोपियों को बहुत बुरा नतीजा भुगतना पड़ेगा.
कोर्ट में मीडिया या पॉलिटिकल प्रेशर काम नहीं करता
मीडिया किसी भी मामले को कितना भी हाइप कर दे, लेकिन आखिर में जब ट्रायल होता है, तब पुलिस जांच के दौरान जो सबूत (evidence) जमा करती है, उसे साबित करना होता है. आप कोई भी सेक्शन या दफा लगाते हैं तो उसको कोर्ट में साबित (substantiate) करना होता है. कोर्ट भावनाओं, पॉलिटिकल प्रेशर, धार्मिक भावनाओं या मीडिया ट्रायल से नहीं चलती है. कोर्ट के सामने जो सबूत उपलब्ध होते हैं, उसके आधार पर ही कोर्ट की सुनवाई होती है.
सेक्शन 302 और 304 में है बारीक अंतर
आरोपियों ने निकलकर देखा कि बॉडी फंसी हुई है और अगर उसके बाद भी 10 किलोमीटर गाड़ी लेकर चलता है, तो ये बेहद संगीन आरोप है. हमारे यहां सेक्शन 302 में एक क्लॉज है, जिसमें आपको जानकारी है कि आपकी हरकतों की वजह से कोई मर सकता है या जो चोट लग रही है, वो मौत के लिए पर्याप्त हैं तो उस मामले में 302 भी लगता है. सेक्शन 302 और सेक्शन 304 के बीच बहुत ही बारीक अंतर है. इस फर्क को प्रॉसक्यूशन को अलग करना होता है. इसमें पुलिस को ही ये साबित करना होता है.
शुरू से केस रहा है पेचीदा
शुरू से ही ये केस बहुत पेचीदा था क्योंकि इसमें शुरु से ही कोई डायरेक्ट एविडन्स मिल नहीं रहा था. लेकिन बाद में धीरे-धीरे सबूत मिलने शुरू हुए. जो लड़की गवाह मिली है, उसकी भी भूमिका शंका भरी थी. अंजलि की दोस्त लड़की को लेकर कुछ शंकाएं हैं. उसकी दोस्त लड़की ने बताने में इतनी देर क्यों की. ऐसा लगता है कि उसने पूरी घटना को ढंग से या ईमानदारी से बताया नहीं है. अंजलि कैसे गाड़ी के नीचे आ जाती है और उसकी दोस्त वहां से क्यों भाग जाती है. कार स्कूटी से टकराता है तो वो तुरंत ही खड़ी हो जाती है. उसे कोई चोट नहीं लगता है. गवाह लड़की की क्रेडिबिलिटी को कोर्ट में परखा जाएगा. इस केस में ये सारे मुद्दे हैं और जब तक जांच रिपोर्ट फाइनल नहीं आ जाती, तब तक ये कह देना कि किस सेक्शन के तहत आगे सुनवाई होगी, ये बहुत ही मुश्किल काम है. अभी भी इस केस में बहुत सी चीजें हैं, जिसका खुलासा होना बाकी है.
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