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ब्लॉग: जानें, क्यों बार-बार गरमाता है यूनिफार्म सिविल कोड का मुद्दा
देश में एक समान नागरिक संहिता बनाने का मसला फिर चर्चा में है. इस बार यह मसला सुप्रीम कोर्ट में लंबित किसी मुकदमे की वजह से नहीं बल्कि विधि आयोग द्वारा इस विषय पर 16 बिन्दुओं की प्रश्नावली जारी करके समाज के सभी वर्गो से मांगे गए सुझावों की वजह से है. ये मुद्दा ऐसे समय उठा है, जब मुस्लिम पसर्नल लॉ खासकर एक ही वक़्त में ही तीन तलाक का मुद्दा गरमाया हुआ है.
विधि आयोग ने मुख्य रूप से महिलाओं के अधिकारों को ध्यान में रखते हुए ही संविधान के अनुच्छेद 44 में प्रदत्त व्यवस्था के अनुरूप कुटुम्ब कानूनों (शादी-ब्याह वग़ैरह) में सुधार करने के इरादे से यह कदम उठाया है.
संविधान का अनुच्छेद 44 कहता है, ‘‘शासन भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा.‘‘ दिलचस्प तथ्य यह है कि 30 साल से भी अधिक समय से देश की शीर्ष अदालत इस अनुच्छेद के अनुरूप देश में समान नागरिक संहिता बनाने का सुझाव देती रही है, लेकिन तमाम न्यायिक व्यवस्थाओं और सुझावों के बावजूद इस प्रावधान पर हर तरफ ख़ामोशी रही है.
संविधान के अनुच्छेद 44 में दिए गए समान नागरिक संहिता की अवधारणा के बारे में 23 अप्रैल, 1985 को तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश वाई वी चंद्रचूड की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने बहुचर्चित शाहबानो केस में शायद पहली बार टिप्पणी की थी. संविधान पीठ ने कहा था कि यह दुख की बात है कि हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 मृत प्राय है.संविधान पीठ की राय थी कि समान नागरिक संहिता देश में राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने में मददगार होगी लेकिन उसे इस बात का एहसास था कि कोई भी समुदाय इस विषय पर रियायत देते हुए बिल्ली के गले में घंटी बांधने का प्रसाय नहीं करेगा. ऐसी स्थिति में यह सरकार का ही कर्तव्य है कि वह देश के नागरिकों के लिए समान सिविल संहिता प्राप्त करे.
करीब दस साल बाद एक बार फिर 10 मई,1995 को उच्चतम न्यायालय के ही न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह और न्यायमूर्ति आर एम सहाय की पीठ ने हिन्दू विवाह कानून के तहत हुए विवाह की पहली पत्नी के रहते हुए धर्म परिवर्तन कर दूसरा विवाह करने से संबंधित मामले में समान नागरिक संहिता बनाने पर विचार करने का सुझाव दिया.
नब्बे के दशक में धर्म परिवर्तन कर दूसरी शादी करने से उपजे विवाद को लेकर ‘कल्याणी‘ नाम की संस्था की अध्यक्ष सरला मुद्गल और तीन अन्य महिलाओं ने अनुच्छेद 32 के तहत याचिकाएं दायर की थीं. इनमें विचाराणीय सवाल थेः क्या हिन्दू कानून के तहत विवाह करने वाला हिन्दू पति इस्लाम धर्म अपनाकर दूसरी शादी कर सकता है, क्या हिन्दू कानून के तहत पहला विवाह भंग किए बगैर किया गया दूसरा विवाह वैध होगा? क्या ऐसा करने वाला पति भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत दोषी होगा? न्यायालय ने हिन्दू विवाह कानून के तहत पहली पत्नी के रहते हुए इस्लाम धर्म कबूल कर दूसरी शादी करने को लेकर उपजे विवाद में कहा था कि समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर संदेह नहीं किया जा सकता.
न्यायालय ने धर्म का दुरूपयोग रोकने के इरादे से धर्म परिवर्तन कानून बनाने की संभावना तलाशने के लिए एक समिति गठित करने पर विचार करने का भी सुझाव दिया था. उसने यह भी कहा था कि इस कानून में यह प्रावधान किया जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन करता है तो वह अपनी पहली पत्नी को विधिवत तलाक दिए बगैर दूसरी शादी नहीं कर सकेगा और यह प्रावधान प्रत्येक नागरिक पर लागू होना चाहिए. न्यायालय की राय थी कि इस तरह के कदम देश के लिए समान नागरिक संहिता बनाने में काफी मददगार हो सकते हैं.
इसी बीच, दूसरे धार्मिक समुदायों में तलाक की प्रक्रिया को लेकर सामने आ रही परेशानियों के मद्देनजर कुछ नए विवाद भी उठे. पहले ईसाई समुदाय से संबंधित तलाक कानून-1869 की धारा 10 की वैधानिकता के संदर्भ में उठे और अचानक ही मुस्लिम समाज में तीन तलाक के प्रचलन की वैधता को मुस्लिम महिलाओं का मसला भी सुर्खियों में आ गया. ईसाई समाज से संबंधित तलाक कानून के तहत कम से कम दो साल अलग रहने के बाद ही इस समुदाय का कोई जोड़ा परस्पर सहमति से विवाह विच्छेद के लिए आवेदन कर सकता है.
विवाह विच्छेद के संदर्भ में देश के अन्य कानूनों जैसे विशेष विवाह कानून- 1954 की धारा 28, हिन्दू विवाह कानून- 1955 की धारा 13-बी और पारसी विवाह और तलाक कानून- 1936 की धारा 32-बी के तहत परस्पर सहमति से तलाक लेने के लिए पति पत्नी को कम से कम एक साल अलग रहना होता है.
ईसाई समुदाय के एलबर्ट एंटनी का तर्क था कि सिर्फ धर्म के आधार पर स्वेच्छा से तलाक के मामले में इस तरह का प्रावधान पक्षपातपूर्ण है. इसी याचिका पर सुनवाई के दौरान पिछले साल न्यायालय ने सवाल किया था कि विभिन्न समुदायों के वैवाहिक मामलों के लिए अलग अलग कानून क्यों हैं? इस संबंध में सभी धर्मो और समुदाय के लिए समान नागरिक संहिता बनाने के प्रति सरकार झिझक क्यों रहीं है?
देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा बार बार समान नागरिक संहिता बनाने पर जोर दिए जाने के बाद अब विधि आयोग ने यह कदम उठाया है. आयोग की मंशा देश के तमाम धार्मिक समूहों, अल्पसंख्यक समूहों, गैर सरकारी संगठनों के समूहों की राय जानना है. अब यह देखना है कि विधि आयोग की प्रश्नावली पर समाज के विभिन्न वर्ग और धार्मिक और अल्पसंख्यक समूह इस मसले पर उसे क्या सुझाव देते हैं.