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ब्लॉग: दक्षिण भारत की राजनीतिक बिसात पर एक और फिल्मी मोहरा

राजनीति का दामन थामने वाले उत्तर और दक्षिण भारत के सिने-सितारों में एक और बड़ा फर्क है. जहां उत्तर के सितारे किसी बड़े राजनीतिक दल से जुड़ते हैं वहीं दक्षिण के अधिकांश सितारे अपनी ही पार्टी बना लेते हैं.

दक्षिण भारत; विशेष तौर पर तमिलनाडु की राजनीति में फिल्म सितारों का वर्चस्व कोई ढकी-छिपी बात नहीं है. एम. करुणानिधि से लेकर एमजी रामचंद्रन, शिवाजी गणेशन, जयललिता, विजयकांत जैसे कुछ ऐसे चमकते नाम हैं, जिन्हें दक्षिण की राजनीति में हाथ आजमाने के लिए जाना जाता है. यह दीगर बात है कि इनमें से कोई अतिशय सफल हुआ तो किसी का सितारा ही डूब गया!

सैकड़ों तमिल फिल्मों की कहानियां और पटकथाएं लिखने वाले डीएमके प्रमुख करुणानिधि से 1970 के दशक में जब एमजीआर का मतभेद हुआ तो उन्होंने एआईएडीएमके पार्टी गठित की और तमिलनाडु की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गए. एमजीआर अपनी फिल्मों में हमेशा गरीबों के मसीहा की भूमिका में नजर आते थे. चूंकि दक्षिण भारत की जनता व्यक्तिपूजा हद से ज्यादा करती है, जीवित फिल्मी सितारों के मंदिर तक बना डालती है, इसलिए उसने एमजीआर को भी अपना मसीहा बना लिया! वहीं एमजीआर के ही समकालीन और दक्षिण के उतने ही बड़े फिल्म स्टार शिवाजी गणेशन कांग्रेस के साथ थे, लेकिन 1988 में अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी बनाने के बाद उनका सिक्का ज्यादा नहीं चल पाया.

दक्षिण के ही एक और जाने-माने अभिनेता विजयकांत ने 2006 में डीएमडीके नामक पार्टी बनाई थी. शुरू-शुरू में इस पार्टी की पूछ-परख बढ़ी, 2011 में वह जयललिता की अन्नाद्रमुक के साथ विधानसभा चुनाव भी लड़े लेकिन जब 2016 में अकेले दम पर मैदान में उतरे, तो तमिल मतदाताओं ने उन्हें उनकी असली हैसियत दिखा दी! पिछले दिनों दक्षिण के एक और सुपर स्टार कमल हासन के राजनीति के मैदान में उतरने की सुगबुगाहटें तेज हुई थीं, वह डीएमके के साथ मंच साझा करते भी नजर आए थे, एआईएडीएमके की वह खुलकर आलोचना करते भी देखे गए हैं, लेकिन उन्होंने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं. हासन अरविंद केजरीवाल के साथ भी गलबहियां करते पाए गए. लेकिन इतना तो तय है कि अपनी फिल्मी पारी घोषित करके वह भी जल्द ही राजनीति के अखाड़े में कूदेंगे!

अभी 2018 के पहले ही हफ्ते में जब अंतर्राष्ट्रीय सुपर स्टार रजनीकांत ने राजनीति में आने की घोषणा की तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ. बल्कि आश्चर्य इस बात पर हुआ कि उन्होंने घोषणा करने में देर कर दी. 67 वर्षीय रजनीकांत की लोकप्रियता का आलम यह है कि उनके दीवाने फिल्म नहीं, उन्हें ही देखने जाते हैं. उनके हर संवाद, हर अदा पर सीटियां बजती हैं. रजनीकांत के नाम पर ऐसे-ऐसे चुटकुले रचे जाते हैं कि लोग दांतों तले उंगली दबा ले! पचास हज़ार से अधिक तो उनके फैन क्लब हैं. बॉलीवुड के मेगा स्टार अमिताभ बच्चन तक उन्हें अपने से बड़ा फिल्म सितारा करार देते हैं. मुंबई के माटुंगा की अरोड़ा टाकीज़ से लेकर दक्षिण भारत और चीन, जापान तक में कई ऐसे सिनेमाघर हैं, जो उनकी फिल्म की रिलीज़ को किसी पर्व और जश्न की तरह मनाते हैं.

यह रजनीकांत की लोकप्रियता का ही कमाल था कि वर्तमान पीएम नरेन्द्र मोदी 2014 के आम चुनाव से पहले समर्थन पाने के लोभ में उनके घर पहुंच गए थे. वैसे तो पेशे से बस कंडक्टर रह चुके शिवाजी राव गायकवाड उर्फ रजनीकांत के सुपर स्टार बनने की दास्तान कम रोमांचक और दिलचस्प नहीं है, इसके बावजूद जरूरी नहीं कि फिल्म और राजनीतिक जमीन की तासीर मेल खा जाए. इसकी कई वजहें हैं.

पहली वजह तो रजनीकांत की राजनीति में हुई लेट एंट्री ही बन सकती है. राजनीति में टाइमिंग का बहुत महत्व होता है. फिल्म और राजनीति में एक बड़ा फर्क यह है कि फिल्म की पटकथा पहले से तैयार होती है और अभिनेता को तयशुदा अंदाज़ में अपनी भूमिका निभानी होती है लेकिन राजनीति में एक किरदार को अपनी पटकथा खुद गढ़नी पड़ती है और हर पल उसे बदलने के लिए तैयार भी रहना होता है. दूसरी वजह तमिलनाडु में पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता के निधन के बाद से प्रदेश का अनिश्चित राजनीतिक माहौल है. एआईएडीएमके की जयललिता भी फिल्म स्टार थीं, लेकिन उन्होंने सही समय पर राजनीति का दामन थाम लिया था.

कोई फिल्म अभिनेता अगर अपनी लोकप्रियता और कैरियर के चरम पर हो तो उसे अपनी राजनीति चमकाने में आसानी होती है. लेकिन रजनीकांत के मामले में इम्प्रेशन यह बन रहा है कि उन्होंने अपने फिल्मी कैरियर के लगभग समापन के समय अखाड़ा बदलना चाहा है. उनकी डगर कठिन होने की एक और महत्वपूर्ण वजह यह है कि उनके पास कोई स्पष्ट एजेंडा नहीं है.

तमिलनाडु की राजनीति 1967 से ही द्रविड़ियन धुरी पर घूम रही है. पिछले कुछ सालों से राज्य के मतदाताओं को चुनाव के समय रेवड़ियां बांटने या नकदी दिखाकर बहकाने का चलन भी जोर पकड़ रहा है. ऐसे में सिर्फ अपने प्रशंसकों के दम पर एक फिल्मस्टार के सफल होने की संभावनाएं कमज़ोर हो जाती हैं. एकाध चुनावी सफलता मिल भी गई तो फिर यह सवाल उठेगा कि आपके पास राज्य और समाज को देने के लिए कौन-सा मेवा-मिष्ठान्न है?

तमिलनाडु में यदि एमजीआर, जयललिता या आन्ध्र प्रदेश में एनटी रामराव जैसी कामयाबी की मिसालें हैं तो कई मिसालें ऐसी भी मिल जाएंगी जहां धमाकेदार शुरुआत के बावजूद फिल्मी सितारों की राजनीति धूमिल हो गई. एनटीआर अपनी फिल्मों में भगवान की भूमिकाएं निभाया करते थे, जिनकी पार्टी तेलुगुदेशम को आंध्र की जनता ने आज भी अपना भगवान बना रखा है! लेकिन दक्षिण भारत में ही चिरंजीवी और कुछ हास्य-कलाकारों समेत राजनीतिक विफलता के कई उदहारण भी मौजूद हैं और उत्तर भारत में देव आनंद, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र, शत्रुघ्न सिन्हा और गोविंदा, ख़ुशबू और नगमा जैसे कई सितारे हैं जिनमें से किसी ने कभी अपनी पार्टी बना डाली, कोई सांसद या प्रवक्ता बना और कुछ तो केंद्रीय मंत्री तक बने. लेकिन कुछ ही सालों में वे किनारे कर दिए गए या खुद ही अस्त हो गए.

राजनीति का दामन थामने वाले उत्तर और दक्षिण भारत के सिने-सितारों में एक और बड़ा फर्क है. जहां उत्तर के सितारे किसी बड़े राजनीतिक दल से जुड़ते हैं वहीं दक्षिण के अधिकांश सितारे अपनी ही पार्टी बना लेते हैं. यह ज्यादा मुश्किल रास्ता होता है. इसमें सितारे या उसके दल के सिर्फ अपने ही राज्य में सिमटे रहने की आशंका रहती है. केंद्रीय राजनीति में उनके बड़े हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं बनती. दूसरा फर्क यह भी है कि दक्षिण भारत में फिल्म सितारे मुख्य दलों के हाथों इस्तेमाल नहीं होते.

ऐसे में रजनीकांत अपनी प्रचंड फिल्मी लोकप्रियता के दम पर राजनीतिक सफ़र में कितनी दूर जा पाएंगे और अपने प्रदेश और देश की राजनीति में कैसा बदलाव ला सकेंगे, यह अभी कहना मुश्किल है. तमिलनाडु में अगला विधानसभा चुनाव 2021 में होगा. यानी रजनीकांत के पास पहली अग्निपरीक्षा की तैयारी के लिए अभी 3 वर्ष का

समय है. रजनीकांत के मैदान में आ जाने से तमिल राजनीति के लिए यह अच्छी बात होगी कि राज्य के 'टू पार्टी सिस्टम' को चुनौती मिलेगी और जनता को ज्यादा विकल्प मिलने से लोकतंत्र भी मजबूत होगा.

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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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