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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)

इश्क़ के बाद धर्म पर 'पहरेदारी' लगाने से भला क्या हासिल होगा?

दुनिया गवाह है कि इश्क़ पर पहरेदारी लगाने की सारी बंदिशें अब तक नाकाम ही साबित हुई हैं. कुछ वही पहरेबन्दी अब हमारे देश में धर्म को लेकर भी शुरू हो गई है. भले ही आप हैं तो हिंदू लेकिन गौतम बुद्ध के विचारों से प्रभावित होकर अगर आप बौद्ध धर्म धारण करना चाहते हैं, तो सरकार की इजाज़त के बगैर ऐसा नहीं कर सकते. इसकी शुरुआत तो कुछ राज्यों से हो ही चुकी है लेकिन अब कर्नाटक में भी इस कानून को राज्यपाल ने मंजूरी दे दी है. बताते हैं कि वहां बहुत सारे दलित हिंदुओं का ईसाई धर्म में शामिल होने का खतरा मंडरा रहा था, इसलिए धर्मांतरण विरोधी अध्यादेश को मिनटों में पास कराकर इसे लागू कर दिया गया.

आप उसकी तारीफ करें या नफ़रत करें लेकिन इतिहास के इस सच को भला कौन झुठला सकता है कि 20वीं सदी मे चन्द्र मोहन जैन उर्फ रजनीश उर्फ ओशो जैसी एक ऐसी शख्सियत का मध्य प्रदेश में जन्म हुआ था, जिसने सिर्फ अपनी वाणी से ही दुनिया की महाशक्ति कहलाने वाले अमेरिका समेत 28 देशों की सरकारों को हिलाकर रख दिया था. एक जमाना वह भी था, जब भारत समेत दुनिया के कई देश इस दार्शनिक से इतना भयभीत हो गये थे कि इसके अनुयायियों की संख्या अगर ऐसे ही बढ़ती रही,तो ये निहत्था शख्स एक दिन पूरी दुनिया पर राज करने के काबिल हो जाएगा. इसलिए ओशो को लिए ये बात फैलाई गई कि वे धर्म विरोधी होने के साथ ही सेक्स गुरु भी हैं. भारत में तो इसका असर हुआ लेकिन पश्चिम के देशों ने सरकार के इस प्रचार पर जरा भी भरोसा नहीं किया. वे ओशो के आध्यात्मिक दर्शन से इतने प्रभावित थे कि उन्हें ये यकीन हो गया था कि यही शख्स धर्म और उसके आडंबरों की बेड़ियों से हमें आज़ाद कर सकता है.

ओशो ने कहा था-"धर्म तुम्हें भयभीत कर विश्‍वास करना सिखाता है ताकि तुम उनके ग्रंथों पर सवाल खड़े न करो. प्रॉफेटों पर सवाल खड़े न करो. सदियों से धर्मों ने यही किया है. दुनिया में अब धर्मों की जरूरत नहीं क्योंकि धर्म का कोई भविष्‍य नहीं. मनुष्य ने अपनी पहचान को धर्म की पहचान से व्यक्त कर रखा है.कोई हिन्दू है, कोई मुसलमान, कोई सिख तो कोई ईसाई. धर्म के नाम पर सिर्फ आपसी भेदभाव ही बढ़े हैं.नतीजा यह है कि आज धर्म पहले है, मनुष्य और उसकी मनुष्यता बाद में.जबकि आनंद मनुष्य का स्वभाव है और आनंद की कोई जाति नहीं, उसका कोई धर्म नहीं."

बता दें कि कर्नाटक में धर्मांतरण विरोधी बिल (Anti-Conversion Bill) का विपक्षी दलों समेत ईसाई संगठन जबरदस्त विरोध कर रहे थे. लेकिन तमाम विरोधों के बावजूद कर्नाटक के राज्यपाल थावर चंद गहलोत ने मंगलवार को धर्मांतरण विरोधी बिल (Anti-Conversion Bill) पर लाए गए अध्यादेश को अपनी मंजूरी दे दी है. मध्य प्रदेश के मालवा इलाके से नाता रखने वाले गहलोत इस नियुक्ति से पहले केंद्रीय मंत्री व राज्यसभा में सदन के नेता थे.जाहिर है कि उन्हें कर्नाटक में राज्यपाल बनाकर भेजने के पीछे भी पार्टी व सरकार की कोई गंभीर सोच रही होगी, जिसकी बानगी वहां होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले ही देखने को मिल गई है.

दरअसल,चौतरफा विरोध के बावजूद कर्नाटक की बीजेपी सरकार ने धर्म परिवर्तन के खिलाफ कानून को प्रभावी बनाने के लिए अध्यादेश का रास्ता अपनाया था. इस विधेयक में धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार को सुरक्षा प्रदान की गयी है और उसमें गलत तथ्यों, जोर जबर्दस्ती, लालच देकर या धोखाधड़ी से अवैध धर्मांतरण करने पर पाबंदी लगाई गई  है.

कर्नाटक सरकार ने जिस अध्यादेश के जरिये ये कानून बना दिया है, उसके मुताबिक  जबरन धर्मांतरण के लिए 25,000 रुपये के जुर्माने के साथ तीन से पांच साल तक की कैद का प्रस्ताव है. बिल में ये भी कहा गया है कि नाबालिग, महिला या एससी/एसटी व्यक्ति का धर्म परिवर्तन कराने पर तीन से 10 साल की जेल और 50,000 रुपये का जुर्माना होगा. इसके अलावा सामूहिक धर्मांतरण के लिए तीन से 10 साल की जेल होगी, जिसमें एक लाख रुपये तक का जुर्माना होगा.

जबरन धर्म परिवर्तन को रोकने के मकसद से तो  ये ठीक है लेकिन इस कानून की उस बारीक पेचीदगी को समझने की जरुरत है जिसका जिक्र मैंने शुरुआत में ही किया है कि अब आप अपनी मर्जी से भी धर्म नहीं बदल सकते क्योंकि उस पर सरकार की पहरेदारी लग चुकी है.इसलिये कि जिस अध्यादेश को मंजूरी मिलने के बाद ये कानून बना है, उसमें साफ तौर पर कहा गया है कि जो अपना धर्म बदलना चाहता है, उसे पहले एक निर्धारित प्रपत्र में इसकी सूचना जिलाधिकारी या अतिरिक्त जिलाधिकारी या जिलाधिकारी द्वारा अधिकृत अधिकारी को देनी होगी.

मतलब ये कि सरकार का एक नौकरशाह अगर आपकी बताई बातों से संतुष्ट नहीं होता, तो वह आपको चाहते हुए भी धर्म परिवर्तन की इजाज़त नहीं देगा. हालांकि पहली नजर में ये संविधान में मिले मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का मामला नजर आता है लेकिन कानून के जानकार ही इसकी व्याख्या करने और इसे कोर्ट में चुनौती देने के लिए ज्यादा सक्षम हैं.

 लेकिन इस कानून के बहाने बरसों पहले महात्मा गांधी के लिखे उस लेख की याद आ जाती है, जो उन्होंने 'यंग इंडिया’ में लिखा था– ‘‘अगर हम हिंदू हैं तो हमें यह प्रार्थना नहीं करनी चाहिए कि कोई ईसाई हिंदू हो जाये, और मुसलमान हैं तो हमें यह दुआ नहीं मांगनी चाहिए कि हिंदू या ईसाई लोग मुसलमान बन जायें. हमें तो एकांत में भी यह प्रार्थना नहीं करनी चाहिए कि किसी का धर्म परिवर्तन हो, बल्कि हमारी आंतरिक प्रार्थना तो यह होनी चाहिए कि जो हिंदू है, वह और अच्‍छा और सच्‍चा हिंदू बने, जो मुसलमान है, वह और अच्‍छा मुसलमान बने और जो ईसाई है, वह और सच्‍चा ईसाई बने."

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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