इस वक्त मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का मुद्दा सुर्खियों में है. इसका कारण ये है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने 10 अगस्त को राज्य सभा में मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्त (नियुक्ति, सेवा शर्तें और पदावधि) विधेयक, 2023 लेकर आई है. इस विधेयक में मुख्य चुनाव आयुक्त समेत बाकी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए क्या प्रक्रिया रहेगी, उनकी सेवा शर्तें क्या होगी, उनके पदों की अवधि क्या होगी..ये सारी बातें तय की गई है.


चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया से जुड़ा मुद्दा


अब इस विधेयक को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप जारी है, विपक्ष का कहना है कि इसके जरिए सरकार चुनाव आयोग जैसी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था को कमजोर करना चाहती है. वहीं सरकार का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट से इस साल मार्च में आए फैसले के बाद चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए संसद से कानून बनाना जरूरी हो गया था.


क्या सरकार को न्यायपालिका का दखल पसंद नहीं?


दरअसल विवाद का कारण यही है कि मौजूदा विधेयक में सुप्रीम कोर्ट के आदेश की एक प्रमुख बात को शामिल नहीं किया गया है. मौजूदा विधेयक में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए जिस सेलेक्शन कमेटी की प्रावधान किया गया है, उसमें सुप्रीम कोर्ट के आदेश में जिस सेलेक्शन कमेटी की व्यवस्था की गई थी, उससे तारतम्य नहीं है.


सेलेक्शन कमेटी में सरकार का बहुमत


मौजूदा विधेयक के सेक्शन 7 में जिस चयन समिति का प्रावधान है, वो तीन सदस्यीय है. इस समिति में प्रधानमंत्री हैं, लोक सभा में विपक्ष के नेता हैं और तीसरे सदस्य के तौर पर एक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री को शामिल किया गया है. इस कैबिनेट मंत्री को प्रधानमंत्री मनोनीत करेंगे. ये स्पष्ट किया गया है कि नेता विपक्ष के तौर पर अगर लोक सभा में किसी को मान्यता नहीं मिली हुई है, तो विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को सेलेक्शन कमेटी का सदस्य बनाया जाएगा.


सुप्रीम कोर्ट की कमेटी में चीफ जस्टिस भी


दो मार्च 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने 378 पन्ने के ऐतिहासिक फैसले में मुख्य चुनाव आयुक्त और बाकी आयुक्तों के लिए जो सेलेक्शन कमेटी बनाने का आदेश दिया था, उसमें कमेटी में भी 3 सदस्य ही थे. पहला प्रधानमंत्री, दूसरा नेता विपक्ष हैं और तीसरे सदस्य के तौर पर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया होंगे.


विधेयक में चीफ जस्टिस की जगह कैबिनेट मंत्री


अब सरकारी विधेयक के मुताबिक सेलेक्शन कमेटी और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक सेलेक्शन कमेटी में विरोधाभास तीसरे सदस्य को लेकर हैं. मौजूदा विधेयक में सरकार ने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को सेलेक्शन कमेटी से बाहर कर दिया है. उनकी जगह एक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री को शामिल किया गया है.



नियुक्ति में सरकारी मनमानी की गुंजाइश


सरकार के इस फैसले से मुख्य निर्वाचन आयुक्त और बाकी दो निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में कार्यपालिका यानी सरकार की भूमिका निर्धारक तत्व की तरह हो जा रही है. कमेटी में तीन में दो सदस्य कार्यपालिका यानी सरकार से होंगे, इसका मतलब है कि सरकार जिन नामों पर सहमत होगी, उनका चुनाव आयुक्त बनना तय है.  सरकार ने अपने विधेयक के जरिए चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में न्यायपालिका की भूमिका या दखलअंदाजी को खत्म कर दिया है और सबसे प्रमुख बिंदु यही है, जिसको लेकर  विवाद है.


राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप को छोड़ दें और अगर इस मसले के सिर्फ़ संवैधानिक पहलुओं पर गौर करें, तो हमें संविधान में चुनाव आयोग के महत्व को पहले समझना होगा. उसके साथ ही ये भी समझना होगा कि आखिरकार इस साल दो मार्च को सुप्रीम कोर्ट को ऐसा आदेश क्यों देना पड़ा था.



चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था


लोकतंत्र के तहत संसदीय व्यवस्था में चुनाव की प्रक्रिया काफी महत्वपूर्ण हो जाती है. इसके लिए संविधान के भाग 15 में अनुच्छेद 324 से लेकर अनुच्छेद 329 तक देश में चुनाव कराने के लिए निर्वाचन आयोग से जुड़े प्रावधान हैं. अनुच्छेद 324 (1) में निर्वाचन आयोग यानी चुनाव आयोग की व्यवस्था है. इसी चुनाव आयोग के पास लोक सभा, राज्य सभा के साथ ही राज्य विधानमंडलों के लिए चुनाव कराने की जिम्मेदारी है. उसके अलावा राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव कराने की जिम्मेदारी भी इसी आयोग के पास है. इस लिहाज से देखें, तो संविधान में जितने भी निकायों या संस्थाओं का प्रावधान किया गया है, उनमें चुनाव आयोग अति महत्वपूर्ण निकाय है.


अनुच्छेद 324 (2) इस आयोग में मुख्य निर्चावन आयुक्त के साथ कितने और आयुक्त होंगे, इसके निर्धारण के लिए प्रावधान है. निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति संवैधानिक तौर से राष्ट्रपति करते हैं.


पहले सिर्फ मुख्य चुनाव आयुक्त होते थे


संविधान के लागू होने से लेकर 15 अक्टूबर 1989 तक निर्वाचन आयोग एक सदस्यीय संवैधानिक निकाय था. यानी सिर्फ मुख्य चुनाव आयुक्त होते थे. 16 अक्टूबर 1989 से इस आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ ही दो और चुनाव आयुक्तों की व्यवस्था की गई.  हालांकि 1990 में फिर से आयोग को एक सदस्यीय ही बना दिया गया और बाकी दो चुनाव आयुक्तों की व्यवस्था खत्म कर दी गई. लेकिन अक्टूबर 1993 में मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ बाकी दो चुनाव आयुक्तों की व्यवस्था को फिर से बहाल कर दिया गया. और यहीं व्यवस्था अभी भी जारी है.


नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर संसद से कानून नहीं


अब सवाल उठता है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और बाकी दोनों चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति अब तक कैसे होते रही है. चूंकि नियुक्ति का संवैधानिक अधिकार राष्ट्रपति को है और इसके लिए पहले कोई सेलेक्शन कमेटी की व्यवस्था नहीं थी. हां, ये बात है कि सर्च कमेटी होती थी जो नामों की सूची तैयार करके देती और उस सूची से सरकार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करते रही है. इस सर्च कमेटी के सदस्य  कार्यकारी का ही हिस्सा माने जाने वाले अधिकारी होते थे.


मार्च में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला


चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सरकारी प्रभुत्व खत्म हो और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक ऐसा सिस्टम हो, जिससे चुनाव आयोग की निष्पक्षता और स्वतंत्रता बरकरार रहे, इसके लिए 2015 में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की जाती है. अनूप बरनवाल की इस याचिका पर पहले दो सदस्यीय पीठ सुनवाई करती है. बाद में मामला पांच सदस्यीय संविधान पीठ को सौंप दिया जाता है. बीच में इस मामले में कई और पिटीशन भी जुड़ते जाते हैं. 


सेलेक्शन कमेटी बनाने का आदेश


आखिरकार दो मार्च 2023 को जस्टिस के एम जोसेफ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ का चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर ऐतिहासिक फैसला आता है. उसमें ही सुप्रीम कोर्ट आदेश देती है कि संसद से कानून बनाए जाने तक एक सेलेक्शन कमेटी की सिफारिशों के आधार पर चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति होगी.


आयोग की निष्पक्षता और स्वतंत्रता पर ज़ोर


सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गौर करें तो उसमें दो पहलू सबसे महत्वपूर्ण थे. पहला, चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और दूसरा, सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की निष्पक्षता और स्वतंत्रता को बेहद महत्वपूर्ण बताया था. सुप्रीम कोर्ट का अपने आदेश में कहना था कि देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए ये काफी महत्वपूर्ण है. इसी के आलोक में सुप्रीम कोर्ट ने संसद से काननू बनने तक सेलेक्शन कमेटी की व्यवस्था करने का आदेश दिया था.


चुनाव आयोग कोई कार्यकारी संस्था नहीं, बल्कि इसका गठन संविधान में ही निहित है. इसलिए ये जरूरी हो जाता है कि इस संस्था को लेकर लोगों का भरोसा बना रहे. मुख्य चुनाव आयुक्त और बाकी आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी हो, उसमें कोई सरकारी स्तर पर मैनिपुलेशन की संभावना न हो, सुप्रीम कोर्ट अपने आदेश के जरिए सिर्फ़ यही सुनिश्चित करना चाहती थी. सुप्रीम कोर्ट का सेलेक्शन कमेटी बनाने का आदेश पूरी तरह से सिर्फ़ और सिर्फ आयोग की निष्पक्षता और स्वतंत्रता को बरकरार रखने के आधार पर टिका था.


निष्पक्ष और पारदर्शी वैधानिक नियुक्ति प्रक्रिया हो


चूंकि चुनाव आयोग एक संवैधानिक निकाय है. ऐसे में ये जरूरी हो जाता है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक निष्पक्ष और पारदर्शी वैधानिक प्रक्रिया हो और वो प्रक्रिया संसद से बने कानून से निर्धारित हो. हालांकि संविधान के लागू होने के 73 साल बाद भी जब संसद से इसके लिए कोई कानून नहीं बना, तब जाकर  सुप्रीम कोर्ट से मार्च में सेलेक्शन कमेटी से जुड़ा आदेश आया. उससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने कई बार ये कहा था कि संविधान से ही संसद को ये अपेक्षा है कि वो निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति में पारदर्शिता लाने के लिए कानून बनाएगी. हालांकि संसद से अब तक ये कानून कोई भी सरकार नहीं बनवा पाई.


73 साल बाद भी संसद से नहीं बना कानून


सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कुछ बातों का जिक्र किया था. सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि सीबीआई एक संवैधानिक संस्था नहीं है, उसके बावजूद उसके डायरेक्टर की नियुक्ति के लिए 3 सदस्यीय कमेटी है. उसी तरह से मुख्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति के लिए एक 3 सदस्यीय सेलेक्शन कमेटी है. सेंट्रल विजिलेंस कमेटी के लिए भी एक सेलेक्शन कमेटी है. लोकपाल और लोकायुक्त कानून 2013 के तहत लोकपाल की नियुक्ति के लिए भी एक सेलेक्शन कमेटी है. ये सारे आयोग या संस्थान चुनाव आयोग की तरह संवैधानिक संस्था नहीं हैं, फिर भी इनके लिए सेलेक्शन कमेटी है.


अपने आदेश में इन बातों का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग के लिए सेलेक्शन कमेटी के महत्व पर प्रकाश डाला था. हालांकि संविधान लागू होने के बाद से एक लंबा वक्त बीत गया. कई सरकारें आई, गईं. सत्ता पक्ष में अलग-अलग दल आए,गए. उसके बावजूद चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए निष्पक्ष और पारदर्शी वैधानिक प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए संसद से कोई कानून नहीं बना. इस वजह से जब मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा तो एक लंबी सुनवाई के बाद देश की सर्वोच्च अदालत ने सेलेक्शन कमेटी बनाने का आदेश दिया.


अनुच्छेद 324 (2) में ही कानून की अपेक्षा निहित


सवाल उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट का सेलेक्शन कमेटी को लेकर आदेश नहीं आता तो क्या केंद्र सरकार ऐसा कोई कानून बनाने को लेकर संसद में विधेयक लाती. इसका जवाब सुप्रीम कोर्ट के ही आदेश में छिपा है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में  जब तक संसद संविधान के अनुच्छेद 324 (2) के अनुरूप कानून नहीं बनाती है, तब तक चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में उसके आदेश में बताए गए सेलेक्शन कमेटी के आधार पर ही नियुक्ति होगी. अनुच्छेद 324 (2) में जिक्र है कि निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति संसद द्वारा बनाए गए कानून के अधीन रहते हुए राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी. हालांकि इसको लेकर कोई कानून अब तक बना ही नहीं और ये नियुक्ति कार्यकारी आदेश के जरिए निर्धारित प्रक्रिया के तहत होते रही.


कोर्ट के आदेश के बाद कानून बनाना मजबूरी


सुप्रीम कोर्ट के इस साल मार्च के आदेश के बाद केंद्र सरकार के पास दो ही विकल्प बचे थे. पहला, केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक सेलेक्शन कमेटी बनाए और भविष्य में उसी की सिफारिशों पर चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति हो. केंद्र सरकार के पास दूसरा विकल्प ये था कि वो संसद से कानून बनाए और नियुक्ति के लिए एक प्रक्रिया उस कानून के जरिए सुनिश्चित करे. केंद्र सरकार इसी दूसरे विकल्प के तहत संसद में मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्त (नियुक्ति, सेवा शर्तें और पदावधि) विधेयक, 2023 लाई है.


नियुक्ति में सरकार की मनमानी का सवाल


कानून नहीं बनाने के एवज में केंद्र सरकार के पास सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों को मानने  के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता. ऐसे में उसे भविष्य में मुख्य निर्वाचन आयुक्त और बाकी दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए जो सेलेक्शन कमेटी बनानी पड़ी, उसमें चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया भी होते. ऐसा होने पर चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सरकारी प्रभुत्व या फिर सरकार की मनमानी जैसे आरोपों की गुंजाइश नहीं के बराबर रहती. अब सरकार जो कानून बनाना चाहती है, उस सेलेक्शन कमेटी में प्रधानमंत्री और एक कैबिनेट मंत्री के होने से इसमें सरकार का बहुमत हो जाता है, जिससे चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सरकार की मनमानी की गुंजाइश पूरी तरह से बन जाती है. यही वो वजह है कि विपक्ष चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर आरोप लगा रही है कि सरकार निरंकुशता की राह पर बढ़ रही है और संवैधानिक संस्थाओं का महत्व कम कर रही है.


सरकार कानून बनाने के लिए स्वतंत्र है


हालांकि इसका एक और भी महत्वपूर्ण पहलू है. भले ही सुप्रीम कोर्ट ने मार्च में एक ऐतिहासिक फैसला दिया, जिसकी वजह से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर संसद से कानून बनाने का रास्ता बन गया है. लेकिन ये भी एक संवैधानिक पहलू ही है कि केंद्रीय स्तर पर कानून बनाने की एकमात्र अथॉरिटी देश की संसद है. कानून बनाने में संसद की सर्वोच्चता पर कोई शक या संदेह की गुंजाइश नहीं है. ऐसे में सरकार उस कानून में क्या प्रावधान रखना चाहती है, ये पूरी तरह से सरकार का विशेषाधिकार है. 


कानून बनाने का अधिकार संसद को है


इसी बात का जिक्र करते हुए संवैधानिक मामलों के एक्सपर्ट और पटना हाईकोर्ट के एडवोकेट मानस प्रकाश का कहना है कि कानून बनाने का अधिकार संसद को है. सरकार उस कानून के मसौदे में क्या रखती है, ये न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर का विषय है. इसलिए चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया और सेलेक्शन कमेटी का क्या प्रारूप रहेगा, ये तय करने का अधिकार सरकार के पास ही है, जिसे वो विधेयक में रखती है. सुप्रीम कोर्ट ने मार्च में अपने आदेश में सेलेक्शन कमेटी को लेकर जो दिशानिर्देश दिए हैं, हूबहू वही संरचना रखना सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं है.


संवैधानिकता की समीक्षा कोर्ट के दायरे में


मानस प्रकाश आगे कहते हैं कि एक बार संसद से कानून बन जाए और अगर उसकी संवैधानिकता का सवाल सुप्रीम कोर्ट में पहुंचता है, तब ही देश की सर्वोच्च अदालत इसमें आगे कुछ कर सकती है. सुप्रीम कोर्ट का काम कानून बनाना नहीं है . हालांकि संसद से बने कानून में इस बात की पड़ताल करने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को जरूर है कि जो भी कानून संसद से पारित हुआ है, उससे संविधान की मूल ढांचा पर तो कोई असर नहीं पड़ रहा है. सुप्रीम कोर्ट ऐसा होने पर उस कानून को असंवैधानिक बताते हुए स्ट्रक डाउन भी कर सकती है. पहले भी कई मामलों में ऐसा हो चुका है और ताजा मामला जो सबके जेहन में है, वो है..राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC)कानून. हम सब जानते हैं कि संसद से 2014 में पारित इस कानून को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 16 अक्टूबर 2015 को असंवैधानिक करार देते हुए निरस्त कर दिया था.


भविष्य में क्या होगा कानून के साथ?


इस पहलू से सोचें, तो सरकार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कोई भी कानून संसद से पारित करवाना चाहती है, तो उसके लिए सुप्रीम कोर्ट के बताए गए सेलेक्शन केमेटी की संरचना को मानना जरूरी नहीं है. ये अलग बात है कि जब एक बार संसद से ये कानून बन जाएगा और उसकी संवैधानिकता का सवाल सुप्रीम कोर्ट में पहुंचेगा, तो फिर सर्वोच्च अदालत कानून से जुड़े तमाम पहलुओं की पड़ताल कर सकती है. संसद से पारित कानून के तहत सेलेक्शन कमेटी की संरचना से अगर सुप्रीम कोर्ट को लगेगा कि इससे चुनाव आयोग के उस ढांचे पर असर पड़ रहा है, जिसकी संकल्पना संविधान में की गई है तो फिर सर्वोच्च अदालत उस कानून को असंवैधानिक करार दे सकती है. हालांकि ये सब बातें भविष्य की हैं. उसमें भी संसद से कानून बन जाने और कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने की बाद की बातें हैं.


फिलहाल सरकार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया के लिए जो भी विधेयक लाई है, उसकी संवैधानिकता पर फिलहाल कोई सवाल नहीं उठता है. इतना जरूर है कि सरकार जो संरचना चाहती है, उसके मुताबिक संसद से कानून बनने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की कोई भूमिका नहीं रह जाएगी.


निष्पक्षता और स्वतंत्रता कैसे होगी सुनिश्चित?


चुनाव आयोग की निष्पक्षता और स्वतंत्रता का मुद्दा जरूर इससे जुड़ा है. चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में पारदर्शिता आए और सरकारी मनमानी की कोई गुंजाइश न रह जाए, इस लिहाज से सेलेक्शन कमेटी में सुप्रीम कोर्ट ने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को भी रखा था. हालांकि सरकार के विधेयक में चीफ जस्टिस को सेलेक्शन कमेटी का हिस्सा नहीं बनाया गया है. कैबिनेट मंत्री की बजाय अगर इस सेलेक्शन कमेटी में कोई और सदस्य होता जो कार्यपालिका का हिस्सा नहीं होता तो शायद निष्पक्षता और स्वतंत्रता से जुड़े नैरेटिव पर बहस इतना ज्यादा नहीं होती. भारत में चुनावी प्रक्रिया में गड़बड़ी का मुद्दा काफी पुराना है. हर चुनाव के बाद चुनावी प्रक्रिया में गड़बड़ी या धांधली को लेकर किसी न किसी दल या पक्ष से आरोप लगते रहे हैं.


चाहे चुनाव तारीखों का ऐलान हो, या फिर चुनाव में अधिकारियों की तैनाती का मुद्दा हो, या निष्पक्ष चुनाव कराने की जिम्मेदारी हो, निर्वाचन आयोग की इसमें एकमात्र अथॉरिटी है. ऐसे में चुनाव आयोग के साथ ही चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता और तटस्थता का पहलू बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है. एक बात तो तय है कि इन सभी सवालों को अदालती कसौटी पर तभी कसा जा सकता है, जब ये कानून का रूप ले ले.


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