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BLOG: अर्द्ध कुंभ में धर्म-संसदों ने गरमाई मंदिर की राजनीति

कुंभनगरी प्रयागराज में हुई बारिश के बाद यों तो मेला क्षेत्र में ठंड का प्रकोप बढ़ गया है, लेकिन आज से शुरू हो रही धर्म-संसदों ने धार्मिक-राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ा दी हैं. अब तक करोड़ों श्रद्धालु गंगा मैया में डुबकी लगाकर पुण्य अर्जित कर चुके हैं, लेकिन साधु-संतों के विराट जमावड़े के बीच इस बार श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण का मामला उबाल पर है. संत और श्रद्धालु मकर संक्रांति को प्रारंभ होकर वसंत पंचमी को समाप्त होने वाले इस पावन अर्द्धकुंभ का लाभ सरकार पर चौतरफा दबाव बनाने के लिए उठाना चाहते हैं. इन धर्म संसदों में संत-महात्माओं के साथ-साथ देश के बड़े नेताओं के सक्रिय होने की अटकलें भी लगाई जा रही हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि कुंभ भी अब वोटों की फसल काटने का अखाड़ा बना दिया गया है. धर्म-संसद आयोजित करने वाले संतों के खेमेबाजी भी देखने लायक है. एक तरफ आरएसएस और विहिप है, जो बीजेपी का समर्थन करती है, दूसरी ओर शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती और कम्प्यूटर बाबा हैं, जो खुलेआम बीजेपी, आरएसएस और विहिप को मंदिर के नाम पर वोट जुगाड़ने वाले संगठन बता रहे हैं.

पहली तीन दिवसीय धर्म-संसद शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की ओर से परमधर्म संसद सेक्टर 9 स्थित गंगा सेवा अभियानम् शिविर में 28, 29 व 30 जनवरी तक चलेगी. वहीं विश्व हिंदू परिषद की धर्म संसद 31 जनवरी व 1 फरवरी को होगी, जिसमें प्रमुख संत-महात्माओं के साथ आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत, बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के अलावा विहिप के सारे आला नेताओं के मौजूद रहने की चर्चा है. विश्व हिंदू परिषद की धर्म संसद में अखाड़ों के साथ आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक श्रीश्री रविशंकर ने शामिल होने की हामी भर दी है. अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि ने भी धर्म संसद में शिरकत करने की बात कही है. पहले नरेंद्र गिरि ने धर्म संसद पर सवाल खड़े किए थे लेकिन अब उन्होंने धर्म संसद में शामिल होने की बात स्वीकारी है. इसमें राम मंदिर का निर्माण, सबरीमाला में पहले वाली ही व्यवस्था लागू करने, गंगा की निर्मलता और सामाजिक समरसता के मुद्दों पर संत मंथन करेंगे. पिछले दिनों विहिप के कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार ने ऐलान किया था कि संत धर्म संसद के माध्यम से अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की तिथि की घोषणा भी करेंगे.

तीसरी धर्म-संसद में आगामी 2 फरवरी को संतों का विराट चिंतन शिविर लगेगा, जो दिगंबर अनी अखाड़ा के महामण्डलेश्वर और इस कुंभ मेले के आकर्षण का केंद्र बने कम्प्यूटर बाबा का डेरा होगा. इसमें आचार्य प्रमोद कृष्णम सहित देश के कई चर्चित धर्माचार्य शामिल होंगे. सूचना मिली है कि ये संत राम मंदिर को लेकर अभी तक हुए प्रयासों, उनके परिणाम और शीर्ष अदालत में चल रही सुनवाई पर अपनी-अपनी राय सामने रखेंगे और मंदिर निर्माण की नई रणनीति बनाएंगे. इसके साथ ही वे अपना कोई अंतिम प्रस्ताव पारित करके केंद्र और राज्य सरकार को भी भेज सकते हैं. इसी क्रम में अखाड़ों के सभी प्रमुख साधु-महात्मा राम मंदिर को लेकर ‘मन की बात’ करेंगे.

संत-महात्माओं और श्रद्धालुओं समेत पूरे देश को पता है कि राम मंदिर बीजेपी का मुख्य मुद्दा है. इसी मुद्दे पर सवार होकर उसने केंद्र और कई राज्यों में अपनी सरकारें बनाईं. केंद्र में पार्टी की सरकार होने के चलते वह सीधे मंदिर निर्माण की घोषणा कर नहीं सकती, इसलिए वह हिंदूवादी संगठनों तथा साधु-संतों को ढाल बना कर इस मुद्दे को 2019 के आम चुनाव तक किसी भी कीमत पर ठंडा नहीं पड़ने देना चाहती. सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई और संवैधानिक मजबूरियों के चलते मोदी सरकार के पास मंदिर निर्माण के अधिक विकल्प नहीं हैं, लेकिन उसके सामने यह विकल्प तो खुला ही हुआ है कि वह 1992 में बाबरी ध्वंस के बाद से तंबू में विराजमान रामलला को शीघ्र ही भव्य मंदिर में स्थापित करने की आशा हिंदुओं के मन में जगाए रख सके और कोर्ट की सुनवाई लटकाने का आरोप लगाकर प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस को हिंदूविरोधी होने का प्रमाणपत्र दे सके. इस पूरी कवायद की बंदूक चलाने के लिए साधु-संतों से बेहतर कंधा बीजेपी को भला और कहां मिल सकता है!

आरएसएस की छत्रछाया में पलने और चलने वाले विहिप जैसे दर्जनों हिंदूवादी संगठन 1992 के बाद से बीजेपी के पक्ष में वोटों का ध्रुवीकरण कराने के उपक्रम लगातार करते रहे हैं. उनके लिए यह राजनीतिक शह और मात का खेल है. पिछले दिनों अयोध्या और दिल्ली में आयोजित धर्म-संसदों में हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का खेल केंद्रीय मुद्दा बन गया था और मंदिर निर्माण की दिशा में होने वाली चर्चा गौण हो गई. अब तो बात बीजेपीई संत और कांग्रेसी संत का ठप्पा लगाने तक जा पहुंची है. प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में उतरने के दिन कुंभ में कुछ बाबा लोग प्रियंका गांधी के जैकारे लगाते देखे गए. कम्प्यूटर बाबा ने बयान दिया है कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर अभी तक जबानी जमाखर्च के अलावा ठोस कुछ नहीं हुआ. मंदिर निर्माण का बीड़ा उठाने वाले आरएसएस, विहिप और बीजेपी ने संतों व जनता की भावनाओं को ठगा है. चुनाव के समय राम मंदिर का मामला उठाकर सिर्फ वोट लिया गया. इससे हम आहत हैं, अब वादा खिलाफी नहीं चलेगी. जाहिर है कि उनके सीधे निशाने पर बीजेपी है.

कुंभ की स्थली सदा से ज्ञानामृत, वचनामृत और चरणामृत स्वरूप रही है. कुंभ के संत समागमों में ज्ञानामृत के माध्यम से समूचे विश्व की दार्शनिक मेधा को जागृत किया जाता था, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और पुराणों की अनसुलझी गुत्थियों पर विचार-विमर्श और उनका समाधान निकाला जाता था. वचनामृत का अर्थ यह है कि कुंभ से ऐसी वाणी बोलने का संदेश लेकर जाएं, जो समाज, राष्ट्र एवं विश्व के लिए पाथेय बने. चरणामृत का आशय है कि जब मानव ब्रह्मद्रवा गंगा, प्रेमद्रवा यमुना और अदृश्य उद्भूत सरस्वती के संगम पर डुबकी लगाता है, तो उसकी अविद्या और अज्ञान का अंधकार तिरोहित हो जाता है. लेकिन मेला क्षेत्र की गूंज से स्पष्ट है कि इस बार का अर्द्धकुंभ सिर्फ धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि राजनीतिक दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण हो गया है.

पिछले दिनों तीन राज्यों के विधानसभा तथा कई लोकसभा उप-चुनाव के परिणामों ने बीजेपी के सामने स्पष्ट कर दिया है कि सबका साथ सबका विकास वाला नारा और केंद्र की बहुप्रचारित कल्याणकारी योजनाएं वोटों की वर्षा कराने में कारगर नहीं हो पा रही हैं. भावनात्मक और आस्था के मुद्दे भड़काए और भुनाए बगैर उसकी चुनावी नैय्या पार नहीं लगने वाली है. इसीलिए पिछले कुछ महीनों से पार्टी लगातार राम मंदिर मुद्दे को अप्रत्यक्ष रूप से हवा देती रही है. लोकसभा चुनाव से ठीक पहले अर्द्ध कुंभ पार्टी के लिए सुनहरी मौका बन कर आया है. अखाड़ा परिषद्‌ और शंकराचार्यों के भारी मतभेदों के बावजूद रामराज्य की स्थापना, कठोर जनसंख्या नियंत्रण कानून, भारत में रहकर भारत की जड़ें खोदने के आरोप, कश्मीर के पत्थरबाजों पर करम और गोली चलाने वाले सैनिकों पर सितम, कश्मीरी पंडितों का मामला, मुस्लिम तुष्टीकरण जैसे हिंदू-मुस्लिम विभेदक मुद्दे कुंभनगरी में जुटे साधु-संतों की जबान पर हैं. बीजेपी के रणनीतिकारों की समझ के अनुसार एसपी-बीएसपी गठबंधन के फलस्वरूप उत्तर प्रदेश में हो रही जातिगत सोशल इंजीनियरिंग की काट तीर्थराज प्रयाग में अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मूल मंत्र को फिर से जप कर निकाली जा सकती है. प्रधानमंत्री मोदी जी ने भी अर्द्धकुंभ की ब्रांडिंग के लिए अपनी साप्ताहिक ‘मन की बात’ में ‘जितना भव्य उतना ही दिव्य’ टैगलाइन इस्तेमाल की थी. कुंभ से ठीक पहले सदियों पुराने इस मानव-महासंगम की स्थली का नाम बदलने को इसकी रीब्रांडिंग करने के प्रयास के तौर पर भी देखा जा सकता है. यही वजह है कि मानव विकास सूचकांक में राष्ट्रीय औसत से भी फिसड्डी और गन्ना किसानों के दाम तक न चुका पाने वाले सूबे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कुंभनगरी को आकर्षक गंतव्य बनाने के लिए लगभग 4300 करोड़ रुपए खर्च किए हैं.

नेताओं को क्या चाहिए, वोटरों का जमावड़ा और अर्द्धकुंभ में तो देश के कोने-कोने से करोड़ों वोटर अपना पैसा खर्च करके स्वयं जमा होते हैं. धार्मिक रूप से उत्साहित इन वोटरों की आस्था के ज्वार का लाभ उठाने से कोई भी दल भला क्यों चूकेगा? हालांकि उत्तर प्रदेश की भूमि होने के बावजूद अर्द्धकुंभ की राजनीति में सपा-बसपा को अपने लिए कोई नफा-नुकसान नजर नहीं आ रहा है जबकि नरम हिंदुत्व के रास्ते पर आगे बढ़ रही कांग्रेस किनारे बैठ कर मेले का तमाशा देख रही है और आगामी आम चुनाव के लिए साधु-संतों के माध्यम से रामजन्मभूमि मुद्दे को प्रज्जवलित करके फिलहाल बीजेपी ने बढ़त बना रखी है.

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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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