इफ्तार पार्टी में मौजूदगी, दंगा प्रभावित इलाकों से दूरी, आखिर क्या है CM नीतीश की सियासी मजबूरी?
बिहार में रामनवमी के मौके पर दंगा भड़की. लेकिन राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अब तक उन दंगा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा नहीं किया. दूसरी तरफ, पूर्व सीएम राबड़ी आवास पर नीतीश कुमार ने शिरकत किया. इस मौके पर चिराग पासवान, जेडीयू चीफ ललन सिंह, जीतन राम मांझी समेत महागठबंधन के कई बड़े नेता शामिल हुए. ऐसे में सबके जेहन में इस वक्त ये सवाल उठ रहा है कि आखिर ऐसे वक्त पर जब बिहार दंगा की आग में झुलसा तो सीएम ने उन इलाकों का दौरा क्यों नहीं किया? क्यों नीतीश ने वहां से दूरी बनाई? जबकि चाहे राबड़ी आवास में इफ्तार पार्टी हो या फिर जेडीयू एमएलसी खालिद अनवर के यहां पर इफ्तार पार्टी, नीतीश कुमार बखूबी वहां पर नजर आए.
दरअसल, भले ही इसके पीछे कई मायने हो सकते हैं, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सेक्युलर पार्टियां रमजान के महीने में इफ्तार देते रहे हैं. उनका एक पुराना इतिहास रहा है. अगर उस पर आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि सभी पार्टियों ने रमजान के महीने में इफ्तार पार्टी दी है. बिहार में रामनवमी में जो दंगे हुए और यह कहा जाए कि अल्पसंख्यक वोट को अपने पाले में करने के लिए इफ्तार दी जा रही है, उससे मैं बहुत हद तक सहमत नहीं हूं. क्योंकि यह रमजान का महीना है. इस महीने में इफ्तार पार्टी देने की परंपरा वर्षों से चली रही है. इसमें कोई नहीं बात नहीं है. सासाराम और नालंदा के बिहारशरीफ में जो दंगे हुए, इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं. भारतवर्ष में जो दंगों का भी इतिहास बहुत पुराना रहा है.
दंगा क्षेत्रों से नीतीश की दूरी क्यों?
लेकिन इधर, कुछ वर्षों से या दशकों से इसका सीधा संबंध चुनाव और वोट बैंक से भी जुड़ जाता है. इसे आप प्रचलित ढंग से कहे कि ये मुस्लिम या अल्पसंख्यक वोट बैंक है..तो मुस्लिम वोट बैंक तो अधिक नहीं है, हिंदू वोट बैंक ही है. अब जिसे मुस्लिम वोट बैंक कहते हैं या कोई भी वोट बैंक के लिए मुझे नहीं लगता है कि उसे पाने के लिए इफ्तार पार्टी दी जा रही है. इसे एक भाईचारे की दृष्टि से और सौहार्दपूर्ण संबंधों को बनाए रखने की दृष्टिकोण से भी देखा जा सकता है. राजद, जदयू और कांग्रेस कभी भी मुस्लिम विरोधी पार्टी नहीं रही है. मुस्लिम विरोधी पार्टी इस देश में भाजपा ही है. चूंकि भाजपा की जो विचारधारा है वो आरएसएस की विचारधारा है. अगर आप इसे बंच ऑफ थॉट्स में देखेंगे तो एमएस गोलवलकर तीन आंतरिक शत्रुओं की बात करते हैं. उसमें मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट आते हैं. इसलिए इन पार्टियों के इफ्तार पार्टी को मैं उस दृष्टि से नहीं देखता हूं.
राबड़ी देवी के यहां पर जो इफ्तार पार्टी हुई और उसमें नीतीश कुमार और अन्य दलों की जो उपस्थिति रही वो स्वाभाविक है. चूंकि राज्य में सरकार भी इन्हीं दलों की है. गठबंधन की तरह है नहीं कि हम गठबंधन बनाएंगे और आप आ जाइए हमारे साथ. इस इफ्तार पार्टी को दो-तीन दृष्टियों से देखे जाने की जरूरत है. पहली बात यह कि यह रमजान का महीना है और भाईचारे को सुदृढ़ करने के लिए पार्टी दी जा रही है. दूसरी बात ये कि अगर इसे कोई राजनैतिक चश्में से देखता है तो यह भी ठीक है कि हम आपका भला सोचते हैं. कम से कम कहने के लिए ये तो सेक्युलर पार्टी हैं ही न, भाजपा को तो यह नहीं कहा जा सकता है. चूंकि भाजपा का इसे लेकर अपना इतिहास है. 2014 के लोकसभा चुनाव में 282 सांसदों में कितने मुस्लिम सांसद थे. उन्होंने किसी भी मुसलमान को टिकट दिया था क्या? यहां चाहे राजद, जदयू या कांग्रेस हैं तो इनके यहां तो मुस्लिम विधायक और सांसद दोनों ही हैं. मुझे लगता है कि इसमें कोई घालमेल करने की कोई जरूरत नहीं है.
कमजोर हुए सेक्युलरिज्म?
ये बात ठीक है कि सेक्युलरिज्म कमजोर हुआ और उसे कमजोर बनाने में सेक्युलरिज्म पार्टियों की भी कमोबेश भूमिका रही है. लेकिन तमाम उनकी खराबियों के बाद भी हम ये मानते हैं कि वो सेक्युलर पार्टी हैं. अगर राजद को ही देखें, वहां उसकी सरकार है. लालू यादव के किसी नीति से हम असहमत हो सकते हैं. उनमें बहुत सारे दुर्गुण हैं लेकिन उन्होंने आज तक कभी भी भाजपा से हाथ नहीं मिलाया है. लालू यादव ने तो भाजपा को भारत जलाओ पार्टी ही कहा था जिसे आज वो भूल गए हैं. वो सेक्युलर है. एक जमाने में उनका एमवाई समीकरण था. आप बताएं कि कौन उनका समर्थक नहीं रहा है. वो ओबीसी में हैं, दलितों में हैं सर्वत्र हैं.
नीतीश कुमार को वहां जाना चाहिए था. अगर वो हिंसा के बाद सासाराम और बिहारशरीफ में नहीं गए, ये उनकी गलती है. इस संबंध में उनसे सवाल पूछा जाना चाहिए. चूंकि एक राज्य के मुख्यमंत्री की हैसियत से यह उनकी जिम्मेदारी बनती है कि वे वहां जाएं, लेकिन उन्होंने इसका निर्वहण नहीं किया है. ये सवाल अगर लोगों के मन में उत्पन्न होता है तो यह बिल्कुल ठीक है. क्योंकि ये सवाल खड़ा करने का मौका वो खुद ही दे रहे हैं. अगर कहीं दंगा हो गया और उनकी कहीं व्यस्तताएं हो सकती हैं. लेकिन दंगे को थोड़ी देर में कंट्रोल किया जा सकता है. ये लॉ एंड ऑर्डर का मामला है और इसकी सारी जिम्मेदारी अंततः राज्य के मुख्यमंत्री या गृहमंत्री पर ही चली जाएगी.
आखिर क्यों भड़क रहा दंगा?
ये सवाल वाजिब है. ऐसा लोग सोच सकते हैं कि नीतीश कुमार अप्रत्यक्ष तौर पर अल्पसंख्यक समुदाय को खुश करना चाहते हैं. ये सवाल उनसे पूछा जाना चाहिए कि हिंसा के बाद आप पटना में इफ्तार मना रहे हैं लेकिन दोनों जिलों में नहीं जा रहा है. मैं एक नागरिक के नाते यही कह सकता हूं कि वहां जाना मुख्यमंत्री का जरूरी था. बड़ी बात ये भी है कि ये घटनाएं इसी समय क्यों हुई. इस बात का ध्यान पत्रकारों और चैनलों को भी रखना चाहिए कि बिहार में इस तरह के दंगे इससे पहले कब हुए हैं? कितने समय के बात ये दंगे हुए हैं? क्यों हो रहे हैं, इसके कारण क्या हैं? इन सभी पहलुओं को देखा जाना चाहिए. अभी सारा का सारा माहौल पूरे देश में 2024 के चुनाव को लेकर बना हुआ है. अगर कोई इसे 2024 से जोड़ कर देखता है, ये भी एक प्रकार से सही होगा. बिहार को अशांत करने की दृष्टि से देखा जाए यह भी सही होगा. दूसरी बड़ी बात ये है कि ये दंगे जिन राज्यों में हुए हैं वो सभी गैर-भाजपा राज्य हैं.
दरअसल, राजनीति अब इतनी तिकड़मी हो गई है कि कुछ भी ठीक से कहा नहीं जा सकता है. दंगा कोई भी करवा सकता है. वडोदरा गुजरात में है और अहिंदी भाषी क्षेत्र है. लेकिन मध्यप्रदेश तो हिंदी भाषी प्रदेश है और हिंदी भाषी प्रदेशों की जो लोकसभा में भूमिका है वो सबसे बड़ी है. सभी हिंदी प्रदेशों को अगर मिला दें तो कुल 225 सीटें हैं. इसमें से अगर भाजपा को 100 सीटें आती हैं, तो क्या वो केंद्र में सरकार बना पाएगी? अभी उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है, वहां इस तरह के कितने उदाहरण देखने को मिले हैं. स्पष्ट तौर पर बैटलग्राउंड हिंदी प्रदेश हैं क्योंकि यहां से 225 सांसद चुने जाते हैं. बिहार के 40, यूपी के 80, झारखंड के 14 हैं. इस तरह से आप देखते चलिए. अगर हिंदी प्रदेश चाहेगा वो फिर से 2024 में सत्ता में आएंगे. मैं ये बात पहले से कहता आ रहा हूं कि चुनाव से पूर्व हिंदी प्रदेशों में कई तरह की घटनाएं होंगी लेकिन वो किस रूप में समाने आएंगे यह कोई नहीं कह सकता है.
[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]