केजरीवाल की गिरफ्तारी, उनका इस्तीफा न देने पर अड़ना और चुनावी राजनीति पर असर
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को प्रवर्तन निदेशालय के 9 वें समन पर दिल्ली हाईकोर्ट की राहत न मिलने के बाद गुरुवार शाम 21 मार्च को उनके आवास से गिरफ्तार कर लिया गया था. मुख्यमंत्री केजरीवाल की गिरफ्तारी ऐसे समय हुई है, जब लोकसभा चुनाव का कार्यक्रम घोषित हो चुका है और पार्टी पहले से ही अपने कुछ वरिष्ठ नेताओं की गिरफ्तारी का सामना कर रही है. दिल्ली में आम आदमी पार्टी जहां धरना-प्रदर्शन के ज़रिए ये साबित करने में लगी है कि अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी केंद्र में बीजेपी सरकार की साज़िश है, वहीं बीजेपी भी ज़मीन पर प्रदर्शन के ज़रिए अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को भ्रष्ट बताने की कोशिश कर रही है.
जनता किसकी सुनेगी ये हमें लोकसभा चुनावों में दिल्ली और पंजाब की लोकसभा सीटों पर इन दोनों पार्टियों के प्रदर्शन से पता चलेगा, लेकिन संकेत और संभावनाएं क्या हैं ये हम आपको बताने जा रहें हैं.
आम आदमी पार्टी के लिए अस्तित्व का संकट?
अगर केजरीवाल को जल्द ही अदालतों से राहत नहीं मिलती है, जैसा कि बुधवार को दिल्ली हाई कोर्ट में हुआ, तो आम आदमी पार्टी को अस्तित्व के संकट का सामना करना पड़ सकता है. केजरीवाल के बाद प्रभाव रखने वाले पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिसा और संजय सिंह पहले से ही जेल में हैं. आम आदमी पार्टी के पास इस समय एक भी ऐसा नेता नहीं है जो कार्यकर्ताओं को एकजुट रख सके. आम आदमी पार्टी के लिए अभी तक का यह सबसे नाजुक समय है. दरअसल आम आदमी पार्टी केजरीवाल के नाम पर चल रही है, दिल्ली ही वह राज्य है जिसका चाहे शिक्षा मॉडल हो या स्वास्थ्य का मॉडल या फिर बिजली-पानी फ्री वाली योजनाएं, जिनका देशभर में आम आदमी पार्टी प्रचार कर रही थी और उसका लाभ भी पार्टी को मिल रहा था. शायद यही कारण है कि आम आदमी पार्टी गुजरात विधानसभा चुनाव में पांच सीटें जीत पाने में सफल रही.
आम आदमी पार्टी की दिल्ली के अलावा पंजाब में पूर्ण बहुमत की सरकार है. आम आदमी पार्टी अब देश भर में अपना तेजी से विस्तार चाहती है. ऐसे समय में वह एक ऐसे नेता की सेवाएं खो देगी, जिसकी सामूहिक अपील के मामले में पार्टी में कोई समकक्ष नेता नहीं है. इससे पार्टी के लिए गंभीर चुनौती खड़ी होने की आशंका है. पार्टी के लिए अपने नेताओं को एकजुट रखने की चुनौती भी बढ़ गई है इसका ताज़ा उदाहरण पंजाब है जहां विधानसभा में भारी बहुमत कि सरकार होने के बावजूद पार्टी के जालंधर सीट से एक मात्र सांसद, सुशील कुमार रिंकू और विधायक शीतल अंगुराल बीजेपी में शामिल हो गए. ये तब हुआ जब सुशील कुमार रिंकू को आम आदमी पार्टी पहले ही 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए जालंधर सीट से ही उम्मीदवार घोषित कर चुकी है.
जेल से सरकार चलाने के फैसले का असर
आम आदमी पार्टी ने हाल ही में ईडी की हिरासत के अरविंद केजरीवाल के अपने मंत्रियों को दिए आदेशों को दिखा कर ये दिखा रही है कि अरविंद केजरीवाल जेल से ही सरकार चलायेगें क्योंकि उन्हे दिल्ली की जनता की बहुत चिन्ता है. कानून में भी ऐसा कोई प्रावधान नजर नहीं आता है जो किसी मुख्यमंत्री को जेल से सरकार चलाने से रोकता हो, हालांकि जेल मैनुअल नाम की एक चीज होती है, जो जाहिर तौर पर उनको ऐसी भूमिका में आने से रोकते हैं.. ऐसी स्थिति में आम आदमी पार्टी का ये स्टंट जनता को कितना भाएगा ये देखना होगा. जहां एक ओर इससे जनता की सहानुभूति मिलने की संभावना हो सकती है, वहीं ये संदेश भी जा सकता है कि अरविंद केजरीवाल कुर्सी से चिपके रहना चाहते हैं.
क्या केजरीवाल की गिरफ्तारी का असर होगा?
वैसे तो 2024 के लोकसभा चुनावों में 543 सीटों में से आम आदमी पार्टी कुल 20 सीटों पर ही चुनाव लड रही है. जिनमें दिल्ली की 4, हरियाणा की 1, गुजरात की 2 और पंजाब की 13 लोकसभा सीटें शामिल हैं. लेकिन लोकसभा चुनावों पर इस घटना का असर केवल आम आदमी पार्टी की सीटों पर सीमित रहेगा ये कहना मुश्किल है. लोकसभा चुनाव में इसका असर इस रूप में हो सकता है कि यह विपक्ष को एक बार फिर और ज्यादा मजबूती के साथ एकजुट होने की वजह दे सकती है, बशर्ते कि विपक्ष इस मुद्दे पर एक हो पाए. जिन लोगों ने विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी को चुना था, उन्होंने लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी के पक्ष में वोट किया. बीजेपी ने 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव बडे पैमाने पर राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा. 2014 के लोकसभा चुनावों में, बीजेपी को 46.6% वोट हासिल हुए और उसने दिल्ली की सभी 7 सीटें जीतीं, जबकि आम आदमी पार्टी 33% वोट हासिल करने के बावजूद अपना खाता नहीं खोल पायी. कांग्रेस का वोट शेयर 15% रहा था. लेकिन विधान सभा चुनावों में आम आदमी पार्टी को 54.5% वोट हासिल हुआ और 70 में से 67 सीटों पर उसने जीत हासिल की. जबकि बीजेपी ने 32.3 प्रतिशत वोटों के साथ सिर्फ तीन सीटें जीतीं.
2019 के लोकसभा चुनावों में, बीजेपी ने लगभग 57 प्रतिशत वोट पाये और एक बार फिर सभी सातों सीटों पर जीत हासिल की. कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को 22.5 प्रतिशत और 18.1 प्रतिशत वोट के साथ कोई सीट नहीं मिली. विधानसभा चुनावों में, आम आदमी पार्टी ने 53 प्रतिशत वोटों के साथ 70 में से 62 सीटें जीतीं और बीजेपी ने 38 प्रतिशत वोटों के साथ आठ सीटें जीतीं. यानी 2014 के लोकसभा और उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों का पांच साल बाद वही पैटर्न वापस आ गया.
दिल्ली में राष्ट्रीय मुद्दों के साथ केजरीवाल भी मसला
दिल्ली में इस बार लोकसभा चुनाव में सिर्फ राष्ट्रीय मुद्दे ही हावी नहीं रहेंगे बल्कि पहले मौजूदा मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी से उठे सवाल भी इसमें शामिल होंगे. ये हो सकता है कि केजरीवाल की गिरफ़्तारी से आम आदमी पार्टी को लोकसभा में बीजेपी और विधानसभा में आम आदमी पार्टी के पैटर्न को तोड़ने में मदद मिले. मुख्य बात झुग्गियों में रहने वाले बड़े पैमाने पर हिंदू मतदाता होंगे जो केजरीवाल की लोकलुभावन राजनीति के लाभार्थी रहे हैं और क्या वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वोट देंगे या कुछ हद तक आम आदमी पार्टी की ओर रुख करेंगे. यदि ऐसा होता है तो दिल्ली में इस बार परिणाम पलट सकते हैं. एक राज्य और है जहां केजरीवाल के प्रति सहानुभूति का बड़ा संभावित असर हो सकता है और वो है पंजाब, यहां कि 13 लोकसभा सीटों में से फिलहाल 8 कांग्रेस के पास हैं तो 2 अकाली दल के पास. बीजेपी के हिस्से में गुरदासपुर और होशियारपुर की दो लोकसभा सीटें है. आम आदमी पार्टी के पास पंजाब की केवल एक सीट जालंधर है. पंजाब में बीजेपी कमजोर है और उसका आधार शहरी हिंदुओं तक सीमित है. राज्य में अब तक मुकाबला आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच होता दिख रहा था. जो दिल्ली, गोवा, गुजरात और हरियाणा में विपक्षी गठबंधन के सहयोगी हैं, लेकिन पंजाब में सीधे मुकाबले में हैं. यदि पंजाब में केजरीवाल के प्रति सहानुभूति है, तो हार का खतरा कांग्रेस पर विरोधाभासी रूप से मंडराएगा.
गुजरात और हरियाणा जैसे राज्यों में जहां आम आदमी पार्टी उभरती हुई पार्टी दिखाई देती है वहां फिलहाल इस मामले का असर सीमित रहने की संभावना है क्योंकि गुजरात में कुल 26 लोकसभा सीटों में से आम आदमी पार्टी कांग्रेस के साथ गठबंधन में केवल भरुच और भावनगर में चुनाव लड रही है. वहीं हरियाणा कांग्रेस से गठबंधन में आम आदमी पार्टी ने केवल कुरुक्षेत्र से उम्मीदवार उतारा है. इसका कारण आम आदमी पार्टी के संगठन का इन राज्यों फिलहाल कमज़ोर होना है.
क्या विपक्ष होगा एक?
अब तक जो बात लोगों की ज़ुबां पर थी वो है एनडीए के मजबूत होने और विपक्षी गठबंधन के पतन की. केजरीवाल की गिरफ्तारी से विपक्ष को दिल्ली के मुख्यमंत्री के आसपास एकजुट होने और कुछ जरूरी गति हासिल करने का मौका मिला है. सवाल यह है कि विपक्षी दल किस हद तक एकजुट होंगे क्योंकि कांग्रेस और प्रमुख क्षेत्रीय दलों के हितों के टकराव ने पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में विपक्षी गठबंधन को धक्का लगाया है. पंजाब और केरल जैसे राज्य भी में संभावित बीजेपी विरोधी सहयोगियों में कमजोरी के रुप में प्रस्तुत हैं. विपक्षी गठबंधन के लिए ज्यादा संभावना तब बनेगी जब केजरीवाल चुनावी मैदान में नजर आएंगे. विपक्ष में मची हलचल से साफ है कि वह 2024 के लोकसभा चुनाव में ईडी, सीबीआई के दुरुपयोग को अब आक्रामकता के साथ मुद्दा बनाएगा.
देखना होगा कि जनता चुनाव में विपक्ष के बीजेपी के खिलाफ उसके वाशिंग मशीन वाले प्रचार को कितनी अहमियत देती है. ये तो दिखाई देता है कि बीजेपी में विपक्ष से शामिल हुए असम के मुख्यमंत्री हेमंता बिस्वा सरमा, महाराष्ट्र के जाने-माने नेता नारायण राणे और अशोक चव्हाण, पश्चिम बंगाल से मुकुल रॉय और सुवेंदु अधिकारी, हरियाणा से नवीन जिंदल और कर्नाटक के पूर्व मंत्री जी जनार्दन रेड्डी पहले और हाल के उन कई चेहरों में से हैं जिनपर भ्रष्टाचार के गंभीर आऱोप लगे हैं लेकिन फिर भी बीजेपी में उनका रेड कारपेट वेलकम होता दिखता है. ऐसे में भ्रष्ट नेताओं को बीजेपी में जगह देने से उनकी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम जनता के बीच खोखली साबित हो सकती है. जनता के बीच विपक्ष की तरफ से ये संदेश भी काम करता दिखता है कि प्रवर्तन निदेशालय हो या सीबीआई की भ्रष्टाचार के विरुद्ध कारवाई विपक्ष के नेताओं के ही खिलाफ ही हो रही है. यह समाज में सरकार की नैतिकता पर सवाल खड़ा करता है.
हालांकि, जनता के बीच ये सवाल भी पुख्ता तौर से उठ रहें हैं कि प्रवर्तन निदेशालय हो या सीबीआई, गिरफ्तार करके आरोपी को अदालत में पेश करते हैं. अदालत में आरोपी जमानत याचिका दायर करता है और उसे जमानत नहीं मिलती. इससे सामान्य जनता में यही संदेश जाता है कि दाल में कुछ काला था. नकारात्मकता समाज में तेजी से जगह बनाती है. दूसरे, जांच एजेंसियों ने जिस किसी पर भी कार्रवाई की है, उनके खिलाफ मामले हैं. फिलहाल इससे केंद्र की मोदी सरकार को ही फायदा मिलता दिखाई दे रहा है. यही देखने वाली बात होगी कि जनता चुनाव में इस पर मतों के जरिए क्या प्रतिक्रिया देती है.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]