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केजरीवाल को उनकी ही सीट पर सीमित करने में लगी कांग्रेस और बीजेपी, लेकिन दो सीटों से चुनाव की बात कोरी अफवाह

आप तक भी यह खबर पहुंची होगी. कि केजरीवाल दिल्ली की दो विधानसभा सीटों से चुनाव लड़ेंगे. वजह, नई दिल्ली विधानसभा सीट से भाजपा के प्रवेश वर्मा, कांग्रेस के संदीप दीक्षित और वोट काटने-वोट जोड़ने के कथित खेल ने केजरीवाल के आत्मविश्वास को डिगा दिया है. तो, सबसे पहली बात. राजनीति का नौसिखुआ भी जानता है कि दिल्ली में विधान परिषद् नहीं है. सीएम बनने के लिए विधानसभा का चुनाव जीतना ही जीतना होगा. आइये, दिल्ली विधानसभा चुनाव के कुछ दिलचस्प तथ्य और अफवाहों पर एक नजर डालते हैं: 

सीएम के बेटे वर्सेज पूर्व सीएम 

अरविन्द केजरीवाल अगर ऐसी घोषणा कर दें (दो सीट से चुनाव लड़ने की) तो विपक्ष-जनता-मीडिया में सीधा सन्देश क्या जाएगा? जाहिर है, सब यही समझेंगे कि वाकई आम आदमी पार्टी की हालत खराब है और नई दिल्ली विधान सभा सीट पर भी केजरीवाल खुद फंस गए है. तो इसका असर क्या होगा? इसका खामियाजा पूरी पार्टी को चुनाव में उठाना पडेगा. तो, क्या केजरीवाल जान-बूझ कर ऐसी गलती करेंगे? कभी नहीं. तो क्या ये अफवाहें उड़ाई गयी है, ताकि केजरीवाल के आत्मविश्वास को डिगा दिया जाए? हां, लेकिन अफवाह उड़ाने वालों को बेसिक जानकारी भी नहीं है कि नई दिल्ली विधानसभा सीट से केजरीवाल हैट्रिक बना चुके है. एक बार शीला दीक्षित जी को और दो बार भाजपा उम्मीदावार को हरा कर. वह भी क्रमश: (13, 15, 20 के चुनाव) 26 हजार, 31 हजार और 21 हजार वोट के मार्जिन से. 60 फीसदी से अधिक वोटों के साथ वे यहां से चुनाव जीत चुके है. फिर भी, उन्हें क्या घबराने की जरूरत है. सिर्फ इसलिए कि उनके सामने संदीप दीक्षित हैं, जो दिल्ली की लोकप्रिय मुख्यमंत्री रही शीला दीक्षित जी के सुपुत्र हैं या प्रवेश वर्मा भी पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के सुपुत्र हैं? 

दीक्षित करा पाएंगे “घरवापसी” 

संदीप दीक्षित शायद यही मान रहे होंगे कि जो मुस्लिम वोट कभी उनकी माता जी के साथ एकजुट रहता था, वो उनके पास आ जाएगा. वो यह भी सोच रहे होंगे कि शीला जी के साथ नई दिल्ली क्षेत्र का जो संभ्रांत वर्ग था और अब एक हद तक भाजपा के पास जा चुका है, उसे वे कांग्रेस की तरफ ले आएंगे. उनका यह सब सोचना ठीक हो सकता है. लेकिन, हकीकत क्या है? हकीकत यही है कि अगर वे इलीट क्लास को अपनी तरफ खींचते हैं, तो भाजपा को नुकसान होगा. और सबसे अहम यह कि क्या मुस्लिम वोटर्स अपने टैक्टिकल वोटिंग पैटर्न को छोड़ कर भाजपा को जीत जाने के लिए तैयार हो पाएगा? यूपी के चुनाव में सपा और बसपा के बीच मुस्लिम मतों के बंटवारे का हश्र मुस्लिम मतदाता देख चुके हैं और तकरीबन तमाम नाराजगी के बाद भी, वे उसी टैक्टिकल वोटिंग पैटर्न को फॉलो करते हैं, जिससे कि भाजपा के उम्मीदवार को हराया जा सके. ऐसे में, संदीप दीक्षित कितने रूठे मतदाताओं की घर वापसी करा पाएंगे? एक ख़ास सीमा तक करा भी लिया, तो क्या वह केजरीवाल को हारने के लिए काफी होगा?  केजरीवाल के पुराने दो चुनावों की जीत का मार्जिन और वोट फीसदी देखेंगे, तो यह अपराजेय टाइप लगता है. हां, जीत का मार्जिन कुछ कम हो जाए, यह अलग बात है. वह भी ऐसी स्थिति में, जब केजरीवाल लगातार वोटर लिस्ट में फर्जीवाड़े का आरोप लगा रहे है. हालांकि, फर्जीवाड़े की भी एक सीमा होती है, जो किसी भी सूरत से ५ हजार से अधिक नहीं हो सकती और ये तो कांस्पिरैसी थियरी है, नेता एक-दूसरे पर आरोप लगाते ही हैं, जब तक कुछ सिद्ध न हो जाए, तब तक क्या ही कहा जा सकता है? फिर वही बात कि क्या ऐसी चीजें भी मिल कर 60 फीसदी वोट के अंतर को हार में बदल सकेंगी? 

दिक्कतें तब भी है 

दिल्ली के ग्रामीण क्षेत्रों, ख़ास कर पश्चिमी दिल्ली, में कांग्रेस को खाता खोलते देखना आश्चर्य की बात नहीं होगी. कुछेक सीटों पर उसने बेहतर उम्मीदवार दिए हैं, जो बेहद प्रबंधित और शानदार तरीके से चुनाव लड़ रहे है. इनमें से एकाध सीट पर कांग्रेस जीत भी सकती है. बिधूड़ी और प्रवेश वर्मा जैसे नेताओं को आगे कर के भाजपा ने भी ग्रामीण इलाकों को साधने की कोशिश की है. निवर्तमान सीएम आतिशी और नई दिल्ली विधानसभा सीट पर विपक्ष ने कड़ी घेराबंदी की है. मनीष सिसोदिया को पटपडगंज सीट इसलिए भी छोड़नी पड़ी कि वहां स्थानीय नेताओं (निगम पार्षदों) के बीच भयानक स्तर की गुटबाजी है और वे भी खुद को विधायकी के लाइन में देख रहे थे. जेल जाने के बाद, मनीष सिसोदिया का लोकल टीम वर्क भी प्रभावित हुआ था. उत्तराखंड के मतदाताओं की बहुलता वाले पटपडगंज में, पिछले चुनाव में मनीष सिसोदिया को जीतने के लिए एड़ीचोटी का जोर लगाना पडा था. फिर भी वे बमुश्किल २-3 हजार वोट से जीत पाए थे. इसलिए, वे कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे और एक सुरक्षित सीट चाहते थे. सीएम फेस को ले कर केजरीवाल को खुद का नाम आगे कर भाजपा से बिधूड़ी का नाम आगे किए जाने की चर्चा करनी पड़ रही है, तो इसके पीछे भी उनकी मजबूरी है. इस बहाने वे मुस्लिम मतदाताओं को शायद सन्देश देना चाह रहे हो कि जो आदमी संसद में आपको अपमानजनक शब्द बोल सकता है, उसे कैसे दिल्ली का सीएम बनाया जा सकता है.

हालांकि, भाजपा इस चुनाव में कोई पोलराइजेशन नहीं करती दिख रही है. मसलन, नुपुर शर्मा को टिकट नहीं देना, योगी की सभाएं भी शायद न के बराबर होंगी, क्योंकि वे महाकुंभ में व्यस्त हैं. प्रधानमंत्री ने फ्री बीज पर साफ़ किया है कि यह सब जारी रहेगा. कांग्रेस ने बदले में प्यारी बहना लांच कर दिया है. तो, आम आदमी पार्टी के लिए पिछले २ चुनावों जैसी सहज स्थिति नहीं हो सकती है. 70 में से 67 या 62 सीटें जीतना शायद इस बार मुमकिन न हो, लेकिन यह अंतर कितना तक जाता है, इससे आम आदमी पार्टी की आगे की दशा और दिशा पर बात की जा सकेगी. फिलहाल, चुनाव दिलचस्प है. चुनावी पैंतरे उससे भी दिलचस्प. हां, केजरीवाल दो सीटों से चुनाव नहीं लड़ेंगे, यह तय है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]

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