असदुद्दीन ओवैसी लगातार ही मुख्तार अंसारी की मौत को लेकर मुखर हैं. वह उनकी मौत को मुद्दा बना रहे हैं और उसी के बहाने ‘मुस्लिम पॉलिटिक्स’ को वह पूरे देश में एक नया मुकाम और नया नेतृत्व देना चाहते हैं. जाहिर तौर पर यह नेतृत्व उनका ही होगा. बिहार में भी वह और उनकी पार्टी खासी सक्रिय है और पिछले चुनाव में वहां सीमांचल से पांच सीटें भी जीत चुके थे. वह उत्तर प्रदेश में भी वैसा ही कुछ करना चाहते हैं और इस तरह पूरे देश में मुस्लिमों की एक अलग पार्टी और नेता के तौर पर उभरना चाहते हैं.


ओवैसी को हो गयी देर


अभी जो स्थितियां हैं, यानी चुनाव को लेकर जो वातावरण हैं, उसमें शायद ओवैसी की बस छूट गयी है. पहले दौर का मतदान होने में अब महज 17 दिन बाकी हैं. जिस तरह का वातावरण जमीन पर है, चुनाव को लेकर जो रुख जनता का बन रहा है, जिस तरह के समीकरण बन चुके हैं, मतदाताओं ने जिस तरह का मन बना लिया है, खासकर पूर्वांचल में, वहां ओवैसी का कोई भी नया समीकरण कुछ खास उन्हें प्रदान करने वाला नहीं लगता है. बिहार के सीमांचल से पूर्वांचल की स्थितियां अलग हैं. ठीक यही सवाल मैंने कभी 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान अफजाल अंसारी से पूछा था. मैंने उस दौरान यही सवाल पूछा था कि मुसलमान सेकुलर दलों के पीछे चलता रहा, वोट बंटे रहे और उनका कोई अपना दल नहीं है. उनसे साफ पूछा था कि मुसलमानों की कोई अपनी पार्टी होनी चाहिए या नहीं?



यह बात प्रासंगिक इसलिए है कि असदुद्दीन उन्हीं अफजाल अंसारी के घर गए थे और वहीं मुख्तार के परिवार से मुलाकात की और फिर एक्स (पहले ट्विटर) पर शेर लिखा. मेरे सवाल के जवाब में अफजाल अंसारी ने कहा था कि मुसलमानों से अधिक पार्टियां तो इस देश में किसी समुदाय की हैं ही नहीं. मुसलमान से अधिक कोई सेकुलर नहीं है और वह ऐसे किसी दल या नेता को इसलिए तवज्जो नहीं देते. उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि ओवैसी महा कट्टरपंथी हैं और दरअसल कट्टरपंथी तो वह दिखाने को हैं, लेकिन अंदरखाने वह ठेकेदार हैं और वह भाजपा को लाभ पहुंचाने का काम करते हैं, इसलिए उनकी कोई खास वकत है नहीं. यह अफजाल अंसारी का 2017 में दिया ऑन-रिकॉर्ड बयान है.


पूर्वांचल का मिजाज अलग


ऐसा लगता नहीं कि आज भी अफजाल अंसारी इस बात से हटे होंगे. ऐसा इसलिए है कि पूर्वांचल का जो मिजाज है, खासकर मुस्लिम-राजनीति का तो वह अनिवार्यतः दलित और अति-पिछड़ा राजनीति के साथ नत्थी है. यह जानी हुई बात है कि इस बार भले सपा से उम्मीदवार हैं अफजाल अंसारी, लेकिन वह बसपा से भी जीतते आए हैं. उनके बड़े भाई सिबगतुल्ला अंसारी भी बसपा से ही विधायक रह चुके हैं. तीनों ही भाइयों ने बसपा की ही राजनीति की है. तो, पूर्वांचल का मुसलमान पिछड़ा और दलित से अलग नहीं है. वह जुड़ा हुआ है और इसीलिए अगर असदुद्दीन ओवैसी कोई जमीन यहां तलाश रहे हैं, मुसलमानों को ध्रुवीकृत करना चाहते हैं, तो उन्हें यहां सफलता नहीं मिलेगी.


ओवैसी की जमीन उत्तर प्रदेश या उत्तरी इलाके में है नहीं. वह अगर मुख्तार की मौत को मुद्दा बना रहे हैं, लगातार उसका जिक्र कर रहे हैं, तो उसका उनके समर्थकों पर कुछ सकारात्मक ही असर पड़ेगा. वहीं, अगर बहनजी या अखिलेश या कांग्रेस पार्टी से कोई मुख्तार के यहां शोक जताने चला जाता है, या उसको लगातार मुद्दा बनाता है, तो पूर्वांचल को छोड़कर जो उत्तर प्रदेश की बाकी लगभग 60 सीटें हैं, वहां पर इसका उल्टा ही असर पड़ेगा. इसकी वजह ये है कि बाकी जगहों पर धारणाओं से काम चल रहा है, लोग जानते नहीं हैं कि मुख्तार का परिवार क्या है, उसका जनता से जुड़ाव क्या है, तो अखिलेश हों या मायावती हों, वह अगर पूरे उत्तर प्रदेश में अपनी राजनीति बचाना चाहेंगे, तो चाहकर भी मुख्तार को मुद्दा नहीं बना सकते हैं. उनके वोट पूरे यूपी में बिखरे पड़े हैं और वहां भाजपा धारणा के स्तर पर वोटों को अपनी ओर जोड़ सकती है. ओवैसी के साथ यह खतरा नहीं है.


ध्रुवीकरण तो पहले ही हो चुका


जहां तक ओवैसी को किसी सियासी फायदे या मुसलमानों के ध्रुवीकरण का सवाल है, तो वैसा कुछ नहीं हो रहा है. घाघरा से लेकर गंगा तक का इलाका पहले ही भाजपा के खिलाफ हो चुका है. इसमें मुसलमान केवल अकेले नहीं है, उसके साथ अति-पिछडा और दलित भी हैं. भाजपा की राह या उसके चुनावी लक्ष्य को एक दूसरे नजरिए से देखना चाहिए. अगर 70-72 सीटों में पार्टी 60 सीटें भी भाजपा ले आती है, तो वह कठिन तो नहीं कहा जाएगा. बेहतर प्रदर्शन ही कहा जाएगा. हां, पिछली बार जितनी आसानी से उन्होंने यह कर दिखाया था, इस बार वैसा नहीं कर सकेंगे.


निश्चित तौर पर भाजपा को कई सीटों पर दिक्कत होगी. पूर्वांचल में कई सीटों पर प्रत्याशी तय करने में ही दिक्कत हो रही है. मुख्तार की मौत के बाद वहां का वातावरण गंभीर है और इसका सामना तो भाजपा को करना ही होगा. लोगों का जो गुस्सा और आक्रोश तमाम मीडिया पर दिख रहा है, लोगों के बयानों में जो दिख रहा है, वह इस परिवार को लेकर है. एक परिवार से लोगों का जुड़ाव 100 वर्षों से रहा है औऱ इसको उसी नजरिए से देखा जाना चाहिए.


तीसरे मोर्चे का वजूद बेदम


यूपी में जो तीसरा मोर्चा बन रहा है, पल्लवी पटेल (कमेरावादी) आदि के संयोजन में, तो वह बीजेपी को बहुत नुकसान पहुंचाए, ऐसा नहीं लगता है. अगर आंकड़ों पर जाएं, तो दो चुनाव के पहले ही यह स्थिति थी कि एक चौथाई से अधिक कुर्मी (पटेल) भाजपा के साथ जा चुका था. उसी तरह 80 फीसदी मौर्य भाजपा के साथ थे. इस पर बद्री नारायण ने बहुत अच्छा काम किया है. 2014 से 2022 के चुनाव का विश्लेषण कर उन्होंने बताया है कि गैर-यादव पिछड़ा और गैर-जाटव दलित का रुझान भाजपा के पक्ष में रहा है, वे उधर शिफ्ट कर चुके हैं.


एक बात और है कि जब वोटर्स (यानी कांस्टिट्युएन्सी) शिफ्ट कर जाते हैं, तो नेताओं का गठबंधन कोई चमत्कार नहीं कर पाता. इसका सबसे बड़ा उदाहरण पिछली बार हमने देखा था जब सपा और बसपा एक साथ आयी थी. उन्होंने सारे मतभेद भुलाए और मायावती और अखिलेश साथ आए थे, लेकिन उसका कोई नतीजा नहीं निकला था. नेताओं के स्तर पर किया गया गठबंधन जमीन पर चारों खाने चित गिरा था और आखिरकार वह गठबंधन भी टूट गया. अंतिम समय में ये तीसरे मोर्चे की तरह के जितने प्रयोग हो रहे हैं, वे भले ही चुनाव के बाद के मोलभाव को ध्यान में रखकर किए जा रहे हों, लेकिन अभी उनका कोई महत्व नहीं है, ऐसा लगता है.


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