ब्लॉगः असम को पहली ट्रांसजेंडर जज तो मिल गईं लेकिन देश में थर्ड जेंडर को कानून में जगह कब मिलेगी?
असम की पहली ट्रांसजेंडर जज स्वाति बिधान बरुआ ने गुवाहाटी की लोक अदालत में अपना कामकाज संभाल लिया है. वह देश की तीसरी ट्रांसजेंडर जज हैं. इससे पहले पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में भी ऐसी जज मौजूद हैं. जॉयिता मोंडल पश्चिम बंगाल में 2017 से जज हैं. इसके बाद इसी साल फरवरी में विद्या कांबले को महाराष्ट्र में जज बनाया गया है. अब स्वाति ने मील का एक और पत्थर पार किया है. वह 26 साल की हैं और उन्हें कामरूप जिला लीगल सर्विस अथॉरिटी ने जज नियुक्त किया है.
ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए रवैया बदलने की कोशिश की जा रही है. आईपीसी के सेक्शन 377 पर लगातार बहस की जा रही है. सुप्रीम कोर्ट भी अपने निष्पक्ष और ठोस फैसले दे रहा है. लोग खुश हैं कि बरसों से हाशिए पर पड़े लोगों पर मुख्यधारा में चर्चा हो रही है. सेल्फ आइडेंटिटी का सवाल हमारे यहां कई सालों से उठ रहा है. इस लिहाज से साल 2014 एक ऐतिहासिक वर्ष था, जब सुप्रीम कोर्ट ने अपनी पहचान खुद करने के अधिकार को मान्यता दी थी. यह ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए खुशी की पहली दस्तक थी. कोर्ट ने कहा था कि औरत, आदमी के साथ थर्ड जेंडर को भी पहचान दी जानी चाहिए. उम्मीद जगी थी कि ट्रांसजेंडर समुदाय को शिक्षा, रोजगार, स्पेशल मेडिकल ट्रीटमेंट और समाज में खुद की पहचान तय करने का अधिकार मिलेगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. उन्हें लगातार भेदभाव का शिकार बनाया गया. स्वाति की तैनाती से इस भेदभाव के कुछ मंद होने की उम्मीद जगती है.
यूं सुप्रीम कोर्ट सेक्शन 377 को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर लगातार सुनवाई कर रहा है. याचिकाओं में इस सेक्शन को खत्म करने की बात है. हालांकि कोर्ट इस सेक्शन को हटाने पर पूरी तरह सहमत तो नहीं है लेकिन उसने इतना जरूर कहा है कि किसी भी कानून को व्यक्ति के मौलिक अधिकारों पर चोट नहीं पहुंचानी चाहिए. क्या कोर्ट का काम सरकार का मुंह जोहना है कि वह किसी कानून में कब संशोधन करेगी या कब उसे निरस्त करेगी. वैसे सेक्शन 377 सेम सेक्स संबंधों को अपराध बनाता है. इसका विरोध करने वालों का पक्ष मजबूत है. उनका कहना है कि जब सहमति से बनाए गए यौन संबंध अपराध हैं ही नहीं तो एलजीबीटीक्यू प्लस लोगों को कानूनन अपराधी बनाने की कोशिश क्यों की गई है. उन्हें किसी भी हक से महरूम क्यों किया गया है. चूंकि सेक्शन 377 के प्रोविजन ही असंवैधानिक हैं.
वैसे इस प्रोविजन के कारण कई बार ट्रांसजेंडरों को अपने अधिकार नहीं मिल पाते. पिछले साल पुणे में 19 साल की एक ट्रांसजेंडर के साथ रेप हुआ. लेकिन रेप के आरोपी छूट गए क्योंकि कानूनी धाराओं में थर्ड जेंडर को अभी तक जगह नहीं मिली है. सेक्शन 377 में आदमी, औरत या जीव-जंतु के साथ बनाए गए अप्राकृतिक संबंध तो अपराध हैं लेकिन इसमें थर्ड जेंडर का कोई जिक्र नहीं है. यूं देश के किसी भी कानून में थर्ड जेंडर को शामिल करने के बारे में अभी तक सोचा नहीं गया है. न तो कोई ठोस कानून बनाने पर विचार किया गया और न ही किसी मौजूदा कानून में कोई संशोधन किया गया है. आपराधिक और दीवानी कानूनों में लिंग की दो ही श्रेणियों, यानी पुरुष और महिला को मान्यता प्राप्त है. इसमें रेप का कानून भी शामिल है. गोद लेने और रोजगार गारंटी के कानून भी शामिल हैं.
हम इन मामलों में टोकनिज्म से आगे नहीं बढ़ पाते. भाषण, बहस वगैरह में उबाल पर आ जाते हैं. सबके अधिकारों की वकालत करते हैं. लेकिन असल अधिकार देने के नाम पर बिदक जाते है. 2016 में केंद्र सरकार ने बहुत हिम्मत करके ट्रांसजेंडरों से जुड़ा विधेयक पेश किया. लेकिन इसकी मंजूरी के लिए लंबा सफर तय करना बाकी है. संसद के इस मानसून सत्र में इस पर चर्चा की उम्मीद है. लेकिन इस विधेयक में भी रिलेशनशिप्स की बात नहीं की गई है, साथ ही ट्रांसजेंडरों की परिभाषा भी कुछ अजीबो-गरीब है. विधेयक के अंतर्गत ट्रांसजेंडर व्यक्ति की परिभाषा में ऐसे व्यक्ति शामिल हैं जोकि न तो पूरी तरह से महिला हैं और न ही पुरुष. महिला और पुरुष, दोनों का संयोजन हैं, या न तो महिला हैं और न ही पुरुष. यह परिभाषा अंतरराष्ट्रीय नियमों के विपरीत है और लिंग पहचान को खुद निर्धारित करने के अधिकार का उल्लंघन करती है. इसमें ऐसे व्यक्तियों को भी शामिल किया जाना चाहिए जिनका लिंग जन्म के समय नियत लिंग से मेल न खाता हो. साथ ही इसमें ट्रांस-मेन, ट्रांस-विमेन, लिंग विलक्षणता वाले व्यक्ति, और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान वाले व्यक्ति भी शामिल होने चाहिए. इसके अलावा उनके नागरिक अधिकारों जैसे शादी, पार्टनरशिप, तलाक और गोद लेने को मान्यता दी जानी चाहिए. रोजगार, परीक्षाओं के लिए खास आरक्षण दिया जाना चाहिए. चूंकि वे लंबे समय से लोगों का खराब बर्ताव झेल रहे हैं.
स्वाति या उनके जैसे दूसरे ट्रांसजेंडरों के मुख्यधारा में आने से लगता है, कोई ठोस काम होगा. स्वाति ने पिछले साल असम के ट्रांसजेंडरों के अधिकारों के लिए गुवाहाटी हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी. मतलब आपकी लड़ाई कोई आपके लिए नहीं लड़ सकता, आपको खुद ही हथियार उठाने होंगे. दूसरे लड़ेंगे तो छद्म चेहरे सामने आएंगे. ट्रेन्डिंग वेबसीरिज सेक्रेड गेम्स का उदाहरण सामने है. इसमें गायतोंडे बने नवाजुद्दीन सिद्दीकी की ट्रांसजेंडर पार्टनर के लिए मशहूर निर्देशक अनुराग कश्यप को कोई ट्रांसजेंडर ऐक्ट्रेस दिखाई नहीं दी. इस रोल के लिए उन्होंने ऐक्ट्रेस कुबरा सैत को साइन किया. क्या किसी फीमेल ऐक्टर के रोल के लिए अनुराग किसी ट्रांसजेंडर ऐक्ट्रेस को साइन करेंगे, इस परंपरा को आगे बढ़ाएंगे? इसका हमें इंतजार रहेगा.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)