देश के किसी राज्य में चुनाव हों और वहां नेताओं की जुबान से अपने विरोधियों के खिलाफ कोई बिगड़े बोल न निकलें,ऐसा कभी हो नही सकता.उत्तरप्रदेश के चुनाव में नेताओं की इस बदजुबानी ने कुछ ज्यादा ही गर्मी ला रखी है लेकिन शायद उन्हें ये अहसास नहीं कि वोटर अब पहले से भी इतना अधिक जागरुक हो चुका है,जो उनकी अमर्यादित भाषा को तो समझता ही है लेकिन वो ये भी जानता है कि इसके जरिये समाज में किस तरह की नफ़रत का माहौल बनाया जा रहा है.


लोकतंत्र में हरेक को बोलने की आज़ादी है लेकिन चुनाव आते ही नेताओं की भाषा का स्तर मोहल्ले के किसी मवाली की जुबान तक गिर जाए,तो इसे हम आखिर क्या समझेंगे? अपने आप से यही सवाल पूछेंगे ना कि अगले पांच साल के लिए अपने प्रदेश का भविष्य सौंपने के लिए आखिर हम कैसा जन प्रतिनिधि चुनने जा रहे हैं जिसकी जुबान ही इतनी बेलगाम हो,तो क्या वह ख़ाक जनता की भलाई के बारे में कुछ सोचेगा.लेकिन अफसोस कि बात ये है कि ऐसी बदजुबानी करने का दोषी किसी एक खास पार्टी का नेता नहीं है,बल्कि हर पार्टी के नेता में इसका तमगा हासिल करने के लिए मानो होड़ मची हुई है.


दरअसल,10 फरवरी को पहले चरण का मतदान होने से पहले उत्तर प्रदेश का चुनाव अभियान अपने उफान पर है,लिहाज़ा कोई भी नेता अमर्यादित शब्दों के तीर चलाते हुए खुद को तीस मारखां साबित करने की दौड़ में पीछे छूटना नहीं चाहता. "गर्मी शांत कर दूंगा" और उसके जवाब में "चर्बी उतार दो" जैसे जुमलों की भाषा यूपी के लोगों ने अपने नेताओं के मुंह से शायद पहली बार ही सुनी होगी.इसी से अंदाज़ लगा सकते हैं कि नेताओं द्वारा अपने भाषणों में दिखाए जा रहे ये तीखे तेवर किसी लोकतांत्रिक चुनाव के लिए नहीं बल्कि मानो एक -दूसरे की मारकाट करने के मकसद से  ही इस्तेमाल किये जा रहे हों.


हर सियासी दल के लिए इस बार पश्चिमी यूपी के अखाड़े की कुश्ती जीतना मूंछ का सवाल बन गया है,लिहाज़ा नेताओं के बिगड़े बोल की गूंज भी इसी 'जाटलैंड' पर सबसे अधिक सुनाई दे रही है.हापुड़ में 30 जनवरी को आयोजित एक जनसभा में सीएम योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि "ये गर्मी जो अभी कैराना और मुजफ्फरनगर में कुछ जगह दिखाई दे रही है न, ये सब शांत हो जाएगी 10 मार्च के बाद. गर्मी कैसे शांत होगी? ये तो मैं मई और जून में भी शिमला बना देता हूं.'' असल में,उनका इशारा नाहिद हसन की तरफ था. सीएम योगी के इस बयान पर जमकर बवाल भी हुआ था.


लेकिन विरोधी भला चुप कैसे बैठते,सो उन्होंने भी उसी अभद्र भाषा में पलटवार करने में देर नहीं लगाई. समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ रहे आरएलडी के मुखिया जयंत चौधरी ने मंगलवार को एक जनसभा में सीएम योगी आदित्यनाथ और बीजेपी नेताओं पर बड़ा हमला बोला. उन्होंने एक सभा में कहा, "योगी बाबा जो कह रहे हैं कि इनकी गर्मी निकाल दूंगा और मई-जून में शिमला जैसी ठंड हो जाएगी. मुझे लग रहा है कि पिछले हफ्ते जो शीतलहर आई थी, इनका माथा बहुत बड़ा है, इनको ठंड लग गई. ऐसा भर भर के वोट दो. ईवीएम की मशीन को ऐसा भर के दो (वोट). बटन को ऐसा दबाओ कि भारतीय जनता पार्टी को जो चर्बी चढ़ रही है, सारे नेताओं की चर्बी उतार दो आप."


दोनों नेताओं के बयान सबके सामने हैं,लिहाज़ा इसका हक़ तो सिर्फ जनता को ही है कि वे किस नेता की अमर्यादित भाषा को सबसे अधिक पसंद करती है.चूंकि बात नेताओं की बदजुबानी की हो रही है,तो ये याद दिलाना जरुरी बन जाता है कि आज से 60 साल पहले भी इस देश का मतदाता उतना ही जागरुक था.लेकिन कवि हृदय और व्यंग्यात्मक शैली में अपनी बात कहने के लिए मशहूर रहे उस जमाने में जनसंघ के दिग्गज नेता अटल बिहारी वाजपेयी को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ा था और वह भी यूपी के ही चुनावी अखाड़े में.


ये बात है साल 1962 की,जब देश में लोकसभा का चुनाव हो रहा था.यूपी की बलरामपुर सीट से उस समय जनसंघ के वरिष्ठ नेता अटलजी चुनाव लड़ रहे थे.राजनीतिक जानकार बताते हैं कि तब अटल जी ने अपनी प्रतिद्वंदी कांग्रेस उम्मीदवार सुभद्रा जोशी के बारे में एक अमर्यादित टिप्पणी कर दी थी. हालांकि उनका मकसद विरोधी महिला उम्मीदवार का अपमान करना कतई नहीं था और उन्होंने वह बात भी हल्के हास्य-व्यंग्य वाले अंदाज में ही कही थी लेकिन लोगों ने उसे गंभीरता से लिया  और नतीजा ये हुआ कि अटलजी वो चुनाव हार गए.


वैसे उनकी पराजय का एक और बड़ा कारण यह भी बताया जाता है कि इस चुनाव में उस समय के मशहूर  अभिनेता बलराज साहनी ने कांग्रेस उम्मीदवार के लिए चुनाव प्रचार किया था.जानकार मानते हैं कि उस अदद टिप्पणी के अलावा सुभद्रा की जीत में बलराज के प्रचार भी महत्वपूर्ण भूमिका थी.


ख़ैर, ये तो हुई पुरानी बात.गोधरा की घटना की प्रतिक्रिया में साम्प्रदायिक दंगे होने के बाद जब गुजरात में विधानसभा चुनाव हो रहे थे,तब चुनाव प्रचार के लिए वहां पहुंची कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के लिये Merchant of deaths यानी 'मौत का सौदागर' जैसे बेहद असंवेदनशील शब्द का प्रयोग किया था.नतीजा क्या हुआ कि गुजरात की जनता ने बीजेपी की झोली इतनी सीटों से भर डाली कि कांग्रेस की लुटिया ही डुबो दी.


साल 2014 के चुनाव को अगर याद करें,तो तब  समाजवादी पार्टी के उस समय के मुखिया मुलायम सिंह यादव के दिये एक बयान ने भी खूब बवाल मचाया था.तब उन्होंने यूपी की पूर्व सीएम और बसपा प्रमुख मायावती पर आपत्तिजनक बयान देते हुए कहा था कि हम मायावती को क्या कहें? उन्होंने कहा था कि मायावती को श्रीमती कहें या कुंवारी, बेटी या बहन कहें? इसी तरह कांग्रेस के नेतृत्व वाली मनमोहन सिंह सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे सलमान खुर्शीद ने भी तब झांसी की एक चुनांवी सभा में नरेंद्र मोदी को राक्षस तक कह डाला था.फिलहाल जेल में बंद सपा नेता आज़म खान की बदजुबानी के ढेरों बयान मशहूर हैं,जिसके लिए वे संसद के भीतर भी माफी मांग चुके हैं.


वैसे देखा जाए,तो जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत नेताओं की ऐसी बदजुबानी के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए निर्वाचन आयोग की भी अपनी सीमा है और वे इन्हें डांटने-फटकारने से ज्यादा और कुछ नहीं कर सकता.होना तो ये चाहिए कि जो सभ्य समाज बनाने और संस्कारी भाषा का प्रयोग करने का प्रवचन लोगों को देते हैं,वे अपने लिए ऐसा कानून बनाने से आखिर परहेज़ क्यों करते हैं कि ऐसी अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल करने वाले नेता के चुनाव लड़ने पर अगले 5-10 साल के लिए रोक ही लगा दी जाये? 



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