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'त्रिपुरा तो ठीक है, लेकिन बीजेपी की असली जीत नगालैंड में हुई है, मेघालय में सफ़र हुआ बहुत लंबा'

भारतीय राजनीति के लिहाज से 2023 का साल बेहद महत्वपूर्ण है. इस साल 9 राज्यों में विधानसभा चुनाव निर्धारित है, जिसमें से पूर्वोत्तर के तीन राज्यों मेघालय, त्रिपुरा और नगालैंड में चुनावी नतीजे आ भी गए हैं. इनमें त्रिपुरा में बीजेपी सत्ता बरकरार रखने में कामयाब रही, तो मेघालय में त्रिशंकु जनादेश आया है. वहीं नगालैंड में एनडीपीपी-बीजेपी गठबंधन दो तिहाई बहुमत हासिल करने के करीब पहुंच गई.

ऊपरी तौर से देखने पर तो लगता है कि लगातार दूसरी बार सत्ता को बरकरार रखने की वजह से त्रिपुरा में बीजेपी की जीत इन तीनों राज्यों के हिसाब से सबसे बड़ी बात है,  लेकिन जब आप चुनावी नतीजों का विश्लेषण करेंगे तो नगालैंड में गठबंधन में छोटे भाई की भूमिका में होते हुए भी बीजेपी की जीत ज्यादा मायने रखती है.

नगालैंड के चुनाव में एक सवाल उठता था कि क्या नेफ्यू रियो 5वीं बार राज्य के मुख्यमंत्री बन पाएंगे. नतीजों से इसका सकारात्मक उत्तर आया. लेकिन इससे भी बड़ा एक सवाल था कि क्या बीजेपी अपनी सीट और उससे भी ज्यादा जनाधार बढ़ाने में सफल रहेगी. नतीजे कहते हैं कि बीजेपी न सिर्फ सीटों की संख्या बरकरार रखने में  कामयाब रही, बल्कि उसके वोट बैंक में भी काफी उछाल देखा गया.

60 सदस्यीय विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो की नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी और बीजेपी ने पिछली बार की तरह इस बार भी मिलकर चुनाव लड़ा, एनडीपीपी 40 और बीजेपी 20 सीटों पर चुनाव लड़ी. वहीं पिछली बार 26 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी नागा पीपुल्स फ्रंट इस बार Kuzholuzo Nienu की अगुवाई में महज़ 22 सीटों पर चुनाव लड़ी. वहीं कांग्रेस ने 23 सीटों पर अपनी किस्मत आजमाई थी और एनसीपी ने 12 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे.

अब नतीजों की बात करें तो एनडीपीपी-बीजेपी गठबंधन को 37 सीटों पर जीत मिली. इसमें 25 सीट जीतकर एनडीपीपी सबसे बड़ी पार्टी बनी, वहीं 12 सीट जीतकर बीजेपी दूसरी सबसे बड़ी पार्टी रही. नागा पीपुल्स फ्रंट सिर्फ 2 सीट ही जीत पाई. वहीं एनसीपी 7 सीट जीतकर तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी और नेशनल पीपुल्स पार्टी को 5 सीटों पर जीत मिली. पिछली बार की तरह ही इस बार भी कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई. 

वोट शेयर की बात करें तो नगालैंड में एनडीपीपी-बीजेपी गठबंधन को कुल मिलाकर 51 फीसदी वोट मिले. इसमें नेफ्यू रियो की पार्टी का वोट शेयर 32.2% और बीजेपी का वोट शेयर 18.8% रहा.

नगालैंड का चुनाव इस नजरिए से भी महत्वूपूर्ण था कि इस बार नेफ्यू रियो की एनडीपीपी पिछली बार से भी ज्यादा ताकतवर पार्टी थी. दरअसल नागालैंड में 2022 में एक ऐसी घटना हुई, जिससे मौजूदा मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो की ताकत और बढ़ गई . वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी NPF के 21 विधायक अप्रैल 2022 में नेफ्यू रियो की नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी  में शामिल हो गए. इसमें नेता प्रतिपक्ष, नागालैंड के दिग्गज नेता और दो बार सूबे के मुख्यमंत्री रह चुके टी आर जेलियांग भी शामिल थे. इस घटना के बाद नगालैंड में नेफ्यू रियो बेहद ताकतवर हो गए थे. उस वक्त ऐसा कहा जाने लगा था कि शायद अगले विधानसभा चुनाव में एनडीपीपी अकेले ही सभी सीटों पर चुनाव लड़ सकती है और अगर बीजेपी से गठबंधन जारी भी रखती है तो उसे बहुत कम सीटें देगी. लेकिन बीजेपी की राजनीतिक सूझ-बूझ की वजह से एनडीपीपी के साथ गठबंधन भी जारी रहा और 2018 की भांति ही टिकट बंटवारे में बीजेपी के खाते में 20 सीटें भी आई.

नगालैंड में बीजेपी का तेजी से बढ़ा है जनाधार

2018 में बीजेपी ने जितनी सीटों पर जीत हासिल  की थी, इस बार भी बीजेपी को उतनी ही सीटें यानी 12 पर जीत मिली. लेकिन सबसे बड़ा फायदा ये हुआ कि बीजेपी अपने वोट शेयर को साढ़े तीन फीसदी बढ़ाने में कामयाब हो गयी. 2018 में बीजेपी का वोट शेयर 15.3 फीसदी था, जो इस बार बढ़कर 18.8% तक जा पहुंचा. नेफ्यू रियो की पार्टी का वोट शेयर भी 7% से ज्यादा बढ़ा है, लेकिन ये नहीं भूलना चाहिए कि टी आर जेलियांग और उनके समर्थकों के आने से एनपीएफ का परंपरागत वोट बैंक नेफ्यू रियो की पार्टी में शिफ्ट हो गया. एनपीएफ के वोट बैंक में 30 फीसदी से भी ज्यादा का गिरावट देखने को मिला है.

हम कह सकते हैं कि पिछली बार की तुलना में इस बार नगालैंड में विपक्ष बेहद ही कमजोर था और इस बात की अटकलें लगाई जा रही थी कि नेफ्यू रियो की पार्टी 35 से ज्यादा सीटों पर जीत सकती है और बीजेपी की सीटें घट सकती हैं. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अगर ऐसा होता तो गठबंधन में बीजेपी की हैसियत कम हो जाती. अगर बीजेपी नगालैंड में इतनी सीटें नहीं जीत पाती तो, नेफ्यू रियो सरकार में उसके पास ज्यादा कुछ दबाव बनाने के लिए नहीं रह जाता. लेकिन नतीजों में बीजेपी की हैसियत इतनी बन गई है कि अब नेफ्यू रियो हमेशा ही उसके दबाव में रहेंगे. बीजेपी के पास सबसे बड़ी चुनौती थी कि कैसे वो इस गठबंधन में अपने कद को कम होने से बचा ले और नतीजों में बीजेपी ने दिखा दिया कि नगालैंड में उसकी राजनीति हैसियत लगातार बढ़ते ही जा रही है. साढ़े तीन फीसदी का वोट शेयर बढ़ना अपने आप में बड़ी बात है.

इससे कम से कम इतना तो ही गया है कि आने वाले वक्त में नगालैंड के लोगों के लिए बीजेपी के रूप में नेफ्यू रियो के अलावा भी विकल्प दिखने लगेगा और जिस तरह से बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व पिछले 9 साल से पूर्वोत्तर के राज्यों को प्राथमिकता दे रहा है. उस नजरिए से इस बार के नतीजों ने आगामी विधानसभा चुनाव यानी 2028 में यहां बीजेपी की संभावनाओं को और प्रबल कर दिया है. नागालैंड में बीजेपी का जनाधार बढ़ाने में सूबे में पार्टी के अध्यक्ष तेमजन इमना (Temjen Imna) और भारत के इतिहास में नगालैंड की पहली राज्यसभा सांसद फान्गनॉन कोन्याक की मेहनत को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता.

नगालैंड में बीजेपी का राजनीतिक सफर

1987 में बीजेपी पहली बार यहां के सियासी दंगल में उतरी थी. बीजेपी दो सीटों पर चुनाव लड़ी. बीजेपी को किसी सीट पर जीत नहीं मिली और  दोनों सीट को मिलाकर सिर्फ 926 वोट पा सकी. 1993 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी 6 सीटों पर लड़ी लेकिन किसी पर भी जीत नहीं  सकी. उसे सिर्फ आधा फीसदी वोट (3,755 वोट) ही मिल पाए. बीजेपी को विधानसभा में पहली सीट 2003 के चुनाव में नसीब हुई. इस बार नगालैंड में बीजेपी 7 सीटें जीतने में कामयाब हुई . उसे 10.88% वोट हासिल हुए. 2008 में बीजेपी के जनाधार में एक बार फिर से गिरावट आई. 2008 में बीजेपी को 2 सीटों पर जीत मिली . उसे 5.35% वोट हासिल हुए. 2013 में तो बीजेपी सिर्फ एक सीट पर सिमट गई और उसका वोटशेयर 1.75% तक पहुंच गया. हालांकि 2018 में नेफ्यू रियो की पार्टी से गठबंधन के बाद नगालैंड की राजनीति में बीजेपी का दखल बढ़ गया. इस बार 12 सीट जीतने के साथ बीजेपी पहली बार 15 फीसदी से ज्याद वोट हासिल करने में कामयाब रही थी.

2003 से नगालैंड में बीजेपी की सत्ता में भागीदारी

2003 से ही नगालैंड की सरकार में बीजेपी की किसी न किसी तरह से हिस्सेदारी रही है. 2003 के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद एनपीएफ और बीजेपी ने मिलकर डेमोक्रिटिक एलायंस ऑफ नगालैंड बनाया. उस वक्त एनपीएफ को बहुमत नहीं मिल पाई थी. इस एलांयस के बाद वहां नेफ्यू रियो की अगुवाई में सरकार बनी. उसके बाद से 2018 तक इसी की सत्ता चलते रही. 2018 चुनाव के पहले नेफ्यू रियो की पार्टी एनडीपीपी और बीजेपी का गठबंधन हो गया. इस तरह से  करीब 20 साल या लगातार चार टर्म से बीजेपी नगालैंड की सरकार का हिस्सा है और अब अगले 5 साल तक भी वो सरकार का हिस्सा बनी रहेगी, बीजेपी के इस बार के चुनावी प्रदर्शन ने ये भी तय कर दिया है.

मेघालय में बीजेपी के लिए संघर्ष है बाकी

जहां तक पूर्वोत्तर के एक और राज्य मेघालय की बात है, तो बीजेपी के लिए अकेले दम पर यहां की सत्ता पर काबिज होना अभी दूर की कौड़ी लग रही है. इस बार के विधानसभा चुनाव के नतीजों से साफ है कि मेघालय में कमल का परचम लहराने के लिए अभी भी बीजेपी को लंबा सफ़र तय करना बाकी है. यहां सरकार का हिस्सा होने के बावजूद बीजेपी, कोनराड संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी से अलग होकर सभी सीटों पर चुनाव लड़ी थी. पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को इस बार भरोसा था कि मेघालय में बीजेपी अकेले दम पर सरकार बनाने में कामयाब हो जाएगी. पीएम नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा समेत पार्टी के तमाम दिग्गज नेताओं ने चुनाव प्रचार में पूरी ताकत लगा दी थी. माहौल भी ऐसा बनने लगा था कि इस बार मेघालय में पहली बार बीजेपी बड़ी ताकत बनकर उभर सकती है. इतना तो लग रहा था कि भले ही अकेले बहुमत हासिल नहीं कर पाए, लेकिन जनाधार और सीटों की संख्या में भारी इजाफा देखने को मिल सकता है. हालांकि चुनाव नतीजों से पार्टी की इन उम्मीदों पर पानी फिर गया.

मेघालय में ऐसे तो कुल 60 सीटें हैं, लेकिन 59 पर ही वोटिंग हुई थी.  यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार एच डी आर लिंगदोह के निधन की वजह से सोहियांग सीट पर मतदान टाल दिया गया था. मेघालय के चुनावी रण में इस बार एनपीपी, बीजेपी, टीएमसी, कांग्रेस और यूडीपी सभी अलग-अलग एक -दूसरे से भिड़े थे. नतीजों की बात करें तो कोनराड संगमा की एनपीपी 26 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी है. वहीं मौजूदा सरकार में हिस्सेदार रही मेटबाह लिंगदोह की यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी 11 सीट जीतकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी है. सभी सीटों पर लड़ने के बावजूद बीजेपी महज़ 2 सीट ही जीत पाई. पिछले चुनाव तक मेघालय में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का कोई जनाधार नहीं था, लेकिन इस बार टीएमसी ने 5 सीटें जीतकर ये दिखा दिया कि भविष्य में वो मेघालय में बड़ी राजनीतिक ताकत बन सकती है. कांग्रेस के खाते में 5 सीटें गई हैं. सबसे मजेदार बात तो ये हैं कि पहली बार मेघालय के चुनावी राजनीति में उतरने वाली नई पार्टी 'वॉयस ऑफ द पीपल' (VPP) ने 4 सीटों पर जीत हासिल कर ली है. अर्डेंट मिलर बसियावमोइट (Ardent Miller Basaiawmoit) की अध्यक्षता वाली इस नई पार्टी ने 18 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे.

मेघालय  में बीजेपी के लिए सफ़र आसान नहीं

इस बार बीजेपी को मेघालय के नतीजों से निराशा ही हाथ लगी है. पिछली बार के मुकाबले पार्टी न तो पार्कीटी की सीटें बढ़ी और न ही वोट शेयर. इससे साफ है कि सूबे के राजनीतिक रुतबे में कमी आ गई है. 2018 में बीजेपी को 2 सीटों पर जीत मिली थी. इस बार पार्टी इस आंकड़े से आगे नहीं बढ़ पाई. बीजेपी के वोट शेयर में भी गिरावट दर्ज हुई है. 2018 में बीजेपी 9.63% वोट हासिल करने में कामयाब रही थी. इस बार बीजेपी का वोट शेयर 9.3% ही रहा.

2018 जैसी हैसियत नहीं है इस बार

मेघालय में भले ही 2018 में बीजेपी को 2 ही सीटें मिली थी, लेकिन सियासी समीकरणों की वजह से उस वक्त उसकी अहमियत ज्यादा थी. कोनराड संगमा को सरकार बनाने के लिए बीजेपी की उस वक्त जरूरत थी क्योंकि बिना बीजेपी के उनके लिए बहुमत हासिल करना आसान नहीं था. 2018 में एनपीपी (19 सीट), यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी (6 सीट), पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट (4 सीट), हिल्स स्टेट पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (2 सीट) और बीजेपी (2 सीट) ने मिलकर सरकार बनाई थी. ये आंकड़े बताने के लिए काफी है कि 2018 में सरकार चलाने के नजरिए से बीजेपी की दो सीटें ही काफी महत्व रखती थी. लेकिन इस बार ऐसा नहीं है.

मौजूदा मुख्यमंत्री कोनराड संगमा की पार्टी एनपीपी 26 सीटें जीतने में कामयाब हो गई है. अगर यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी ने कोनराड संगमा से हाथ मिला लिया तो फिर दोनों के मिलाकर 37 सीटें हो जाती हैं, जो बहुमत के आंकड़े से बहुत ज्यादा सीटें हैं. ऐसे भी यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी के अध्यक्ष मेटबाह लिंगदोह और कोनराड संगमा के बीच काफी अच्छे रिश्ते माने जाते हैं. मेटबाह लिंगदोह फिलहाल मेघालय विधानसभा के स्पीकर भी हैं.

बीजेपी को है यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी से खतरा

पिछले कई सालों से मेघालय की राजनीति में यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी ख़ास महत्व रखती है. ई. के. मावलॉन्ग और बीबी लिंगदोह के जमाने से इस पार्टी का मेघालय की राजनीति में पुरजोर दखल रहा है. ये दोनों यूडीपी नेता के तौर पर 1998 से 2001 के बीच मेघालय के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं. 2008 से यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी किंगमेकर की भूमिका में रही है. 2018 की तरह 2013 में भी 8 सीट जीतकर यूडीपी किंगमेकर बनी थी. उसके सहयोग से ही उस वक्त कांग्रेस नेता मुकुल संगमा मुख्यमंत्री बने थे. उससे पहले 2008 में यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी को 11 सीटों पर जीत मिली. बाद में एनसीपी के साथ  मिलकर यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी प्रमुख दोनकुपर रॉय ने सरकार बनाई. इस बार भी यूडीपी ही किंगमेकर है, नतीजों से ये साफ हो गया है.

मेघालय में यूडीपी ने बिगाड़ा सारा खेल

यूडीपी के 11 सीटें आने से बीजेपी की हैसियत सरकार बनाने में कमोबेश खत्म हो गई है. अब बिना बीजेपी के समर्थन के भी कोनराड संगमा सिर्फ़ यूडीपी को साथ लाकर आराम से सरकार बना सकते हैं. पिछले कई चुनाव नतीजों के विश्लेषण से ये साफ है कि यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी जितना मजबूत होते जाएगी, बीजेपी के लिए मेघालय में संभावनाएं उतनी ही कम होते जाएगी. यूडीपी ने पिछली बार से अपनी 5 सीटें तो बढ़ाई ही, उसके साथ ही वोट शेयर भी 11.6% से बढ़कर 16.24% हो गया. यानी यूडीपी के वोट शेयर में करीब 5 फीसदी का उछाल आया है और बीजेपी को इससे ही सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा है. यहीं वजह है कि बीजेपी इस बार सरकार बनाने में अपनी शर्ते रखने की स्थिति में नहीं रह गई है. इसलिए ये कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा कि मेघालय में अकेले दम पर सत्ता की कुर्सी के लिए बीजेपी को अभी काफी लंबा संघर्ष करना पड़ेगा.

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