अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की प्रयागराज में 15 अप्रैल की रात को सरेआम हत्या कर दी जाती है. हत्या उस वक्त की जाती है, जब उन दोनों को पुलिस की कस्टडी में मेडिकल जांच के लिए अस्पताल ले जाया जा रहा था. तीन युवा उत्तर प्रदेश की पुलिस के सामने ही ताबड़तोड़ गोलियां चलाते हैं और यूपी पुलिस की ओर से ऐसी कोई गोली नहीं चलती है, जो उस घटना को अंजाम देने वाले तीन लड़कों में से किसी को लगी हो. ये पूरी घटना सरेआम होती है. आस-पास के कई लोगों के सामने होती है. इस घटना के कई वीडियो वायरल होते हैं. भले ही अतीक जैसे बहुत ही खतरनाक और बड़े अपराधी की हत्या हुई है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल उठता है कि ये यूपी पुलिस की कस्टडी में हत्या हुई है.
अब आते हैं दूसरे सवाल पर कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ ही बीजेपी के तमाम बड़े और छोटे नेता ये दावा करते नहीं थकते कि जब से यूपी में योगी सरकार आई है, यहां कानून व्यवस्था इतनी सख्त हो गई है कि हर अपराधी थर-थर कांपते हैं. अपराध और माफिया राज का नामोनिशान मिटा देने का दावा तक करते हैं. तो फिर इन लोगों को ये बताना चाहिए कि उनकी ही पुलिस कस्टडी में कैसे ये घटना घट जाती है, क्या ये सख्त कानून व्यवस्था की पहचान है.
इसके बाद जो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा उठता है कि इस घटना को लेकर मीडिया विमर्श क्या होना चाहिए. इस पर चर्चा करने से पहले अतीक अहमद पर कुछ बातें कर लें. अतीक अहमद बहुत बड़ा अपराधी था. कहा जा रहा है कि उस पर 100 से भी ज्यादा केस दर्ज थे. ये नंबर तो सिर्फ़ पुलिस रिकॉर्ड के लिए है, मेरे हिसाब से और इलाहाबाद के साथ उत्र प्रदेश के लोगों के नजरिए से वो इससे कई गुना ज्यादा खतरनाक और बड़ा क्रिमिनल था. उस पर कई हत्या, कई अपहरण और पता नहीं कौन-कौन से जुर्म का आरोप नहीं होगा. मुझे आज से 25 साल पहले कुछ वक्त इलाहाबाद में गुजारने का मौका मिला था और जब मैं उस वक्त इलाहाबाद के चकिया इलाके से गुजरा था, मेरे साथ के लोगों ने पहली बार मुझे अतीक के बारे में जानकारी दी थी. उस वक्त ही वो आम लोगों की नज़र में बहुत बड़ा अपराधी और माफिया था. फिर न जानें कैसे वो कई बार विधायक और एक बार सांसद भी बन गया, ये तो अलग मुद्दा है, जो हमारे लोकतांत्रिक प्रणाली पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है.
अब मीडिया विमर्श पर थोड़ा गौर करते हैं. अतीक-अशरफ की हत्या हुए पांच दिन हो चुके हैं. उसकी हत्या के बाद से मीडिया पर जिस विमर्श को सबसे ज्यादा महत्व मिलना चाहिए था, वो था 15 अप्रैल की घटना को लेकर जवाबदेही की. लेकिन इसके विपरीत बहुत ही हल्के-फुल्के अंदाज में इस बात को उठाकर और उसमें भी सिर्फ पुलिस अकाउंटेबिलिटी को सतही स्तर पर उठाकर जवाबदेही के मुद्दे पर बहस से पल्ला झाड़ लिया गया. कम से कम मुख्यधारा की मीडिया का तो यही हाल है, जिसमें बड़े-बड़े टीवी न्यूज़ चैनल के साथ बड़े-बड़े अखबार भी शामिल हैं.
जवाबदेही तो छोड़िए उस घटना के बाद मीडिया में एक नई ही धारा बहाई जा रही है. अतीक के जुर्म के साम्राज्य का वारिश कौन होगा, उसके गद्दी को कौन संभालेगा, उसकी पत्नी कहां है, शाइस्ता परवीन की सीक्रेट चिट्ठी, अतीक कितनी दौलत छोड़ गया..फिलहाल इस तरह की हज़ारों बातें राष्ट्रीय मीडिया के लिए विमर्श का मुख्य मुद्दा है. अतीक के खौफ से जुड़ी कहानियों को इस अंदाज में पेश किया जा रहा है, जैसे उसके महिमामंडन करने का कोई तरीका निकाल लिया गया हो. कुछ बातें तो कहानी और गॉसिप के अंदाज में अलग-अलग चैनलों पर इस तरह से परोसी जा रही है, जो शायद अगर अतीक जिंदा रहता तो उसे भी हैरानी होती. उसके साथ ही कुछ बातें ऐसी हैं, जो शायद यूपी पुलिस और यूपी के मुख्यमंत्री को भी जानकारी नहीं होगी.
मीडिया में जिस तरह की खबरें अतीक को लेकर पिछले पांच दिन से दिख रही हैं, तो लगता है कि इतनी सारी बातें जब पब्लिक डोमेन में थी तो उसके बावजूद भी हमारे यहां की सरकार और पुलिस को इतना वक्त क्यों लग गया अतीक के ऊपर शिकंजा कसने में . यूपी में योगी सरकार को बने भी 6 साल से ज्यादा हो गए हैं.
न्यूज़ चैनल, अखबार, डिजिटल प्लेटफॉर्म और सोशल मीडिया के जरिए पांच दिनों में जिस तरह का विमर्श चला है, उससे दो बातों को एक-दूसरे का पर्याय बना दिया है या फिर बनाने का प्रयास किया गया है, जिसमें बहुत हद तक कामयाबी भी मिली है. अतीक अहमद की जिस तरीके से हत्या हुई, उस पर सवाल उठाने को ये मान लिया जा रहा है कि आप अतीक अहमद का समर्थन कर रहे हैं. दरअसल इन दोनों बातों का ही मीडिया विमर्श के साथ ही राजनीतिक विमर्श के जरिए घाल-मेल कर दिया गया है.
जबकि अतीक अहमद का समर्थन करना और अतीक की पुलिस कस्टडी में हत्या पर सवाल उठाना...ये दोनों अलग-अलग पहलू हैं. किसी भी समाज में कानून व्यवस्था का क्या मतलब होता है. अतीक या उससे जुड़े लोगों ने जितने भी अपराध किए थे या फिर उसके अपराध से जिन-जिन भी परिवारों को वर्षों से असहनीय दुख झेलना पड़ रहा था, क्या उन परिवारों या लोगों को अतीक अहमद की इस तरह से हुई हत्या से न्याय मिल गया. बिल्कुल नहीं. उन परिवारों को सही मायने में न्याय तब मिलता जब अतीक को हर केस में अदालत की ओर से दोषी ठहराकर सख्त से सख्त सज़ा दी जाती. अभी तो उन परिवारों को ये मलाल हमेशा रहेगा कि उनसे जुड़े केस में अदालत से अतीक अपराधी घोषित नहीं हो पाया. वो ताउम्र अपने आस-पास के लोगों को ये बताने से अब वंचित रह जाएंगे कि मेरे मामले में अतीक दोषी था और इसे कोर्ट ने साबित किया है. एक सभ्य समाज में न्याय इस तरह से मिले तो ही पीड़ित को सुकून मिलता है. और ये अदालत के साथ ही हर लोकतांत्रिक सरकार की जिम्मेदारी भी होती है. लेकिन इस तरह के विमर्श को बिल्कुल ही गायब कर दिया गया.
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कहते हैं कि उनकी सरकार उत्तर प्रदेश पर लगे दंगों वाले राज्य का कलंक मिटा चुकी है और जो लोग इस राज्य की पहचान के लिए संकट हुआ करते थे वह आज खुद संकट में हैं. अतीक और अशरफ की यूपी पुलिस कस्टडी में सरेआम हत्या हो जाती है, ये किसका कलंक है, शायद यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ को इसका भी जवाब देना चाहिए.
योगी आदित्यनाथ ये भी कहते हैं कि आज उत्तर प्रदेश में किसी जनपद के नाम से डरने की आवश्यकता नहीं है और आज कोई भी अपराधी किसी व्यापारी को धमका नहीं सकता. तो सीएम योगी ये तो दावा कर रहे हैं कि यूपी में कानून व्यवस्था एकदम चाक-चौबंद है, तो फिर उन्हें इसका भी तो जवाब देना चाहिए के आपकी पुलिस कस्टडी में इतने बड़े अपराधी की सरेआम हत्या तीन युवा आकर कैसे कर देते हैं.
पांच पुलिसकर्मी घटना के पांच दिन बाद सस्पेंड कर दिए जाते हैं और मीडिया में इसे बड़ी कार्रवाई बताई जाती है. क्या ये मामला इतना ही सतही है कि सिर्फ इसके लिए पुलिस अकाउंटेबिलिटी तक ही बात होनी चाहिए, राजनीतिक या सरकारी जवाबदेही पर बिल्कुल ही बात नहीं होनी चाहिए.
सीएम योगी के साथ ही बीजेपी के तमाम बड़े-बड़े नेता दावा कर रहे हैं या इस तरह के राजनीतिक विमर्श को जानबूझकर पैदा कर रहे हैं कि यूपी में योगी सरकार के आने के बाद अब माफिया राज पूरी तरह से खत्म हो गया है. उन लोगों से पूछना चाहिए कि कोई भी ऐरा-गैरा छोटा -मोटा अपराधी जब आपके राज्य में आपकी पुलिस की कस्टडी में अतीक जैसे बड़े और दुर्दांत अपराधी को आकर सरेआम मार देता है, तो फिर कौन सा अपराध राज या माफिया राज खत्म हो गया है.
अतीक जैसे बड़े अपराधी की हत्या हो गई तो ठीक हुआ, इस तरह का विमर्श लोकतंत्र में कहीं से भी सही नहीं है. असल सवाल ये है कि ये हत्या पुलिस कस्टडी में हुई है. सवाल ये है हमारे देश में इस तरह की घटनाओं पर पुलिस अकाउंटेबिलिटी से बात आगे जाकर राजनीतिक या सरकारी जवाबदेही पर कब बात होगा. कब मीडिया में इस विमर्श को सबसे ज्यादा महत्व दिया जाएगा. या फिर समाज के कर्ता-धर्ता सिर्फ लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर मुख्य मुद्दा पर कभी बहस ही नहीं होने देंगे.
(ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)