करने को तो बिहार के सीएम नीतीश कुमार सेक्स एजुकेशन की बात कर रहे थे, लेकिन उनका लहजा ऐसा था जिसमें वाकई अश्लीलता थी. नीतीश कुमार ने माफी मांग कर विवाद खत्म करने की कोशिश भी की. लेकिन विपक्षी पार्टी बीजेपी को मौका मिल गया है. दूसरी ओर नीतीश कुमार के बयान का ये वीडियो सोशल मीडिया पर इतना वायरल है कि मानों ऐसा लग रहा है कि तीर कमान से छूट चुका है. लेकिन असली बात कहीं दब गई और रह गई तो सिर्फ अश्लीलता. क्या बिहार के लिए ये अश्लीलता कोई नई बात है.
जिस बिहार के भोजपुरी गानों के बोल में 'गमछा बिछाकर' सब कुछ मांग लिया जाता है, एसी से लेकर कूलर तक को लहंगा और चोली में लगा दिया जाता है, जहां सब कुछ 'फटाफट खोलकर' दिखाने की मांग की जाती है, लहंगे को उठाने के लिए रिमोट तक का ईजाद कर लिया गया है, खाली चुम्मा से काम नहीं चलता है, वहां पर सेक्स एजुकेशन जैसे जटिल विषय और खास तौर से उसमें भी पुल आउट मेथड जैसे विषय को समझाने के लिए नीतीश कुमार से सीधे सरल शब्दों का सहारा ले लिया तो उसमें इतनी हाय तौबा क्यों.
श्लील क्या है और अश्लील क्या, इसे फर्क करने का धागा बेहद महीन है. एक ही लाइन किसी के लिए श्लील हो सकती है और किसी के लिए अश्लील. 'मैं का करूं राम मुझे बुड्ढा मिल गया' और 'सैयां मिले लरकइयां मैं का करूं' श्लील हो जाता है, लेकिन भोजपुरी का होली गीत 'सखी बुढ़वा भतार, रोज-रोज सेजिया के नासे' और 'मिसिर जी, तू त बाड़ बड़ी ठंडा' अश्लील हो जाता है.
तभी तो भोजपुरी की लोक गायिका चंदन तिवारी से लेकर नेहा सिंह राठौर तक ने भोजपुरी की अश्लीलता के खिलाफ झंडा बुलंद किया. सैकड़ों गाने गाए, लेकिन राजनीतिक सहमति-असहमति से इतर किसी ने भी कभी भी उन्हें अश्लील नहीं कहा. लेकिन उनकी बात कितने लोगों तक पहुंची. महज कुछ लाख लोगों तक...क्योंकि उन्होंने द्विअर्थी नहीं गाया. जो भी गाया, जैसा भी गाया ऐसा गाया कि घर में बैठकर सबके साथ सुन सकें, गुनगुना सकें.
और करोड़ों-करोड़ लोगों तक किनकी बात पहुंची? उनकी, जिन्होंने कूलर को कुर्ती में लगा दिया, जिन्होंने गाया कि 'हमरा हउ चाहीं', जिन्होंने पेट में सीएनजी भर दी और मोबाइल को चोली में डाल दिया. कुछ लोगों ने अपनी-अपनी जाति बताकर 'चिपक के चुम्मा' ले लिया, जिन्होंने गाने में पूछ लिया कि 'राते दिया बुताके पिया क्या-क्या किया' उन्हें सबने देखा भी, सुना भी और गुनगुनाया भी.
पर्दे के पीछे ऐसे गाने सुनते हुए जब बोलने की बारी तो लोग बोले भी कि अश्लील है, अश्लील है...भोजपुरी में अश्लीलता है, ये बर्दाश्त नहीं होगी...लेकिन जाहिर है कि लोग ऐसे गाने देख रहे हैं, सुन रहे हैं और तभी ऐसे गाने बन भी रहे हैं.
लेकिन आप अपने घरवालों के साथ इन्हें सुन भी नहीं सकते, देखना तो दूर की बात है और तभी तो जब भी बिहार के भोजपुरी अंचल में कोई महिला आईपीएस अधिकारी आती है, तो उसका पहला फरमान होता है कि ऑटो से लेकर पान दुकान और दूसरी सार्वजनिक जगहों पर बज रहे गानों पर तुरंत रोक लगाई जाए. जब तक महिला अधिकारी तैनात है, गाने बंद और जाने के बाद तो लड़कियों को उन गानों की डर से रास्ता तक बदलना पड़ जाता है.
जो भोजपुरी आठवीं अनुसूची में भले ही जगह न पा सकी हो, जिसे भले ही संवैधानिक तौर पर भाषा का दर्जा न मिला हो, लेकिन वो एक लोकभाषा तो है ही, जिसे बोलने वालों की संख्या 20 करोड़ से ऊपर की बताई जाती है. उस भाषा में ऐसे गानों की तो भरमार है, जिनके मुखड़े को लिखते वक्त भी हाथ कांप जाएं.
महिलाओं के शरीर के लिए ऐसी-ऐसी उपमाएं बना दी गई हैं कि उपमा अलंकार भी शर्मिंदा हो जाए.भोजपुरी में स्त्री की 'चढ़ल जवानी रसगुल्ला' हो जाती है. 'कुंवारे में गंगा नहइले बानी' गाकर बताया जाता है कि हुआ क्या था. स्त्री की नाभि को कुंआ बनाकर उसमें मिट्टी डाल दी जाती है और फिर उसे कील से निकाल भी लिया जाता है. ब्लाउज और उसके हुक को केंद्र में रखकर एक नहीं सैकड़ों गाने बना दिए जाते हैं और उनके मिलियन-मिलियन व्यूज आ जाते हैं.
तो फिर ऐसे लोगों को सेक्स एजुकेशन देने के लिए आखिर कोई करे भी तो क्या. किन शब्दों में बताए कि सेफ सेक्स क्या है. किन शब्दों में बताएं कि सेक्स में प्रिवेंशन के लिए पुल आउट मेथड भी कोई चीज होती है या तो उसके लिए वर्क शॉप हो, जिसमें खुलकर बातें हों. लेकिन वहां बातें और भी खुलकर होंगी फिर और ज्यादा हाय-तौबा.
वही ज्यादा शोर मचाएंगे जिन्हें दोस्तों के साथ 'लंदन से लौंडिया लाकर रात भर डीजे बजाना होगा, जिन्हें 'मुंहवा प डाल के चदरिया लहरिया' लूटना होगा, जिन्हें 'डिबरी में तेल न होने की वजह से खेल नहीं होने' पर अफसोस करना होगा'.
तो 'बीच फील्ड में विकेट हिलाकर छक्का मारने' वाले बलमुआ हाय-तौबा कर रहे हैं तो करें. नीतीश कुमार ने अपनी बात कही. कहने का तरीका जाहिर है कि गलत था,लिहाजा उन्होंने माफी मांगी. क्या करें, आखिर राजनीति जो करनी है.
लेकिन जिस मुद्दे को नीतीश कुमार ने उठाया, वो संवेदनशील मसला है. उसे यूं ही श्लील-अश्लील की बहस में जाया न होने दें. एक मुद्दा उठा है, भले ही उसके कहने का तरीका गलत रहा या कहिए कि मुख्यमंत्री के पद की गरिमा के अनुरूप न रहा, लेकिन मुद्दा तो वो है ही और बड़ा मुद्दा है.
उसे यूं ही बेकार की बहस में पड़कर जाया कर देंगे तो बार-बार ओ माइ गॉड टाइप की फिल्मों की जरूरत पड़ती रहेगी. और फिर जिस मसले को विधानसभा के जरिए कानून बनाकर हल किया जा सकता है, उसके लिए लोग रेफरेंस के तौर पर सिनेमा का ही सहारा लेंगे.
और रही बात भोजपुरी की, तो भोजपुरी में अश्लीलता है, इससे किसी को इनकार नहीं है. लेकिन अगर वाकई भोजपुरी की मिठास सुननी हो तो फिर भिखारी ठाकुर से लेकर मोती बीए तक के लिखे और भरत शर्मा से लेकर, मदन राय, विष्णु ओझा और अब चंदन तिवारी से लेकर नेहा सिंह राठौर तक को सुनिए. आपको लोक भी दिखेगा और गीत भी..तो सुनिए...गुनिए और तब तय करिए कि श्लील क्या है अश्लील क्या और श्लील-अश्लील की बहस से परे असल मुद्दा क्या है.
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