बागेश्वर धाम सरकार के नाम से मशहूर आचार्य धीरेन्द्र शास्त्री ये दावा करते हैं कि वे भूत-प्रेत का इलाज करते हैं और मन की बात जान लेते हैं. आखिर किसी इंसान के भीतर भूत-प्रेत कैसे आ सकता है और ये कौन मानसिक बीमारी है और कैसे कोई मन की बात जान सकता है. इस बारे में हमने मनोवैज्ञानिक अरुणा ब्रूटा से बात की. आइये इस बारे में उनका क्या कुछ कहना है-
मनोवैज्ञानिकों के पास कुछ-कुछ ऐसे सेन्सरी परसेप्शन होते हैं, जिससे वे बता सकते हैं कि कुछ-कुछ होने वाला है और वह होता है. लेकिन बाबा जी ऐसा कुछ नहीं कर रहे हैं. वो क्या करते हैं, वो अनाउन्समेंट करते हैं कि इस शहर में मैं इतने दिनों तक कथा करूंगा और आप लोग आएं. कौन लोग आएं, जो मानसिक रूप से पीड़ित हैं.
जैसे एक बार छतरपुर में उनकी कथा में एक तरफ पुरुष लोग बैठे हुए थे, लेकिन उनको नहीं दिखाया गया. महिलाओं को बहुत अहमियत देकर दिखाया क्योंकि लेडी हिस्टेरिकल बॉडी मूवमेंट कर रही थी कि उनके अंदर कोई चुड़ैल आ गई है या कोई भूत-प्रेत आ गया है. हाथ और पैर पटक रही थी और हाथ में कंपन क्रिएट कर रही थी.
पीड़ित वास्तविक रूप से ठीक होते नहीं हैं
बाबा जी जो कथा पढ़ रहे थे, उसमें वो बता रहे थे कि सब चला जाएगा, सब ठीक हो जाएगा. बीच में वे हमारे पुराणों, गीता या रामचरितमानस से उदाहरण देते हैं. लोगों को उस समय कोई समझाने वाला मिलता नहीं है. तो वे जब इस तरह बोलते हैं, तो लगता है कि जो मानसिक रूप से पीड़ित पेशेंट शायद ठीक हो रहे हैं. इसे एक-दूसरे पर विश्वास का एक कनेक्ट स्टैब्लिश करना कहते हैं. हम सबने सुना है कि यहीं चीज बालाजी मंदिर में भी है. आम तौर से लोग सोचते हैं कि वे ठीक हो रहे हैं और 3 दिन कंट्रोल में भी रहते हैं, लेकिन चौथे दिन या हफ्ते के बाद उनके लक्षण वापस आने लग जाते हैं.
शांति की बात में उत्तेजना सही नहीं
बाबा जी जानकी अम्मा से, राम से, रावण से जो भी उदाहरण लेकर बताते हैं, वो समझाने के लिए अच्छे हैं, बुरे नहीं हैं, लेकिन इस दौरान उनके लफ्जों का उच्चारण, उनकी हरकत सिर का पटकना, हाथों से ताली लगाना, पत्थर से पीटना, इससे एक सवाल उठता है कि क्या ये नॉर्मल बॉडी लैंग्वेज है. उनके बॉडी लैंग्वेज में उत्तेजना होती है, लेकिन जो शांति की बात करता है, वो उत्तेजना से अपनी शांति का प्रचार नहीं करता.
मन की बात जानना संभव नहीं
जहां तक मन की बात है तो आप दस बातें बताएंगे ,उनमें से ही एक बात को मैं दूसरे लफ्जों में आपको बता दूंगी और आप सोचेंगे कि मैं बहुत बड़ी महाराज हूं. जो पीड़ित आते हैं, उनके विश्वास का फायदा उठाया जाता है. कौन खुश है, कौन दुखी है, इस तरह की मन की बातें जानना संभव नहीं है. एक तरफ हमलोग साइंटिफिक हो रहे हैं और दूसरी तरफ ऑर्थोडॉक्स की तरह महाराज शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं. आपको जिस चीज पर विश्वास है, कोई वैसी ही भाषा बोले तो उसको अच्छा लगेगा. आपको 10 मिनट या 10 दिन के लिए लगेगा कि आप ठीक हो गए, लेकिन ऐसा नहीं होता, सिम्पटम फिर से वापस आ जाते हैं. जो लोग भी बाबाओं के पास जाते हैं, वे अपनी मानसिक बीमारी को ठीक कराने के मकसद से जाते हैं. ऐसे पीड़ितों के विश्वास को ही आधार बनाकर ठीक करने का ढोंग किया जाता है और ये सही नहीं है.
उम्र के हिसाब से व्यवहार होना चाहिए
हिस्टेरिकल पर्सनालिटी एक तरह की मानसिक बीमारी है, जो जेनेटिक भी होते हैं, एन्वायरमेंटल भी होते हैं. इसको ड्रामा के लिहाज से नहीं देखा जाना चाहिए. अपनी-अपनी धारणा, अपना-अपना विश्वास होता है. उसके साथ खिलवाड़ नहीं किया जाना चाहिए. साधु-संतों में सहजता होती है, धैर्य होता है, किसी तरह का अल्हड़पन नहीं होता है. जब 26 साल को कोई आदमी उदपेश देता है, तो ये नॉर्मल नहीं है, जब 50 साल से ऊपर का कोई शख्स उपदेश देता है, तो उसकी स्वीकार्यता थोड़ी ज्यादा होती है. वहीं 70 साल के ऊपर को कोई आदमी उपदेश देता है, तो उसमें लोग फेथ करने लग जाते हैं क्योंकि उम्र के लिहाज से हर चीज अच्छी लगती है. मनोवैज्ञानिक का यही मानना है कि उम्र के हिसाब से व्यवहार ही संतुलित व्यवहार होता है.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. डॉक्टर अरुणा ब्रूटा मनोवैज्ञानिक और जानी-मानी मानसिक रोग विशेषज्ञ हैं. ]