बागेश्वर धाम के धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री कथावाचन के लिए इन दिनों बिहार में हैं. उनकी बिहार यात्रा को लेकर राजनीति भी तेज़ है. आरजेडी के तमाम नेता बीजेपी पर धीरेंद्र शास्त्री के नाम पर बिहार में राजनीति करने का आरोप लगा रहे हैं, वहीं बीजेपी के बड़े से बड़े नेता धीरेंद्र शास्त्री के दरबार में हाजिरी लगा रहे हैं. धीरेंद्र शास्त्री भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की बात कहते आए हैं. बीजेपी के तमाम नेता जिनमें मनोज तिवारी, रविशंकर प्रसाद से लेकर गिरिराज सिंह तक शामिल हैं, धीरेंद्र शास्त्री के साथ नजर आ रहे हैं. सवाल उठता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए क्या बीजेपी बिहार में धीरेंद्र शास्त्री के नाम पर वोटों का धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण करना चाहती है. बीजेपी के सांसद और बिहार प्रदेश इकाई के पूर्व अध्यक्ष संजय जायसवाल ने इस सारे सवालों के जवाब दिए. आइए जानते हैं कि उन्होंने क्या कहा:
धीरेंद्र शास्त्री को मुद्दा तो आरजेडी ने बनाया
किसी भी संत को, किसी भी धर्मप्रचारक को अपने धर्म के प्रचार की छूट हमारे देश का संविधान देता है. धीरेंद्र शास्त्री के अनुयायी लाखों की संख्या में जमा हो रहे हैं, उन्हें सुनने-देखने जा रहे हैं. इसमें मसला कहां था? उनका आना, अपने भक्तों से मिलना, कथावाचन करना, यह तो एक सामान्य प्रक्रिया का हि्स्सा था. आरजेडी के कुछ नेताओं ने जान-बूझकर इस पर विवाद किया, इसको विवादास्पद बनाया. संत के कथावाचन को दूसरा रंग देकर पूरे बिहार की जनता को आक्रोशित-उद्वेलित करने का भी काम उन्होंने किया. बिहार में हर कोई पूछ रहा था कि अगर यहां कोई संत अपना कथावाचन करना चाहें, तो क्या उनके खिलाफ ऐसी धमकी भरी भाषा का इस्तेमाल होगा? क्या बिहार में कोई आकर अपनी बात रखना चाहे तो कोई माननीय मंत्री उसके खिलाफ अपनी सेना बनाएंगे? इस तरह के काम, बयान और आरजेडी की करनी से बिहार की जनता में बहुत आक्रोश देखा गया. परिणाम आप देख ही रहे हैं. लाखों लोग कथावाचन में जा रहे हैं, हिस्सा ले रहे हैं.
बीजेपी नेता मंच पर राजनीतिक वजहों से नहीं
किसी भी संत के मंच पर बहुतेरे नेता आते हैं. मेरे लोकसभा क्षेत्र में भी कोई नेता आते हैं, तो हम सभी लोग जाते हैं. मैं भी जाता हूं. संतों का सम्मान करना, संतों के कथावाचन का रसपान करना, हनुमंत कथा सुनना, ये तो सभी हिंदुओं का अधिकार है. इसमें नेतागिरी की बात नहीं. बड़े नेता या छोटे नेता की भी बात नहीं. इसलिए, धीरेंद्र शास्त्री के मंच पर बीजेपी नेताओं का होना कोई न तो आश्चर्य की बात है, न ही इसको मुद्दा बनाने की जरूरत है. मीडिया में इसकी चर्चा इसलिए है, क्योंकि नेता दिखते हैं, इसलिए उनकी अधिक बात हो रही है. वर्ना लाखों की जो भीड़ आ रही है, उनको लेकर भी मुद्दा बनाना चाहिए न. जब जनता इतनी बड़ी संख्या में आ रही है, तो उनसे जुड़े जो भी हैं, चाहे वे किसी भी राजनीतिक दल से हों, वे भी जा रहे हैं.
बीजेपी का शुरू से मानना है कि हम अपनी संस्कृति को सदैव सम्मान देंगे. हमारा तो नारा ही है, 'एक हाथ में संस्कृति, दूसरे में विज्ञान, लेकर निकल पड़ा है अपना हिंदुस्तान.' बीजेपी का उद्देश्य भी यही है. बीजेपी के कार्यकर्ता इसी की साधना भी करते हैं.
हम अपनी संस्कृति को नहीं छोड़ सकते. हमारा एक उद्देश्य है कि इस देश की संस्कृति, इसके बल को हमेशा याद किया जाए और करवाया जाए. जो देश अपना इतिहास भूल जाता है, वह अपना भविष्य कभी ठीक नहीं बना सकता है. हम अपने मुगल आतताइयों की प्रशंसा करके अपने देश की नयी पीढ़ी को तैयार नहीं कर सकते. हमने जो हजारों वर्षों तक संघर्ष किया है, चाहे वह उजबेकों, मंगोलों या अंग्रेजों से हो, और उस संघर्ष के जो हमारे नायक हैं, उनके बारे में पढ़कर, जानकर बिहार आगे बढ़ सकता है.
बिहार के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण अगर पूछिए तो बिहार ज्ञान का केंद्र है, विज्ञान का केंद्र था और बिहार का जो सबसे बड़ा शिक्षा केंद्र था-नालंदा, उसे एक आक्रांता ने जला दिया, तीन महीने तक वह जलता रहा और जिसने उसे जलाया, हमने उसके नाम पर बख्तियारपुर जगह का नाम रखा हुआ है. हम इसमें अपनी शान समझते हैं कि बिहार के संपूर्ण ज्ञान को जलाने वाला हमारा एक हीरो है, एक नायक है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसमें बहुत गर्व महसूस करते हैं. जिस प्रदेश का मुख्यमंत्री ऐसे व्यक्ति के लिए गौरव महसूस करे, वह कैसे बढ़ सकता है.
जब तक हम अपने प्रदेश के ज्ञान को, विज्ञान को बढ़ाने वाले नायकों के बारे में युवा वर्ग को नहीं बताएंगे, उनको जाग्रत नहीं करेंगे, हमारा युवा विश्व पटल के लिए तैयार नहीं हो सकता. हमें यह भी बताना चाहिए कि भारत में डेढ़ हजार वर्षों तक, चाहे वह गुप्त वंश हो, मौर्य वंश हो या कुषाण वंश हो, विभिन्न शासक रहे, लेकिन उन्होंने कभी दूसरों पर अत्याचार नहीं किया.
नीतीश कुमार सुनने की क्षमता खो चुके हैं
ये बात सही है कि बिहार में बीजेपी ने बिल्कुल जेडीयू के साथ मिलकर सरकार चलाई है और इस बात से हम न तो शर्माते हैं, न स्वीकार करने में झिझकते हैं. आप 2004 की परिस्थितियों को याद कीजिए, बिहार में क्या हालात थे, वह कैसा दौर था. समता पार्टी केवल 3 सीटें जीती थीं, लेकिन बड़ी पार्टी होने के बावजूद हमने तय किया कि लालू यादव के कुशासन से बिहार को मुक्ति दिलानी है और हम साथ आए. अब नीतीश कुमार को अचानक ही अतिरिक्त ज्ञान हो गया कि उन्हें इस देश का पीएम बनना चाहिए, उसका नतीजा यही रहा कि 2014 में वह केवल 2 सीटें जीत सके और 36 सीटों पर जमानत जब्त करवा बैठे. इस बार भी परिस्थितियां वैसी ही हैं. नीतीश कुमार सुनने की क्षमता खो चुके हैं. हमने उनको कई बार समझाने की भी कोशिश की, लेकिन वह जिस राह पर निकले, उसका नतीजा ही यही है, जो आज नीतीश कुमार का है. बेटे से भी छोटे व्यक्ति के सामने हाथ बांध कर खड़े रहते हैं. हरेक बात बोलने के बाद अपने उप-मुख्यमंत्री को देखते हैं कि कहीं कोई बात गलत तो नहीं निकल गई?
कर्नाटक के नतीजे आम चुनाव की झलक नहीं
बिहार का चुनावी मुद्दा 'बिहार का विकास' है, केंद्र की सरकार का मुद्दा वह है जो हमने गरीबों, महिलाओं, मध्य वर्ग और युवाओं के लिए किया है. आप 2018 का दिसंबर याद कीजिए. हमारी सरकार मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में नहीं बनी थी. लोकसभा चुनाव 2019 के नतीजे भी याद कर लीजिए. इन सभी राज्यों में हम केवल एक सीट छिंदवाड़ा हारे थे. बाकी हमने शत-प्रतिशत सीटें जीतीं. अशोक गहलोत के बेटे भी पांच लाख वोटों से हारे थे. राज्य की राजनीति के उलट, केंद्र में नरेंद्र मोदी नीत सरकार की जरूरत को जनता भी समझती है. राज्यों में लोकल परिस्थितियां भी काम करती हैं. हम जबरन लोक लुभावन वादे भी नहीं करते, न ही झूठे वादे. 2024 में चुनाव है, फिर भी हमने बजट में लोक लुभावन नारे नहीं लगाए, क्योंकि हमारा स्पष्ट मानना है कि 2047 में अगर भारत को शक्तिशाली देश बनाना है, तो रेवड़ी कल्चर को त्यागना होगा.
मैं ये कहना चाहता हूं कि आगे राज्यों में भी बीजेपी झूमकर आएगी. कुछ राज्यों का ये पैटर्न है कि राज्य चुनाव के समय वे सत्तारूढ़ दल को बदल देते हैं. कर्नाटक का भी ये पैटर्न है, हिमाचल का भी. हालांकि, बीजेपी ही है जो गुजरात में सात चुनाव लगातार जीती है, मध्य प्रदेश में 20 साल से हम शासन में हैं. उत्तर प्रदेश में दूसरी बार लगातार हम बुलंदी से आए हैं. राज्यों में भी हमारा परफॉर्मेंस वैसा ही रहता है. कभी-कभार जनता को लगता है कि सरकार बदलनी चाहिए, लेकिन छह महीने में ही उनको अहसास भी हो जाता है. यह बात मैं 2018 में छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश आदि के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव को देखकर कह रहा हूं. वैसे, कर्नाटक के नतीजों से हम तो दु:खी हैं, लेकिन हमसे अधिक दु:खी तो नीतीश कुमार होंगे. अब उनकी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर भी कोई चर्चा नहीं करेगा, यह उनके लिए दु:खद है और यही शायद उनके पॉलिटिकल करियर का अंत भी.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)