बिटिया जब पैसे वालों को अपनी अर्जी लगानी होती है ना, तो वो मंदिर जाते हैं और जब हम जैसों (गरीबों को) को अपना दु:ख कहना होता है तो हम बाबा के पास आते हैं. सालों पहले 70-75 साल की अम्मा ने मुझसे जो ये बात कही थी वो आज भी लगभग एक दशक बाद उतनी ही प्रामाणिक दिखती है.
इन दिनों एक बाबा और उनके चमत्कारिक दावों पर बहस छिड़ी हुई है. बाबा कितने सच्चे हैं या उनके दावों में कितनी सच्चाई है ये बहस का विषय हो सकता है लेकिन उनके कार्यक्रम में आने वाली भीड़ भी एक सच है. हजारों की संख्या में लोग कार्यक्रम में पहुंच रहे हैं ये सच है. दूर दराज से लोग आ रहे हैं ये सच है और इस भीड़ में एक बड़ी संख्या उन लोगों की है जो पीड़ित हैं. कोई किसी लाइलाज बीमारी से पीड़ित है, तो कोई संतान न होने के दु:ख से. कोई नौकरी या फिर नौकरी में प्रमोशन की चाहत लेकर इस भीड़ का हिस्सा बन रहा है.
बाबाओं के पास दु:ख लेकर पहुंचते हैं लोग
सच है कि जब दु:ख हद से ज्यादा गुजर जाता है तो इंसान समाधान की तलाश में कहीं भी मत्था टेक देता है. ऐसा ही इन बाबाओं के दरबार में भी नजर आता है. लेकिन यही इस दरबार का सबसे बड़ा साइड इफेक्ट कहा जा सकता है. भारतीय संविधान वैज्ञानिक सोच को तरजीह देने की बात करता है और जब लाइलाज बीमारी के इलाज के लिए पीड़ित यहां पहुंचते हैं तो सोचिए कि वो किस दौर से गुजर रहा होगा और ऐसे ही बाजारों में छला जाता है एक साधारण शख्स का भरोसा.
दु:ख दूर करने का दावा
लाखों की भीड़ में समर्थक लेकर चलने वाले ये बाबा हालांकि दावे करते हैं कि वो एक सीढ़ी मात्र हैं और ईश्वर की कृपा से ही वो दु:खियारों का दु:ख दूर कर पाते हैं.
यहां गौर इस बात पर भी हो कि ऐसे दरबार सिर्फ किसी एक धर्म की पहचान नहीं है, बल्कि लगभग हर धर्म में ऐसे बाबा हैं और हर धर्म में ही एक धड़ा अपने दु:खों से मुक्ति पाने के लिए ऐसे बाबा के हवाले अपना भरोसा कर देता है. कुछ साल पहले की ही बात है टीवी पर हाले लुइया वाले प्रोग्राम खुलकर दिखाए जाते थे, जहां मंच पर चढ़ा एक शख्स प्रार्थना पढ़कर लाइलाज बीमारियों को दूर करने और प्रेतात्मा का चक्कर खत्म करने का दावा करता था. झाड़-फूंक वालों के चक्कर लगाने वाला तो आपको अपने आस-पास या अपने ही मोहल्ले में कोई मिल जाएगा. आज भी कई घरों में पीलिया की दवाई खाने के साथ-साथ पीलिया झड़वाया भी जाता है. इस यकीन के साथ कि बिना झाड़े पीलिया ठीक नहीं होने वाला. समस्या ये नहीं कि समस्याओं के समाधान के लिए लोग यहां पहुंच रहे हैं. समस्या ये है कि ऐसे बाबा आप एक ढूंढो हजार मिलेंगे. कई सड़कों पर तंबू गाड़े शत-प्रतिशत इलाज करने वाले मिल जाएंगे. प्यार, मोहब्बत, जिन्न, भूत-प्रेत का चक्कर एक फूंक में उड़ाने वाले मिल जाएंगे. ऐसे दावों का बाजार लगाने वाले का क्या उपाय करेंगे आप ?
आंख मूंदकर विश्वास से पहले थोड़ा तर्क जरूरी
साधारण घर परिवार के लोग अपने विकट परेशानियों को दूर करने के लिए न जाने कितने बाबाओं का चक्कर लगाते हैं और न जाने कितने पैसै गंवाते हैं. समस्या बस यहीं है. बड़े-बड़े धार्मिक स्थलों पर लाखों का चढ़ावा देने वाले तो ये खर्च वहन कर सकते हैं लेकिन पहले से ही परेशानियों का मारा पैसा भी गंवा रहा है और भरोसा भी.
अब तो ये बहस भी बेकार है कि केवल अशिक्षित लोग ही ऐसे दरबारों में जाते हैं क्योंकि पढ़ा-लिखा वर्ग भी अपने-अपने बाबा का बचाव करने में आगे हैं. अब क्या करें पीड़ित का पढ़ा लिखा वर्ग भी है, जहां बाबा के ये समर्थक बाबा के सिपाही बन जाते हैं. वहीं दूसरी तरफ इन बाबाओं का सबसे बड़ा हथियार है धर्म का झंडा. आप इन पर सवाल उठाइए ये तुरंत ही उसे धर्म पर हमला करार दे देंगे.
धर्म अनुशासन सिखाता है, धैर्य सिखाता है. धर्म सिखाता है:
"तर्कविहीनो वैद्यः लक्षण हीनश्च पण्डितो लोके। भावविहीनो धर्मो नूनं हस्यन्ते त्रीण्यपि"
इसका भाव है कि बिना तर्क के वैद्य, बिना लक्षण के विद्वान और भावना के बिना धर्म...वे निश्चित रूप से दुनिया में हंसने योग्य हो जाते हैं. तो आंख मूंदकर विश्वास करने से पहले थोड़ा तर्क कर लीजिए और भरोसा कीजिए अपने ईश्वर पर. जिसने दु:ख दिया है तो उस दु:ख से लड़ने की शक्ति भी वो ही देगा. होइहि सोइ जो राम रचि राखा.
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