बागेश्वर धाम के धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री की बिहार यात्रा की खूब चर्चा हुई. वे 13 मई से लेकर 17 मई के बीच पटना रहे. इस दौरान मनोज तिवारी, केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह, रविशंकर प्रसाद, रामकृपाल यादव समेत बिहार के तमाम बीजेपी के बड़े-छोटे नेता धीरेंद्र शास्त्री की आवभगत में लगे रहे.


धीरेंद्र शास्त्री की बिहार यात्रा को लेकर खूब राजनीति भी हुई. आरजेडी और जेडीयू के कई नेताओं की ओर से इसे बीजेपी का चुनावी हथकंडा भी बताया गया. आरजेडी और जेडीयू के कई नेताओं ने इसे 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी की ओर चला गया दांव बताया, जिससे राज्य में धर्म के नाम पर अभी से वोटों के ध्रुवीकरण के लिए माहौल बनने लगे.


धीरेंद्र शास्त्री की बिहार यात्रा पर राजनीति


बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से लेकर आरजेडी के लालू यादव तक ने अपने-अपने अंदाज में इस यात्रा पर व्यंग्य कसा. बिहार में राजनीतिक मंसूबों को जनसुराज यात्रा के जरिए आगे बढ़ाने में जुटे चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर भी धीरेंद्र शास्त्री की बिहार यात्रा पर चुटकी लेने से पीछे नहीं हटे. हालांकि बीजेपी के तमाम नेताओं ने धीरेंद्र शास्त्री की यात्रा को राजनीति से जोड़ने के लिए आरजेडी और जेडीयू के नेताओं की आलोचना की. बीजेपी नेताओं का कहना है कि किसी भी धर्म के उपदेशक कहीं भी आ-जाकर प्रवचन कर सकते हैं, कथावाचन कर सकते हैं, इसे राजनीति से जोड़ना ग़लत है.


हिन्दू राष्ट्र की बात दोहराते रहे हैं धीरेंद्र शास्त्री


धीरेंद्र शास्त्री भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात अक्सर कहते रहते हैं. बिहार में भी उन्होंने इस बात को दोहराते इतना तक कह डाला कि उनका सपना यहीं से यानी बिहार से ही साकार होगा.


इन सबके बीच ये सवाल प्रासंगिक है कि क्या बागेश्वर धाम बाबा के नाम से मशहूर धीरेंद्र शास्त्री के बिहार दौरे का कोई कनेक्शन बीजेपी के 2024 के राजनीतिक मंसूबों को राज्य में पूरा करने से जुड़ा है और अगर ऐसा है तो बीजेपी को इसका कितना लाभ मिलेगा.


2019 के मुकाबले बदले हुए हैं समीकरण


अगला लोकसभा चुनाव होने में अब करीब 11 महीने का ही समय बचा है, ऐसे में बीजेपी, कांग्रेस समेत तमाम पार्टियां हर राज्य में उसके मुताबिक रणनीति बनाने में जुटी है. पूरे देश में बिहार ही एक ऐसा राज्य है, जहां बीजेपी को 2019 के मुकाबले सबसे ज्यादा नुकसान की आशंका है और इसका सबसे बड़ा कारण पिछली बार के मुकाबले बिहार के राजनीतिक समीकरणों में बदलाव है. यही वजह है कि बीजेपी को अगर किसी राज्य में सबसे ज्यादा डर सता रही है, तो वो बिहार ही है. पिछले साल अगस्त में जिस तरह से पाला बदलते हुए नीतीश कुमार ने बीजेपी से दामन छुड़ाकर आरजेडी का हाथ थामते हुए सरकार बनाई थी, उससे बिहार में बीजेपी के लिए सियासी समीकरण पूरी तरह से बदल गए हैं.


लोकसभा के नजरिए से 2019 में बिहार एक ऐसा राज्य था जिसने बीजेपी के साथ अगर एनडीए को देखें तो जबरदस्त साथ मिला था. जेडीयू के साथ रहते हुए एनडीए ने यहां की 40 में 39 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल कर ली थी. लेकिन 2024 में बीजेपी को एनडीए के खाते में बिहार से इतनी सीटें डालना एक तरह से नामुमकिन है. इतना ही नहीं फिलहाल जो समीकरण है, उससे बीजेपी के लिए खुद की उस वक्त जीती गई 17 सीटों को बरकरार रखना भी उतना आसान नहीं होगा.


बिहार में वोटिंग में धर्म से ज्यादा जाति का असर


इसके पीछे कारण बिहार का चुनावी समीकरण है. एक बात अच्छे से समझने वाली है कि पूरे देश में बिहार एक ऐसा राज्य है, जहां चुनाव में ख़ासकर वोटिंग पैटर्न में धर्म से ज्यादा जाति का असर देखा जाता रहा है. बिहार में धार्मिक मुद्दों पर माहौल तो बनाया जा सकता है, भीड़ भी जुटाई जा सकती है, लेकिन वोटिंग के लिए जो सबसे असरदार कारक रहा है, वो जातिगत समीकरण और उससे बना गठजोड़ ही है. यही वजह है कि 2024 में बिहार के समीकरणों को साधने में बीजेपी को बेहद मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.


बिहार में दो तरह के गठबंधन का काट मुश्किल


बिहार की राजनीति और चुनाव पर अगर गौर करें तो यहां दो तरह के गठबंधन का काट निकालना बेहद मुश्किल है. कम से कम पिछले 5-6 चुनाव के जो नतीजे रहे हैं, उससे यहीं जाहिर होता है. पहला गठबंधन में आता है बीजेपी और जेडीयू का गठजोड़..वहीं दूसरे गठबंधन में आता है जेडीयू और आरजेडी का गठजोड़. 2005 से जब-जब बिहार में इन दोनों में कोई गठजोड़ रहा है, तो फिर उसको हराना संभव नहीं हुआ है. पिछले कई चुनाव में  बिहार में जब भी जेडीयू-बीजेपी का गठजोड़ हुआ है या फिर जेडीयू-आरजेडी का गठजोड़ हुआ है, दोनों ही तरह के गठबंधन को हराना मुश्किल रहा है. ऐसे तो विधानसभा और लोकसभा में वोटिंग का पैटर्न अलग होता है, लेकिन बिहार में जातीय समीकरणों के हावी रहने की वजह से लोकसभा और विधानसभा दोनों तरह के चुनाव में ऊपर बताए गए गठबंधन काम कर जाता है.


जेडीयू-बीजेपी या जेडीयू-आरजेडी गठबंधन है बेजोड़


जिस तरह से नीतीश कुमार पिछले 17-18 साल से बिहार की राजनीति में सिरमौर बने हुए हैं, उसके पीछे भी यही कारण है कि वे बिहार के चुनावी समीकरणों को ध्यान में रखकर पाला बदलते रहते हैं. लोकसभा में उनसे 2014 में ये चूक हो गई थी और वे न तो बीजेपी और न ही आरजेडी गठबंधन का हिस्सा रहे थे और इसका खामियाजा उनकी पार्टी को भुगतना भी पड़ा था. उस वक्त जेडीयू 18 सीटों के नुकसान के साथ महज़ दो सीटों पर सिमट गई थी. इस चुनाव को छोड़ दें तो 2005 से हर चुनाव में नीतीश या तो तो बीजेपी के साथ गठबंधन में रहे हैं या फिर आरजेडी के साथ और यही राजनीतिक समझ नीतीश की ताकत रही है कि जिसकी वजह से वो सूबे में तीसरे नंबर की पार्टी होने के बावजूद मुख्यमंत्री बने हुए हैं. इसी समीकरण को समझते हुए नीतीश को इससे भी फर्क नहीं पड़ता कि उपेंद्र कुशवाहा या फिर कोई और दूसरा नेता जेडीयू से बाहर चला जाता है.


2005 में बीजेपी-जेडीयू गठबंधन ने किया कमाल


फरवरी 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में नीतीश-बीजेपी की जोड़ी ने आरजेडी के विजय रथ को रोककर 15 साल के लालू-राबड़ी राज का खात्मा कर दिया. उसके बाद अक्टूबर-नवंबर 2005 से बिहार में अब तक 4 बार विधानसभा चुनाव हुए हैं. और 2009, 2014 और 2019 में तीन बार लोकसभा चुनाव हुए हैं. अक्टूबर-नवंबर 2005  के विधानसभा चुनाव में बीजेपी नीतीश के साथ चुनाव लड़ी और इस गठबंधन ने जीत का परचम लहराया. जेडीयू 88 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी और बीजेपी 55 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी. वहीं आरजेडी सिमटकर 54 सीटों पर जा पहुंची.  जेडीयू को 20.46% और बीजेपी को 15.65% वोट हासिल हुए. दोनों को मिला दें तो ये वोट शेयर 36 फीसदी से ऊपर चला जाता है. वहीं आरजेडी का वोट शेयर 23.45% रहा.


2009 और 2010 में भी बीजेपी-जेडीयू गठबंधन का जादू


2009 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी और जेडीयू गठबंधन की वजह से एनडीए को 40 में से 32 सीटें हासिल हुई, जिसमें जेडीयू के 20 और बीजेपी के पास 12 सीटें गई. वहीं आरजेडी महज 4 सीट ही जीत पाई. इसके अगले साल फिर विधानसभा चुनाव हुआ. 2010 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी-जेडीयू का गठबंधन बना रहा और इस गठबंधन का तोड़ लालू यादव की पार्टी राम विलास पासवान के साथ मिलकर भी नहीं निकाल पाई.  जेडीयू और बीजेपी ने मिलकर बिहार की 243 में से 206 सीटों पर जीत हासिल कर ली और आरजेडी का कुनबा सिर्फ 22 सीटों पर सिमट गया. इस चुनाव में भी जेडीयू-बीजेपी का मिलाकर वोट शेयर 39 फीसदी से ज्यादा रहा और आरजेडी को 19 फीसदी से भी कम वोट मिले. चुनाव नतीजों से ये पता चल गया कि जेडीयू-बीजेपी का साझा वोट बैंक इतनी बड़ी ताकत बन गई कि भविष्य में इस समीकरण की काट खोजना मुश्किल होगा.


2014 में अलग-अलग लड़ने पर बीजेपी सब पर भारी


हालांकि जेडीयू-बीजेपी गठबंधन की काट 2015 में मिल गया जब जेडीयू-आरजेडी ने पहली बार मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया. लेकिन इससे पहले 2014 का लोकसभा चुनाव हुआ. उसमें बीजेपी, जेडीयू और आरजेडी तीनों ही अलग-अलग चुनाव लड़ी. नीतीश को 2014 के लोकसभा चुनाव में एहसास हुआ कि बिहार में बिना बीजेपी के उनकी पार्टी के लिए सीटें जीतना कितना मुश्किल है. इस चुनाव में बीजेपी ने राम विलास पासवान की एलजेपी और उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी के साथ मिलकर 40 में से 31 लोकसभा सीटों पर कब्जा कर लिया. वहीं अलग-अलग चुनाव लड़ रही जेडीयू को सिर्फ़ दो सीट और आरजेडी को 4 सीटों पर ही जीत मिली. आरजेडी की सहयोगी कांग्रेस 2 और एनसीपी 1 सीट पर जीत दर्ज करने में सफल रही.


2015 में जेडीयू-आरजेडी गठबंधन का चला जादू


2014 के लोकसभा चुनाव से ये साफ हो गया था कि बीजेपी के साथ गठबंधन के बिना जेडीयू का प्रदर्शन बेहतर नहीं हो सकता है. इसी का काट खोजते हुए 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने आरजेडी और कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन बनाया. जब नतीजे सामने आए तो ये साबित हो गया कि जिस तरह से बीजेपी-जेडीयू गठबंधन बिहार में जादू कर सकता है, तो उसी तरह जेडीयू-आरजेडी गठबंधन को भी हराना बहुत मुश्किल है. ये दोनों ही तरह के गठबंधन बिहार में जातीय समीकरणों के इर्द-गिर्द घूमने वाला गठजोड़ है. 2015 विधानसभा चुनाव में बीजेपी सिर्फ 53 सीटों पर सिमट गई और महागठबंधन के तहत आरजेडी 80 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी और उसकी सहयोगी जेडीयू को 71 सीट और कांग्रेस को 27 सीटों पर जीत मिली. ये एक बड़ी जीत तो थी ही. आरजेडी को 18.4% और जेडीयू को 16.8% और कांग्रेस को 6.7% वोट मिले जबकि बीजेपी के खाते में सबसे ज्यादा 24.4% वोट गए.


2015 में जेडीयू-आरजेडी गठबंधन ने जितनी बड़ी जीत हासिल की, उससे ये भी स्थापित हो गया कि बीजेपी-जेडीयू साझेदारी की काट आरजेडी-जेडीयू के बीच गठजोड़ ही है. महागठबंधन की साझा ताकत के आगे बीजेपी की एक नहीं चली. इस चुनाव से ही पहली बार ये बात सामने निकल कर आई कि जेडीयू-बीजेपी की तरह ही जेडीयू-आरजेडी गठबंधन भी बिहार में कारगर और अभेद्य गठजोड़ है.


2019 और 2020 में जेडीयू-बीजेपी गठजोड़ का दिखा दम


बिहार में बीजेपी-जेडीयू या फिर जेडीयू-आरजेडी का गठबंधन कैसे सफलता की गारंटी है, इस बात को 2019 के लोकसभा और 2020 के विधानसभा चुनाव में भी यहां की जनता ने सही साबित कर दिया. 2019 लोकसभा चुनाव में एक बार नीतीश बीजेपी के साथ थे और नतीजा ये हुआ कि एनडीए 40 में से 39 सीटें जीतने में कामयाब हो गई. इनमें बीजेपी को 17, जेडीयू को 16 और एलजेपी को 6 सीटें मिली. वहीं आरजेडी का तो खाता तक नहीं खुला. 2020 के विधानसभा चुनाव में भी 15 के सत्ता विरोधी लहर (एंटी इनकंबेंसी)  के बावजूद नीतीश, बीजेपी के साथ गठबंधन की वजह से सत्ता बरकरार रखने कामयाब रहे. बीजेपी-जेडीयू के साथ से एनडीए गठबंधन 125 सीटों पर जीतकर बहुमत हासिल करने में कामयाब रही, लेकिन नीतीश की पार्टी सिर्फ 43 सीट ही जीत सकी और बीजेपी 74 सीट लाने में कामयाब रही. आरजेडी 75 सीट के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी.


बीजेपी से बढ़ते मनमुटाव और केंद्रीय राजनीति से जुड़ी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए अगस्त 2022 में नीतीश ने एक बार फिर पाला बदला. बीजेपी से अलग होकर जेडीयू ने आरजेडी से हाथ मिलाकर प्रदेश में महागठबंधन की नई सरकार बनाई.


जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन से कैसे निपटेगी बीजेपी?


वोट शेयर के आधार पर बात करें तो जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस का जोड़ बिहार में बेहद मजबूत गठबंधन बन जाता है. 2020 के विधानसभा चुनाव के आंकड़ों के हिसाब से इन तीनों के वोट शेयर मिला दें तो वो करीब 48 फीसदी हो जाता है. वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव के हिसाब से इन तीनों का साझा वोट शेयर करीब 45 फीसदी हो जाता है. नीतीश इसी ताकत को समझ गए हैं कि जेडीयू-आरजेडी के एक साथ रहने पर बिहार में जिस तरह की जातीय समीकरणों के आधार पर 2005 से वोट डाले जा रहे हैं, वैसे हालात में 2024 में जेडीयू-आरजेडी गठबंधन के लिए कुछ ज्यादा चिंता करने वाली बात नहीं है.


इसके विपरीत बीजेपी के लिए इसी समीकरण को साधने की चिंता सता रही है. बिहार में ऐसे अकेले पार्टी के तौर पर बीजेपी सब पर भारी है, अगर बीजेपी, जेडीयू और आरजेडी ये सब अलग-अलग चुनाव लड़ते हैं. ये हमने 2014 के लोकसभा चुनाव नतीजों में देखा भी था. लेकिन जैसे हालात हैं, बिहार में इस तरह के समीकरण बनने की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं नज़र आ रही है. जातीय समीकरण के लिहाज से बिहार में जेडीयू-आरजेडी गठबंधन या बीजेपी-जेडीयू गठबंधन काफी मजबूत हो जाती है और इस पर बाकी मुद्दों का भी कोई ज्यादा असर पड़ते नहीं दिखा है.


जिस तरह से बाकी पार्टियां आरोप लगा रही हैं कि धीरेंद्र शास्त्री के जरिए बीजेपी बिहार में वोटों का ध्रुवीकरण करने की मंशा रखती है, ताकि 2024 के चुनाव में जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस के गठबंधन की तोड़ निकल सके. बीजेपी कैसे इस गठबंधन की काट निकालती है, ये तो भविष्य में ही पता चलेगा, लेकिन इतना तो तय है कि पुराने अनुभवों के विश्लेषण यही कहता है कि बिहार में वोटों का ध्रुवीकरण धार्मिक आधार पर कर चुनाव जीतना आसान नहीं है. बीजेपी के लिए सबसे चिंता की बात ये भी है कि रामविलास पासवान के अक्टूबर 2020 में निधन के बाद अब बिहार में एलजेपी का भी वैसा प्रभाव नहीं रह गया है. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में एलजेपी एनडीए सहयोगी के तौर पर 6-6 सीटने में कामयाब रही थी. उसे 7 से 8 फीसदी के आसपास वोट मिलते रहे थे. हालांकि 2024 में बीजेपी को इस वोट बैंक को साधने की भी चुनौती होगी.


(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)