(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
बजरंग हों या साक्षी, नहीं करनी चाहिए इस तरह की नाटकीयता, कुश्ती किसी की निजी जागीर नहीं जो सबकुछ हो उनका मनचाहा
कुश्ती को लेकर भारत में एक बार फिर विवाद छिड़ गया है. कुश्ती संघ के चुनाव हुए और उसमें संजय सिंह की जीत हुई, जो बृजभूषण सिंह के करीबी माने जाते हैं. इसके बाद साक्षी मलिक ने प्रेस कांफ्रेंस में रोते हुए अपने बूट उतार कर रख दिए, जो खेल छोड़ने का प्रतीक है और उसके बाद बजरंग पूनिया ने तो अपना पद्मश्री ही पीएम आवास के बाहर फुटपाथ पर रख दिया.
यह केवल नाटकीयता है, गंभीरता नहीं
सबसे पहली बात तो यह सोचने की है कि जिसने बूट उतारे हैं, उसके अंदर खेल कितना बचा है. आज अगर अर्शदीप सिंह या हार्दिक पांड्या क्रिकेट छोड़ने की घोषणा करें, तो बात समझ में आएगी. कुछ लोग संजीदा होंगे, क्योंकि एक नया बच्चा अगर खेल छोड़ रहा है, जिसका करियर अभी शुरू ही हो रहा है, तो वह सोचने की बात है, लेकिन अगर आज गौतम गंभीर बूट टांग दें, तो उसका क्या अर्थ होगा, वह तो पहले ही रिटायर हो चुके हैं. साक्षी मलिक का करियर तो 2016 के बाद से ही समाप्त है.
रिकॉर्ड देख लीजिए कि पिछले चार साल में उन्होंने कितनी नेशनल चैंपियनशिप जीती है, कितने उन्होंने ट्रायल दिए हैं. उन्होंने तो एशियन गेम्स से लेकर वर्ल्ड चैंपियनशिप तक का ट्रायल नहीं दिया. आखिरी प्रतियोगिता उन्होंने कब लड़ी, आखिरी बार कोई कोचिंग कैंप उन्होंने कब अटेंड किया था, कोई नेशनल चैंपियनशिप, स्टेट चैंपियनशिप, वर्ल्ड चैंपियनशिप..कुछ भी बता दें वह, तो बात समझ में आए. वह तो राजनीति में व्यस्त रही हैं और उनका करियर 8 साल पहले ही खत्म हो चुका था. उनके बूट टांगने का नाटकीयता से अधिक कोई महत्त्व नहीं है.
जहां तक बजरंग पूनिया के पद्मश्री लौटाने की बात है, तो उसके अलावा भी उनको बहुतेरे पुरस्कार मिले हैं. उनको अर्जुन पुरस्कार भी मिला है, खेल-रत्न पुरस्कार भी मिला है, कैश अवॉर्ड्स मिले हैं, केवल पद्मश्री क्यों वापस किया फिर? मान लीजिए कि मैं आपके घर आता हूं और आप थाली में 10 पकवान दें. मैं उनमें से दो पकवान कह दूं कि आप ले जाओ और बाकी सब रख लूं, तो यह न्याय नहीं है. उनको करोड़ों रुपए नकद पुरस्कार मिले हैं, तो उनको भी लौटाना चाहिए. वो भी तो इसी देश और यहीं की सरकार ने दिया है. तो, उनको सारा नकद और पर्क्स भी वापस करना चाहिए. उनको प्रमोशन मिला है, रेलवे में मुफ्त यात्रा का आजीवन अधिकार मिला है, उस सबको लौटाएं.
अवॉर्ड वापसी केवल नाटक
यह दरअसल अवॉर्ड वापसी का नाटक है, जो हम पहले भी देख चुके हैं. जहां तक इन लोगों की यह मांग है कि बृजभूषण शरण सिंह के करीबी का अध्यक्ष पद पर कब्जा हो गया और सरकार को इसे रोकना चाहिए, तो यह बात ही हास्यास्पद है. यह लड़ाई इनकी व्यक्तिगत और निजी लड़ाई है. सरकार से अगर ये डब्ल्यू एफ आई (भारतीय कुश्ती संघ) के चुनाव में दखल की मांग करते हैं तो यह पूरी तरह से गैर-संवैधानिक बात होगी, क्योंकि जितने भी खेल संघ हैं, वो पूरी तरह से स्वायत्त हैं और उनके संचालन का, दिन ब दिन प्रबंधन का पहला जो क्लॉज है, वह यही है कि सरकार का कोई भी दखल किसी भी खेल-संघ में नहीं होना चाहिए. अगर सरकार ने दखल दी तो विश्व कुश्ती संघ ही भारतीय कुश्ती संघ को डी-एफ्लियेट (यानी, मान्यता खत्म करना) कर देगी.
चुनाव तो बाकायदा बैलट पेपर के जरिए हुआ है. उसमें 50 लोगों की एक सूची है, जो मिल कर संघ का चुनाव करते हैं. उस चुनावी प्रक्रिया को कौन प्रभावित कर सकता है, पहलवानों की आखिर मांग क्या है, भारत सरकार भला संजय सिंह को कैसे हरवा सकती है, अगर वह वोटों को रिग न करे? 40 वोट संजय सिंह को मिले हैं, 7 वोट अनीता श्योराण को मिले हैं और ये वोट पूरे देश में फैले कुश्ती-संघों के हैं. सरकार से आखिर उम्मीद और अपेक्षा क्या है?
इस पर हल्ला बेवजह और गैरजरूरी
साक्षी मलिक हों या बजरंग पूनिया ऐसी मांग कर रहे हैं, जो सरकार पूरी ही नहीं कर सकती है. ये कुछ वैसी ही मांग है कि किसी गांव वाले से यह कहा जाए कि वह अपने गांव के सरपंच की सारी संपत्ति किसी को बांट दे. वह तो सरपंच की संपत्ति है न, उसको सरकार कैसे किसी को दे सकती है. जहां तक साक्षी मलिक के आंसुओं को जाट स्वाभिमान से जोड़ने और उपराष्ट्रपति के मजाक उड़ाने से जोड़ा जा रहा है, तो वो दोनों दो बातें हैं. जगदीप धनखड़ का मजाक संसद की सीढ़ियों पर किया गया, उनकी मिमिक्री की गयी है. साक्षी मलिक का आक्रोश तो निजी है. वह वैसे भी कुछ छोटा पद मांग रही हैं, उनको हरियाणा का मुख्यमंत्री पद मांग लेना चाहिए.
दरअसल, इस साल जनवरी से चल रहा पूरा विवाद गैर-जरूरी और दुखद है. इस विवाद के चक्कर में कुश्ती की सारी गतिविधियां ठप हो गयी थीं. एक भी राष्ट्रीय चैंपियनशिप नहीं हुई. नए कुश्ती संघ ने बच्चों के लिए राष्ट्रीय चैंपियनशिप (अंडर 15) का रखा, क्योंकि उनका एक साल बर्बाद हो रहा था. हालांकि, नए महासचिव ने आते ही उस पर ब्रेक लगा दिया है. तो, ये नुकसान है. आपसी लड़ाई में कुश्ती का नुकसान हो रहा है, नए बच्चों का नुकसान हो रहा है. तो, ये जो पहलवान हैं, उनका मुख्य लक्ष्य दरअसल कुश्ती संघ पर कब्जा करना था, कुश्ती की भलाई से उनका कोई लेनदेन नहीं है. इसके बावजूद उम्मीद बस यही करनी चाहिए कि नया संघ इन सभी मसलों को सुलटाएगा और भारतीय कुश्ती को एक बार फिर पटरी पर ले आएगी.
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